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Monday 25 May 2020

माँ तुम ही हो मीत (कविता) - रीना गोयल

माँ तुम ही हो मीत
(कविता)
सिकुड़ गया है गात ठंड से ,चुभे शूल सा शीत ।
सूने सूने वन उपवन सब ,मौन हृदय के गीत ।

रंग धूप का धुआं हुआ है ,गहन हुआ अँधियार ।
सन्नाटा लिपटा तरुवर से ,बर्फ बनी जलधार ।
सुबह खोजती है सूरज को , लगा धूप से आस ।
ओझिल आकृतियां है सारी ,कौन बुलाये पास ।
बीहड़ इस निर्जन जंगल में,मात दिखाए प्रीत ।
सिकुड़ गया है गात ठंड से ,चुभे शूल सा शीत ।।

अपनी साँसों की गर्मी से ,शीत करे माँ दूर ।
ममता के आँचल में छुपकर ,सुख मिलता भरपूर ।
है ममत्व में मात बिचारी ,मौन नैन के बैन ।
कभी धूप के देव जगेंगे ,तब आये कुछ चैन 
कठिन हुआ है जीवन जबसे ,बिछड़ गया मनमीत ।
सिकुड़ गया है गात ठंड से ,चुभे शूल सा शीत ।।
-०-
पता:
रीना गोयल
सरस्वती नगर (हरियाणा)

-०-

***
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Saturday 23 May 2020

पहले से आराम बहुत है (कविता) - शिवानन्द सिंह ‘सहयोगी’

पहले से आराम बहुत है
(कविता)
जो भेजे हो दवा पेट की,
केवल दो दिन ही खाए हम,
पहले से आराम बहुत है.

खेत कट गये, सब गेहूँ के,
बोझ पड़े, खलिहान गँजा है,
दो हजार का, नोट दिए जो,
मुश्किल से वह, आज भँजा है,
आवारा पशु, फसल चर गये,
एक देह को काम बहुत है.

खेत पटाने, गई ‘पवितरी’,
‘रामबुझावन’ गाय चराने
छुटकी रूठ, गई ‘पडरौना’,
‘रूप’ गया ‘घरजनवा’ खाने,
पेड़ फलों से, लदे पड़े हैं,
आया लँगड़ा आम बहुत है.

बचा बकाया, ‘पटवारी’ का,
चुका दिया हूँ पाई-पाई,
सुन, इस फागुन में होनी है,
‘बसमतिया’ की, रुकी सगाई,
एक बार, आकर मिल जाता,
आता लेकिन, घाम बहुत है.

सिर में दर्द, बहुत रहता है,
सदा कहँरती, बुढ़िया आजी,
खाना-पीना, बंद हो गया,
खाती है कुछ, ताजा भाजी,
शहर दिखा दूँ, किसी वैद्य से,
डर जाता हूँ, जाम बहुत है.-०-
पता: 
शिवानन्द सिंह ‘सहयोगी’
मेरठ (उत्तरप्रदेश)
-०-


***
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Thursday 14 May 2020

जिंदगी तेरा कोई पता नहीं (कविता) - राजीव डोगरा


जिंदगी तेरा कोई पता नहीं
(कविता)
ज़िंदगी तेरा कोई पता नहीं
कब आती हो और
कब चली जाती हो,
लोग सोचते हैं शायद
किसी का कसूर होगा,
मगर आती हो तो
हज़ारो बेकसूरों को भी
अपने साथ ले जाती हो।
कोई तड़फता है
अपनों लिए
कोई रोता है,
औरों के लिए
पर तुम छोड़ती नहीं
किसी को भी
अपने साथ ले जाने को।
जब मरता है कोई एक
तो अफ़सोस-ऐ-आलम
कहते है सब
पर जब मरते है हज़ारों
तो ख़ौफ़-ऐ- क़यामत
कहते हैं सब।
तू भी कभी
तड़फती रूहों को
अपने गले लगाए,
ज़रा रोए कर
मरते हुए किसी चेहरें को
खिल-खिला कर
ज़रा हँसाए कर।
मानता हूँ की ख़ौफ़
तेरे रोम-रोम में बसा हैं
फिर भी किसी मरते हुए
इंसा के माथे को चूम
ज़रा-ज़रा सा मुस्काया कर।
ज़िंदगी तेरा कोई पता नहीं
कब आती हो और
कब चली जाती हो।
-०-
राजीव डोगरा
कांगड़ा हिमाचल प्रदेश
-०-




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कविता के बाजार में (कविता) - अमित खरे

कविता के बाजार में
(कविता)
आओ संयोजक संयोजक खेलें कविता के बाजार में
जुमले और चुटकुल्ले खेलें कविता के बाजार में
आओ अपना गैंग बनाएं कविता के बाजार में
मिलकर पैसा खूब बनाएं कविता के बाजार में
आओ नई दुकान लगाएं कविता के बाजार में
कवियत्री को ढाल बनाएं कविता के बाजार में
दो अर्थी संवाद करेंगे कविता के बाजार में
घर अपना आवाद करेंगे कविता के बाजार में
दिल्ली वाला गैंग चलेगा कविता के बाजार में
कोई ढिंन चिक ढैंग चलेगा कविता के बाजार में
कविता को नीलाम करेंगे कविता के बाजार में
हर दिन नया जाम करेंगेकविता के बाजार में
जी भर चिल्ला चोंट करेंगे कविता के बाजार में
नव अंकुर का घोंट करेंगे कविता के बाजार में
पाक पे झण्डा गाड़ेंगे कविता के बाजार में
जड़ से उसे उखाड़ेंगे कविता के बाजार में
कविता चोरी की पढ़ते हैं कविता के बाजार में
खेल कमीशन का करते हैं कविता के बाजार में
गज़ल नही हैगीत नही है कविता के बाजार में
कोई किसी का मीत नही है कविता के बाजार में
सम्मानों के ठेके होते कविता के बाजार में
कुछ लेके कुछ देके होते कविता के बाजार में
कविता के दुर्दिन हैं जारी कविता के बाजार में
मंचों पर हैं खड़े मदारी कविता के बाजार में
गुर्गे पालनहार खड़े हैं कविता के बाजार में
उल्लू लिये सितार खड़े हैं कविता के बाजार में
झूठों के सरदार खड़े हैं कविता के बाजार में
कितने नटवरलाल खड़े हैं कविता के बाजार में
सरकारी आयोजन हथियाना कविता के बाजार में
सबको बांटो दाना दाना कविता के बाजार में
केवल सत्ता के चारण हैं कविता के बाजार में
चाटुकारी उच्चारण है कविता के बाजार में
घूम रहे हैं बने प्रवक्ता कविता के बाजार में
अपने अपने दल के वक्ता कविता के बाजार में
चैनल पर ताली पिटवाते कविता के बाजार में
हिन्दी की हिन्दी करवाते कविता के बाजार में
कोई विधि विधान नही है कविता के बाजार में
कोई संत महान नही है कविता के बाजार में
-०-
अमित खरे 
दतिया (मध्य प्रदेश)
-०-




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Wednesday 13 May 2020

सब कुछ छोड़ (मुक्तक) - राघवेंद्र सिंह 'रघुवंशी'

सब कुछ छोड़
(मुक्तक)
सब कुछ छोड़ कर मैं गांव लौट आया हूं,
आज सदियों के बाद खेत अपने आया हूं।
शहरों की भाग दौड़ में उलझ के थक गया था,
दिल मेरा था बेचैन अब मैं चैन पाया हूं।।
पेड़ पौधे मेरे मुझसे शिकायत करते हैं,
बच्चों सी करके शरारत फिर मुझसे लड़ते हैं।
महीनों हो गए बातें नहीं की हैं हमने,
बैठो छाया में मेरी दिल की बातें करते हैं।।
रघुवंशी हमें छोड़ के ना जाया करो,
याद आती है बहुत यू न तुम सताया करो।
ये मत समझो कि हम जी नहीं सकते तुम बिन,
हम हैं दिलदार तुम्हारे यूं ना आजमाया करो।।
गया बेरी के पास कहा बेर खिलाओ,
पेड़ बोला कि अब क्यों आए हो भाग जाओ।
मैंने कहा मजबूरी थी मान भी जाओ यार,
अब ना जाऊंगा कभी शिकवे गिले भूल जाओ।।
छोड़कर तुमको फिर से कभी अब न जाऊंगा,
छोटी कुटिया बनाके यहीं रुक जाऊँगा।
रघुवंशी जहाँ के झंझटों से थक चुका है,
रहूंगा जंगलों में जहाँ भूल जाऊंगा।।
-०-
कवि 
राघवेंद्र सिंह 'रघुवंशी'
-०-

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Monday 11 May 2020

इंतज़ार (कविता) - अमित डोगरा


इंतज़ार
(कविता)
इंतजार क्या है?
इंतजार से पूछो इंतजार क्या है?
इंतजार क्या है
मुझसे पूछो ?
उसके आने से पहले भी
उसका इंतजार था,
उसके आने पर भी
उसका ही इंतजार है,
उसके पास बैठने पर भी
उसका ही इंतजार था ,
उसके साथ चलने पर भी
उसका ही इंतजार है,
उसके जाने के बाद भी
उसका ही इंतजार है ,
आज भी उसका इंतजार है,
जीवन के अंतिम क्षणों तक
उसका ही इंतजार रहेगा ।।
-०-
पता:
अमित डोगरा 
पी.एच डी -शोधकर्ता
अमृतसर

-०-

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हाय रे मोटापा ! (हास्य दोहे) - रीना गोयल

हाय रे मोटापा !
(हास्य दोहे)
मोटापे से हो रही , भारी भरकम देह।
विरला ही कोई मुझे, अब करता है स्नेह।।१।।

लापरवाही थी करी, खूब किया नित भोज।
पर गरिष्ठ आहार की ,आँखें करती खोज।।२।।

चर्बी घटती ही नहीं, बनी हुई हूँ ढोल ।
सुंदर तन इतिहास का, बदल गया भूगोल।।३।।

दर्पण में देखूं अगर , उठती मन में पीर।
कुछ ही दिन में हाय रे! हथिनी बना शरीर।।४।।

लेकिन यदि कोई कहे, मोटी मुझको आज।
जीभ काटकर फेंक दूँ , यह मेरा अंदाज़।।५।।
-०-
पता:
रीना गोयल
सरस्वती नगर (हरियाणा)

-०-

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Saturday 9 May 2020

कौमी एकता (कविता) - प्रीति चौधरी 'मनोरमा'

कौमी एकता
(कविता) 
कौमी एकता का बीज अंकुरित करो जहान में,
सद्भाव की फसल उपजे,खेत और खलिहान में।

हिंदू, मुस्लिम,सिक्ख, ईसाई, आपस में सब भाई- भाई,
आखिर सच्चे रिश्तों पर क्यों शक की दीवार लगाई?
लहू सभी का जब है लाल,क्यों हो नफ़रतों से बदहाल?
नेहरू,कलाम,फर्नांडिस जैसे सुमन खिले उद्यान में।
कौमी एकता का बीज अंकुरित करो जहान में।

जब निर्मल बहती पवन करती है समान व्यवहार,
बिन भेदभाव के इंदु बांटे प्रकाश का उपहार,
क्यों धर्म के नाम पर हम करें नित्य तक़रार?
एकता के अखण्ड दीप जलाएं राष्ट्र के गुणगान में।
कौमी एकता का बीज अंकुरित हो जहान में।

मन वचन कर्म में शुचिता सभी धर्मों का मर्म है,
मज़हब का पर्यायवाची शब्द ही धर्म है,
मानवता की सेवा में निहित सर्वश्रेष्ठ कर्म है,
प्रत्येक धर्म साथ चले भारत के उत्थान में।
कौमी एकता का बीज अंकुरित करो जहान में।

बाइबिल, गीता , और कुरान एक ही हैं,
श्लोक,मन्त्र, आरती, अजान एक ही हैं,
धर्म, जाति, भिन्न हैं, हिन्दोस्तान एक ही है,
मतभेद की आंधियाँ न चलें वतन के मकान में,
कौमी एकता का बीज अंकुरित हो जहान में।
-०-
पता
प्रीति चौधरी 'मनोरमा'
बुलन्दशहर (उत्तरप्रदेश)

-०-


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बेटियां प्यारी हैं (कविता) - अख्तर अली शाह 'अनन्त'


बेटियां प्यारी हैं 
(कविता)

दुराचारियों हत्यारों को ,
फांसी पे लटका दे हम ।
बोटी बोटी काट के चीलों,
कव्वो में बटवा दें हम।।
दंड देखकर देहशत में ,
अपराधी जिस दिन आएंगें।
मुक्ति मिलेगी कीचड़ से ,
जीवन निर्मल हो जाएंगें।।
****
जिसने चैन हमारा छीना,
नहीं चैना से रह पाएं।
ऐसी कर दो गति जहां,
जायें बस ठोकर ही खाएं।।
भले आसिफा हो या हो,
निर्भया बेटियां प्यारी हैं ।
एक सुरक्षित जीवन जी ,
पायें इसकी अधिकारी हैं ।।
******
यह समाज की जिम्मेदारी,
है उनको सम्मान मिले ।
उन्हें मिले जो आसपास में ,
अपने वो इंसान मिले ।।
बने जानवर जो समाज में,
रहते उनको दुत्कारो ।
जहां कहीं मिल जाए उन्हें,
नंगे करके जूते मारो।।
******
बेटी तभी बचेगी यह ,
अभियान सफल हो पाएगा।
उजले चेहरे होंगे अपने,
तभी सुकूं भी आएगा।।
इस मुरदार व्यवस्था को,
बदलें हम दिल से बागी हों।
वैचारिक इस महायज्ञ में ,
हम"अनन्त" सहभागी हों ।।-0-
अख्तर अली शाह 'अनन्त'
नीमच (मध्यप्रदेश)
-०-

***
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Thursday 7 May 2020

‘कहो करोना काइसे बाटेया’ (कविता) - रेशमा त्रिपाठी

‘कहो करोना काइसे बाटेया’
(कविता)
“कहो करोना कैईसे बाटेया
हम सब तऊ घरहिं मा आहीं
सबेरे संझा रामायण देखत, राम– राम जपतऊ अहीं
औ मेहराऊ, लरिकन मा बिजी अहीं
केतना देश तू घूमबेया राजू
का तू तनिकऊ थकतैंया नाही
अरें घाम होई लाग बा चटकैय
तुहू का लूक लागी जाई
अरे जातेया भितरे राहतेया
का त्राहि– त्राहि मचाए बाटेया
नाउ तोहार होईगा बा
अब तू देशवा से कबहू न मर बेया
तोहरे नाउ पर डाक्टर होई,
आफिस होई,दवाई होई इंजेक्शन होई
अब तू काहे देशवा मा फैईलत बाटेया
जातेया अपने भितरे राजू
हमाय कहा तो ईहैय बाट्य
आउर बतावा काइसे बाटेया
पढ़ैय –लिखैय वाले लरिका सब परेशान अाहैय
दू जून कैय रोटी वाले मानई सब हैरान आहैय
बियाह करैय वाले लरिकन सब तड़पत बाटेन
बुढ़वन सब घरें मा माला फेरत थकगा बाटेन
अऊ मेहरारुअन क़ैय पलार, सीरियल,किट्टी पार्टी छूटत बा
तोहका पता आहय कोरोना केतना तू परेशान करें बाटेया
अरे अबहू न बताऊंबेया काईसे बाटेया ।।
-०-
रेशमा त्रिपाठी
प्रतापगढ़ (उत्तर प्रदेश)

-०-

***
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टूटा हुआ दीया (कविता) - हेमराज सिंह

टूटा हुआ दीया
(कविता)
मैं टूटा हुआ दीया हूँ लेकिन, तेल नही गिरने दूगाँ।
आ जाए लाख आँधियां भी,मैं बाती न बुझनें दूगाँ।

मुझकों न जरूरत महलों की, वहाँ बड़ी बड़ी मशालें है।
मत मुझें जलाना मंदिर में,वहाँ मणि माणिक के उजालें है।

मुझें जला छोड़ना छप्पर में,मैं अँधियारा न रूकने दूगाँ।
आ जाए लाख आँधियां भी,मैं बाती न बुझनें दूगाँ।

सोने चाँदी से गढ़कर के,मत मढ़ना रूप सुहाना तुम।
न रंगों से रंगना मुझकों,न सौरभ से महकाना तुम।

कोरी माटी ले, रूप ढाल, मैं मोल नहीं घटने दूगाँ।
आ जाए लाख आँधियां भी,मैं बाती न बुझनें दूगाँ।

मैं दीन -हीन हूँ माना कि,तुम थोड़ा सा संबल दे दो।
मेरी अधजली वर्तिका को ,सूरज की एक किरण दे दो।

फिर आन खड़े हो झंझावत,निज कदम नहीं हटने दूगाँ।
आ जाए लाख आँधियां भी, मैं बाती न बुझनें दूगाँ।

मुझकों गरीब की खोली की, चिन्ता हरदम सताती है।
महलों की फिक्र नहीं मुझकों,वहाँ चाँद सजी जगराती है।

रख आस जलाना खोली में,मुस्कान नही मिटनें दूगाँ।
आ जाए लाख आँधियां भी, मैं बाती न बुझनें दूगाँ।-०-
पता:
हेमराज सिंह
कोटा (राजस्थान)

-०-

***
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वक्त का तकाजा (कविता) - मईनुदीन कोहरी 'नाचीज'


वक्त का तकाजा
(कविता)
बे वजह घर से न निकलो
वक्त का तकाजा है दोस्तों

अल्लाह की नेमत है जिंदगी
इसे सम्भाल कर रखो दोस्तों

अभी तो घर ही स्वर्ग समझे
कातिल कोरोना से बचें दोस्तों

गलियों में भटकने से अच्छा है
अपनों के संग घर मे रहो दोस्तों

सारी दुनियाँ अभी दहशत में है
अल्लाह से तौबा करो दोस्तो
-०-
मईनुदीन कोहरी 'नाचीज'
मोहल्ला कोहरियांन, बीकानेर

-०-

***
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वक्ते वबा (नज्म) - अनवर हुसैन

वक्ते वबा
(नज्म)
वक्ते वबा ने ये क्या कर डाला
इंसान से छीना मुंह का निवाला

पसीना बहाया , न की बेईमानी
मिला सिला ये काम से निकाला

रंग बदलते बदलते इंसान बदला
गिरगिट को यू पीछे छोड़ डाला

अंधेरों में तन्हा , ये सहर जो हुई
मिटा के अंधेरा , करेगी उजाला

बेतार से तार कब , कैसे जुड़ेगा
बेसहारा तन्हा जिन्हें छोड़ डाला

दूरियां बढी खुद फासलें बढ़ गए
एहसासों मे हुआ चलन निराला

घर में रहे तो लगा हमें कैदखाना
क्यों बनाते रहे इसे ताउम्र आला

गुलशन,बगिया सब फरेब दिखा
बिखरे फूलों से बने कैसे माला

कोई इंसान बना है शहर में फिर
खबर हुई हमें जो फोटो निकाला

हालात होंगे और बदतर यहां पर
अगर इंसा ने इंसा को न संभाला

या रब कर दे अब मदद तू हमारी
दुआ में इंसान ने क्या मांग डाला

सब इंतजाम है निजामत में उसके
शिफा को हिदायत में छुपा डाला

सुनो ,ठहरो,रुको,अकेले ही रहना
खड़ी है आफत लिए हाथ माला
-०-
पता :- 
अनवर हुसैन 
अजमेर (राजस्थान)

***
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Wednesday 6 May 2020

ठीक नहीं है (ग़ज़ल) - राघवेंद्र सिंह 'रघुवंशी'

ठीक नहीं है
(ग़ज़ल)
हर वक्त तेरा दुनिया में झुकना ठीक नहीं है,
ठोकर खाकर फिर ठोकर खाना ठीक नहीं है।

औकात उन्हें उनकी बतला दो अब रघुवंशी,
हरदम नफरत पे प्यार जताना ठीक नहीं है।।

जो वक्त बदलते बदल जाए वह ठीक नहीं है,
ऐसे लोगों से दिल का लगाना ठीक नहीं है।

दौलत खातिर जो मंदिर सा दिल तोड़ जाए,
इंसान जहां में रघुवंशी वो ठीक नहीं है।।
ऐसे लोगों को लिख जाना भी ठीक नहीं है,
इन लोगों के घर आना जाना भी ठीक नहीं है।

इतने भोले मत रहो जहां से सीखो कुछ तुम,
क्योंकि ये जमाना रघुवंशी अब ठीक नहीं है।।
-०-
कवि 
राघवेंद्र सिंह 'रघुवंशी'
-०-

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दिल के अल्फ़ाज़ (कविता) - दीपिका कटरे

दिल के अल्फ़ाज़
(कविता)
मेरी हर सुबह मैं वो हैं,
मेरी हर श्याम मैं वो हैं,
तुम्हें कैसें बताऊँ मैं,
मेरी हर रात मैं वो हैं।

मेरे दिल की हैं धड़कन वो ,
मेरे साँसों की तड़पन वो,
तुम्हें कैसें दिखाऊँ मैं,
मेरे चेहरे का दर्पण वो।

मेरे ख़्वाबों का राजा वो,
मेरे मन का नवाँजा वो,
तुम्हें कैसें बताऊँ मैं,
मेरे मंदिर का ख़्वाजा वो,

मेरे होठों की लाली वो,
मेरे कानों की बाली वो,
तुम्हें कैसें दिखाऊँ मैं,
मेरे बगियाँ का माली वो।

मेरे आँखो का पानी वो,
मेरी बहकी जवानी वो,
तुम्हें कैसें बताऊँ मैं,
मेरे दिल की कहानी वो।
-०-
पता:
दीपिका कटरे 
पुणे (महाराष्ट्र)

-०-

***
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रोजगार (कविता ) -डॉ . भावना नानजीभाई सावलिया


रोजगार
(कविता )
मेरा रोजगार है विभिन्न भावों का ।
जो हरते हैं जीवन के अभावों को ।।
नहीं है इसमें किसी भी प्रकार का सौदा !
बस पनपते हैं सिर्फ अपनेपन का पौधा !!
यहां पर प्रेम का बाजार नहीं लगता !
इसे नहीं दामों से खरीदा जा सकता !!
नहीं उसे नापा तोला जा सकता है !
इसे तो सिर्फ दिल से पाया जाता है ।
पूरे विनय , विवेक और आदर्श से
प्रेम भरते हैं हृदय में रंगीन भावों से ।
विभिन्न खट्टे मीठे रसों का भी रोजगार है ।
निस्वार्थ स्नेह से मधुरापान का कारोबार है ।
सभी धर्म जाति को पीने का अधिकार है ।
यहां धोखा, ईर्ष्या, द्वेष भाव को धिक्कार है ।।
एक बार आकर देखो और मेहसूस कीजिए।
कोई शुल्क नहीं है सिर्फ सिर झुका के लीजिए ।।
खिल जायेगा सारा जीवन ।
महक जायेगा सारे आलम का दामन ।।
मेरा रोजगार है विभिन्न भावों का।
जो हरते हैं जीवन के अभावों को ।।
-०-
पता:
डॉ . भावना नानजीभाई सावलिया
सौराष्ट्र (गुजरात)

-०-

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*मजदूर या मजबूर* (ग़ज़ल) - प्रशान्त कुमार 'पी.के.'

*मजदूर या मजबूर*

(ग़ज़ल) 

पसीने की कमाई से वो अपना घर बनाता है।
धनी कोई न जाने क्यों हंसी उसकी उड़ाता है।

हथौड़े, फाबड़े, से यन्त्रों का उससे अजब रिश्ता,
वो रातोदिन सदा जगकर पसीना खूँ बहाता है।।

सँजोता दिल में अरमाँ वो सुबह से शाम तक लगकर,
मकां खुद का न बना पाए मगर सबका बनाता है।।

करे औलाद की खातिर कठिन श्रम जाँ लगाकर वो,
ठिठुरता स्वयं पर उनको रजाई में सुलाता है।।

रुलाती जिंदगी की कशमकश "पी.के." उसे हर पल ।
स्वजन की खुशियों की खातिर वो निज आँसू छिपाता है।।
-०-
पता -
प्रशान्त कुमार 'पी.के.'
हरदोई (उत्तर प्रदेश)
-०-

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Tuesday 5 May 2020

मैं गुलाम नहीं होना चाहती (कविता) - सरिता सरस

मैं गुलाम नहीं होना चाहती
(कविता)
मैं गुलाम नहीं होना चाहती 
अपनी आदतों की 
अपने शौकों की 
ना ही सोशल मीडिया की ..

मैं उतना ही सहज, 
और आनन्दित होना चाहती हूँ
जैसे होतीं हैं बारिश की बूंदें 
जैसे बहती है बयार, 
जैसे कूकती है कोयल... 

मैं गुलाम नहीं होना चाहती 
अपने अहं की 
अपने जिद की.. 
मुझे प्रिय है मेरी आजादी 
मैं नहीं होना चाहती ऐसी 
कि 
मेरे संस्कार मुझे बोझ लगे..

और सत्य कटु.. 
चाहती हूं संस्कार ,
मेरी नस - नस में आनन्द की 
तरह प्रवाहित हो.. 

नहीं चाहती कर्तव्य मुझे बोझ लगे 
चाहती हूं मुझे मेरे कर्तव्य... 
सूर्य की पहली किरण - सी 
स्फूर्ति और ताजगी से भर दें... 

मैं गुलाम नहीं होना चाहती 
Inbox में पड़े sms का जवाब देने के लिए..
किसी की तारीफ या आलोचना 
के लिए... 

मैं गुलाम नहीं होना चाहती 
किसी की भी ..
न रूप की , न रंग की ..
यहां तक कि लेखन का भी..

मुझे प्रिय है मेरी आजादी 
मैं गुलाम नहीं होना चाहती 
खुशियों की ..
अश्रुओं की.. 

चाहती हूं 
जीवन फूलों - सी सहजता लिए 
बह उठे धमनियों में.. 
शिशुओं के मुस्कान से 
उतर आए आत्मा में 
जीवन के हर आयाम.. 

मैं गुलाम नहीं होना चाहती ,
अपनी किसी भी ..
इच्छाओं की 
पूर्वाग्रहों की 
बोलने की 
चुप रहने की 
घूमने की 
सोने की 
पढ़ने की या न पढ़ने की.. 

बस प्रेम होना चाहती हूं 
मुझे प्रिय है सबकी आज़ादी.. 
मुझे प्रिय है मेरा अकेला होना 
मुझे प्रिय है तुम्हारा साथ अनंत ..
-०-
पता:
सरिता सरस

गोरखपुर (उत्तर प्रदेश)

-०-


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सृजन रचानाएँ

गद्य सृजन शिल्पी - नवंबर २०२०

गद्य सृजन शिल्पी - नवंबर २०२०
हार्दिक बधाई !!!

पद्य सृजन शिल्पी - नवंबर २०२०

पद्य सृजन शिल्पी - नवंबर २०२०
हार्दिक बधाई !!!

सृजन महोत्सव के संपादक सम्मानित

सृजन महोत्सव के संपादक सम्मानित
हार्दिक बधाई और शुभकामनाएँ