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Tuesday 31 December 2019

देवदूत (लघुकथा) - विजयानंद विजय

देवदूत
(लघुकथा)
" सर ! सर !आइए सर ! " - आवाज सुन उसने इधर-उधर देखा। लगा कि कोई उसे बुला रहा है। फिर भीड़ भरी ट्रेन की उस बोगी में बैठने के लिए सीट ढूँँढ़ने लगा। कितनी मुश्किल से तो इस बोगी में चढ़ पाया था वह।
" सर ! ठाकुर सर ! " - फिर वही आवाज सुनाई पड़ी, तो उसने खिड़की से बाहर देखा।बाहर प्लेटफार्म पर खड़े एक युवक ने उसे देखकर कहा - " आइए सर। आगे की बोगी में चलते हैं। इधर बहुत भीड़ है। " 
वह युवक अंदर आ गया और उन्हें ट्रेन से उतारने लगा।
" अरे भाई, ट्रेन खुल जाएगी। रहने दो। " - उसने कहा, तो युवक ने उसका सामान उठाते हुए कहा - " नहीं सर।ट्रेन यहाँ आधे घंटे रूकती है। इस बोगी में बहुत भीड़ है। आगे वाली बोगी में चलिए। वहाँ सीट है। "
वह उन्हें लेकर आगे इंजन के पास वाली बोगी में चढ़ गया। वहाँ उसने अपने लिए जो सीट ले रखी थी, उस पर उन्हें बिठाया और उनके चरण स्पर्श कर कहा - " मैंने आपको ट्रेन में चढ़ते हुए देख लिया था, सर। उस बोगी में भीड़ बहुत ज्यादा थी। इसीलिए आपको यहाँ ले आया। " 
" तुम विवेक ही हो न ? "- उन्होंने अपने पुराने छात्र को पहचानने की कोशिश की।
" जी.. जी सर। " विवेक खुश हो गया था कि सर ने उसे पहचान लिया था। बगल वाली सीट पर सहयात्री से एडजस्ट कर विवेक भी बैठ गया था।
गुरू-शिष्य बातें करने लगे... स्कूल की पुरानी यादें...घर-परिवार के समाचार....पढ़ाई कैसी चल रही है.....अभी क्या कर रहे हो...आदि-इत्यादि।
ट्रेन ने अपनी स्पीड पकड़ ली थी। रास्ते में आने वाले स्टेशनों को पार करते हुए चली जा रही थी। विवेक अपने जीवन में आये पड़ावों के बारे में सर को बता रहा था। अचानक अँधेरा-सा छाने लगा। हवा भी बहने लगी थी।
" बाहर अजीब - सा मौसम हो रहा है सर। " - विवेक ने तेज भागती ट्रेन की खिड़की से बाहर देखते हुए कहा।
" हाँ। बारिश का मौसम है। कब मौसम बदल जाए, कहना मुश्किल है। " - उन्होंने भी खिड़की से बाहर देखा।
ट्रेन धीरे-धीरे नदी का एक पुल पार कर रही थी।
तभी, धूल-भरी आँधी आई और पूरी बोगी धूल से भर गयी।
" खट्-खट्-खटाक्। " धूल से बचने के लिए यात्री जल्दी - जल्दी बोगी की खिड़कियाँँ बंद करने लगे। धीरे-धीरे पूरी ट्रेन की हर बोगी की खिड़कियाँँ बंद हो गयीं।
बाहर आँधी तेज....और तेज होती जा रही थी।
" साँय-साँय " की आवाज डराने लगी थी।
ट्रेन का इंजन और तीन बोगियाँ पुल को पार कर अगले स्टेशन पर पहुँच चुकी थीं, कि अचानक बड़े जोरों की " धड़-धड़ाम " की आवाज़ हुई और ट्रेन रूक गयी।
नीचे बारिश में उफनाई हुई नदी !
तेज आँधी, और पुल पर खड़ी ट्रेन की बाकी की आठ-दस बोगियाँ ! चारों ओर धूल का गुबार !
अचानक अंदर बैठे लोगों को जोर का झटका लगा और लोग एक - दूसरे पर गिरने लगे। चारों ओर चीख - पुकार मच गयी !
अप्रत्याशित घटित हो गया था !
सामने था भयावह दृश्य...!
इंजन के बाद इस तीसरी बोगी के बाद दो बोगियाँ पुल से लटकी हुई थीं और बाकी की बोगियाँ उफनाई हुई नदी में उलट गयी थीं !
ट्रेन की बोगियाँ पानी की तेज धारा के साथ बही जा रही थीं.....नदी में समाती जा रही थीं !
" बचाओ ! बचाओ ! " की चीखों से आसमान गुंजायमान हो गया था। 
मगर इंसान विवश था। कोई भी कुछ नहीं कर पा रहा था....सिवाय इस विनाशलीला को देखते रहने के।
खिड़कियों से यह सब देख, लोगों की साँसें टँग गयीं।
विवेक जोर से चिल्लाया - " सर जी ! "
वे सीट से नीचे गिरे हुए थे। हाथ पकड़कर विवेक ने उन्हें उठाया और तेजी से भीड़ के साथ प्लेटफार्म पर उतरने लगा।
विवेक ने मुँह पर पानी के छींटे मारे, तो उन्होंने आँखें खोलींं.....यह भयावह और हृदयविदारक दृश्य देखा और कलेजे पर हाथ रख लिया। 
सोचने लगे...विवेक अगर आज उन्हें पीछे वाली बोगी से जबरदस्ती बुलाकर आगे की इस बोगी में नहीं लाता तो.....!
उन्होंने विवेक का हाथ जोर से पकड़ लिया - " तू तो देवदूत बन गया रे ! " उनके आँसू थम नहीं रहे थे।
नीचे हजारों लोगों की जलसमाधि लेकर नदी अपने रौद्र और विकराल रूप में बही जा रही थी...!
-0-
विजयानंद विजय
बक्सर ( बिहार )

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रक्तदान (लघुकथा) - डॉ. प्रदीप कुमार शर्मा

रक्तदान
(लघुकथा)

"सर, प्रमोद जी आए हैं रक्तदान करने।" कंपाउंडर ने कहा।
"कौन प्रमोद जी ?" डॉक्टर साहब ने पूछा।
"सर, ये हर साल यहाँ दो बार रक्तदान करने आते हैं।" कंपाउंडर ने बताया।
"ठीक है। भेजो उन्हें।" डॉक्टर ने कहा।
"नमस्ते सर। मैं प्रमोद हूँ। इसी गाँव में रहता हूँ। स्वस्थ आदमी हूँ। लगातार रक्तदान करता रहता हूँ। आज भी इसीलिए आया हूँ।" प्रमोद ने हाथ जोड़कर कहा।
"नमस्कार प्रमोद जी। कंपाउंडर ने मुझे आपके बारे में बता दिया है। अच्छी बात प्रमोद जी। मैंने सुना है कि आप हर साल दो बार रक्तदान करते हैं। कोई खास वजह ? डॉक्टर साहब ने यूँ ही पूछ लिया।
"डॉक्टर साहब, सामान्यतः लोग अपने पसंदीदा बड़े-बड़े नेताओं, अभिनेताओं के जन्मदिन पर रक्तदान करते हैं, पर मैं अपने पिताजी और माताजी, जिनकी बदौलत मैं इस दुनिया में आया हूँ, उनके जन्मदिन पर साल में दो बार रक्तदान करता हूँ। संयोगवश दोनों के जन्मदिन में छह माह का अंतराल है। इससे मेरे रक्तदान में कोई अड़चन नहीं है।" प्रमोद ने कहा।
"वाह ! क्या नेक विचार हैं। काश ! सभी आपकी तरह सोचते।" प्रमोद जी के हाथ में सूई चुभाते हुए डॉक्टर साहब ने कहा।
-०-
पता: 
डॉ. प्रदीप कुमार शर्मा
रायपुर (छत्तीसगढ़)

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नि:शब्द (कविता) - संजय कुमार सुमन


नि:शब्द
(कविता)
नि:शब्द हूं
स्तब्ध हूं,
तेरी मानवता और हैवानियत देखकर।
मैंने ही तुम्हें जन्म दिया है,
नौ माह अपने गर्भ में पालकर,
दर्द सहकर,
अपनी दूध पिलाकर,
तुझे किया है बड़ा।
इसलिए कि,
तुम मुझे नोच सको,
मेरा मर्दन कर सको,
अपनी मर्दानगी दिखा सको,
अपनी दरिंदगी दिखा सको,
सरेआम मुझे नीलाम कर सको,
तेरी मानवता और हैवानियत देखकर,
नि:शब्द हूँ,
स्तब्ध हूँ।
-०-
संजय कुमार सुमन
मधेपुरा (बिहार)
-०-

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नारी के नाम... (कविता) - भानु श्री सोनी

नारी के नाम... 
(कविता)

युगों से सुनी जा रही,
मेरे अस्तित्व की कहानी।
आँचल मेरा ममतामय,
आँखों में मेरे पानी,
मैं जीत की कहानी,
कभी अश्कों की हुँ रवानी
कुल-लाज का हुँ, गागर,
मैं ओस का हुँ, पानी।
मर्यादाओं में बंधी,
मैं कुलदर्शिनी.....तेजस्विनी।।

अपनों के खातिर मैंने,
अपने को भी है गवाया,
पल-पल हुई न्यौछावर,
प्रेम जहाँ भी मैंने पाया।
सृष्टि हुई है, मुझसे,
यश तुम पर मैने लुटाया,
इतनी सरल हुँ फिर भी,
कोई मुझे समझ ना पाया।
स्नेह की हुँ सागर,
मैं स्नेहनंदिनी...... तेजस्विनी।

है कौनसा समय वो,
जो मेरे लिए सही हो,
कोई भावनाओं की कहानी,
कभी मेरे लिए कहीं हो,
उम्मीद का दामन थामें,
चल रही हूँ आज भी मैं,
कतरा भर इश्क़ का तो,
मेरे लिए कभी हो।
गुजर गया जो मंजर,
गम उसका बिलकुल भी नहीं है,
रखती हुँ, ख़्वाहिश इतनी,
मेंरा आज तो सही हो।
लिखती हुँ, ओज की कलम से,
मैं ओजस्विनी.... तेजस्विनी।

माना हर वक़्त दुनिया के,
मंजर बदलते जाएंगे,
किश्तियों की बात ही क्या,
किनारे तक भी डूब जायेंगे,
उस वक्त भी हौसलों की पतवार थामें ,
उभर जाऊंगी मायूसियो के तूफान से....
मैं युग बंदिनी..... तेजस्विनी।


बदलते परिवेश की नव-गुँज बनकर,
उभरी हुँ, नयी आशाओं की बूँद बनकर,
हौसले की उडान भर, दूर कही निकल जाऊंगी,
एक किरन उम्मीद की, कुछ कदमों के निशान, छोड जाऊंगी
यादों की किताब के लिए,
मैं मनस्विनी.... तेजस्विनी
-०-
पता:
भानु श्री सोनी
जयपुर ,राजस्थान
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सोच (कविता) - शिखा सिंह

सोच
(कविता) 
नैनों के कोरों को
वह रोज गीला करती
कभी खुशी की फुहार से
कभी गमों की हार से
चचंल बन कर चौकाती
घर के हर कोने को"
कहीं कोई रूठा तो नही
मेरी छोटी सी गलती पर
मन में झाँकती सभी के
तितली बन कर
होती छटपटाहट आवाज फूटने की
कोई कह दे कि मैं खुश हूँ
तेरे फैसले पर
जा जीत ले अपनी वो जंग
जो तेरी किस्मत को पलट कर
तेरी तरुणी इच्छाओं की
आवाज और पैर बन जायें
रच ले अपने हौसले की बुलन्दीयाँ
चमक जायें सूरज की
किरणों की भाँति
जो पिघला दे हर दिल को गर्म होकर
हर कोई कहे
तू आजाद है अपने फैसले के लिए
न बन गुलाम बुत बन कर
कि जहाँ सजाया जाये
तू सजी रहे उस कोने की शोभा में
जो बेजान है पर चलती फिरती
खेलती अवाक् बिना आवाज की छड़ी
थक सकती है वह भी
एक कोने में रह कर
जब महसूस नही करता कोई
तो बिगड़ जाती है खुशी
और फिर टूट जातीं है वह
फूलों की पंखुड़ियों की भाँति
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पता 
शिखा सिंह 
फतेहगढ़- फर्रुखाबाद (उत्तर प्रदेश)

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