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Sunday 9 August 2020

☆☆कोरोना और हमारा जीवन☆☆ (कविता) - अनवर हुसैन

☆☆कोरोना और हमारा जीवन☆☆ 
(नज्म)
किस काम का , यह मिलना मिलाना
संक्रमित कर देगा , हमें बाहर जाना
इम्तिहान है वक्त का , घर में गुजारे
चाहता हूं बात , बस यह समझाना

घर में ही है जीवन सुरक्षित
भागे "कोरोना" है अब लक्षित
एकांत को ही है सशक्त बनाना

संयम,अनुशासन की है यह साधना
सब के आरोग्य की है जो कामना
सह अस्तित्व का पाठ स्वयं को पढ़ाना

त्रासदी विकराल जो बन पड़ी है
सामाजिकता के बल इतना बढी है
विरासत हमारी हमें नहीं है भूलाना

लॉकडाउन में जीवन का ही भला है
ना बदले खुद को तो सिलसिला है
छूना छुआना हमें "कोरोना" घटाना

दृढ़ संकल्प हमारा , ताकत हमारी
इच्छा शक्ति से ही मिटेगी बीमारी है
"कोरोना”का डर है दिल से मिटाना

समय बहुत सारा दिनचर्या को हमारे
रचना कलाओं आत्म प्रशिक्षण में गुजारे
आत्मविश्वास के बल हमें पार जाना

समझो बुझाओ सबको जीवन गाथा
हौसला रखो जरूर मिटेगा सन्नाटा
जीवन का फिर से होगा ताना-बाना

कौन जानता है शत्रु कब जाएगा
विपत्ति मे मन क्षणिक घबराएगा
ले दीप्तम् से कैसा डरना डराना

घर में खुशहाली संग परिवार है
संस्कृति हमारी यह संस्कार है
वासुदेव कुटुंबकम हमारा तराना
-०-
पता :- 
अनवर हुसैन 
अजमेर (राजस्थान)

***
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एक श्मशान की मौत! (लघुकथा) - विवेक मेहता

 एक श्मशान की मौत! 
(लघुकथा)
          शहर बस रहा था। बंजर जमीन पर पेड़ कहां होते हैं! झाड़ियां थी। उन्हें काटा जा रहा था। सांप बिच्छू बहुत थे। उन्हें मारकर लाने पर रुपैया- अठन्नी मिलती थी। मकान बन रहे थे। विस्थापित बस रहे थे। समुद्र के पास का क्षेत्र होने और बंदरगाह की संभावनाएं देख, देश के और हिस्सों से भी आकर लोग बसने लगे थे। विकास हो रहा था। विकास की और भी सम्भावनाए थी।
         तभी मेरी जरूरत पड़ी। शहर से दूर, शहर में जहां प्रवेश होता है उसी रास्ते के पास मुझे बनाया गया। पास में हनुमान मंदिर भी बना। मेरी जरूरत शाश्वत थी। जो जन्मा है, वह मरेगा भी। धीरे धीरे जनसंख्या बढ़ने लगी। शहर मेरे समीप आने लगा। मेरी जरूरत ज्यादा होने लगी । तो विकास भी करना पड़ा। खुले आसमान में छपरा बना। छपरे से छत बनी। बैठने के लिए कुर्सियों की व्यवस्था,  पानी की व्यवस्था, दार्शनिक उक्तियां, सुंदरता के प्रयास होने लगे। दान धर्म का पैसा आराम से मिलता। हर वर्ष मेरे ऊपर खर्चा बढता गया।
          फैलाव और बढा। रास्ते के बीच से रेलवे लाइन गुजरने लगी।मुझ तक पहुंचने में फाटक समस्या पैदा करने लगा।मेरे प्रति लगाव में कमी आने लगी। सड़क एक से दो, दो से चार, चार से छह लेन की होती गई। उसने हनुमान मंदिर को  लील लिया।मुझ तक पहुंचने में परेशानी होने लगी। लोगों ने पास के शहर में दूसरा स्थान विकसित किया। कुछ वहां जाने लगे। वाहनों की संख्या बढ़ी, फाटक की तो समस्या थी ही।अब मेरे पास से फ्लाईओवर भी गुजरने लगा। मैं दब गया।मुझ तक पहुंचने में परेशानी और ज्यादा बढ़ गई।
         लोगों ने दूसरा स्थान चुन लिया। जहां दिन भर भीड़ रहती थी, अब भूले भटके महीने दो महीने में एकाध बार मेरा उपयोग होता। देखभाल के अभाव में दिवाले  गिरने लगी। झाड़-झंखाड़ उग आए। गंदगी हो गई। छत दीवारें टूट गई।
          मैं समाप्त होने लगा।
-0-
पता:
विवेक मेहता
आदिपुर कच्छ गुजरात

-०-


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नानू (ग़ज़ल) - प्रो.(डॉ.)शरद नारायण खरे


नानू 
(ग़ज़ल)
सब पर नेह लुटाते नानू ,
सबसे प्यार जताते नानू ।

कोई छोटा,बड़ा नहीं है,
सबको ही अपनाते नानू  ।

भाव भरा बर्ताव मिले तो,
तत्क्षण ही हरियाते नानू ।

पीड़ा,ग़म,मायूसी पीकर,
हरदम ही मुस्काते नानू ।

मिले कोय लाचार,दुखी यदि,
करुणा ख़ूब दिखाते नानू ।

संस्कार,अनुशासन का जल,
जी-भर ख़ूब बहाते नानू ।

अपना कोई ठेस लगा दे,
तो पल में मुरझाते नानू ।

स्वाभिमान पर हों आघातें,
तो जमकर अड़ जाते नानू ।

सबको अपनापन देकर के,
बिगड़ी बात बनाते नानू ।

क्या है अच्छा,और बुरा क्या,
सबको ही जतलाते नानू ।

कांटों में भी फूल खिलाकर,
सबको राह बनाते नानू ।

सारे घर,कुटुम्ब,मोहल्ले,
के पल में बन जाते नानू ।

'शरद' पुरानी पीढ़ी के पर,
नये रोज़ बन जाते नानू ।
-०-
प्रो.(डॉ.)शरद नारायण खरे
मंडला (मध्यप्रदेश)
-०-


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