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Thursday, 14 November 2019

सन्यासंन (लघुकथा) - डॉ० भावना कुँअर सिडनी (ऑस्ट्रेलिया)

सन्यासंन
(लघुकथा)
चेतना का मन बहुत भारी था। बार-बार आँखे नम हुईं जाती थी। तभी माँ का फोन आ गया तो सब्र का बाँध टूट पड़ा सिसकियों में सारी बात माँ को कह डाली। 

अब चौंकने और दुखी होने की बारी माँ की थी, माँ ने कहना शुरु किया- "जिस औलाद को पाने के लिए तूने इतनी मन्नतें माँगी,इतने कष्ट सहे,अपनी जान की भी परवाह नहीं की,उनके पालन पोषण में अपनी पूरी ज़िदगी ही बदल डाली,जिस पर इतना भरोसा था कि वो तुम्हारी भावनाओं और प्यार का भरोसा कभी नहीं तोड़ेगी वो भी आज तुम्हें छोड़कर जाने की बात कर रही है।"

बड़ी बेटी के जाने जख़्म तो अभी तक भरे नहीं थे ।अब ये भी जाने की बात कर रही है तो मैं कैसे जीऊँगी इसके बिना । यही बातें सोचकर चेतना ने अपनी बड़ी बेटी से मदद माँगी उसने आश्वासन दिया कि वो समझाएगी कि मात्र 15 साल की उम्र में माँ से दूर ना जाए।वो टूटकर बिखर जाएगी, एकदम अकेली पड़ जाएगी तुझसे बहुत उम्मीदें लगा रखीं हैं माँ ने मैं तो दूर हूँ ही तू मत जाना"।

चेतना की जान में जान आई तभी फोन की घण्टी खनखना उठी बड़ी बेटी का फोन था मन खुशी से उछलने लगा तभी उधर से आवाज आई- "माँ मैंने छोटी को समझा दिया है वो अब कहीं दूर नहीं जाएगी,कहीं अकेली भी नहीं रहेगी,वो बस अब मेरे साथ रहेगी मेरी ही तरह सन्यासंन बनकर"।

चेतना के हाथ से फोन छूट गया और पत्थर की मूरत बन जमीन पर गिर गई, क्या माँगा था क्या मिला।
-०-
डॉ० भावना कुँअर 
सिडनी (ऑस्ट्रेलिया)

-०-

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दांगलिक (व्यंग्य- कथा) - अलका 'सोनी'

दांगलिक
(व्यंग्य- कथा)
सुनो ,सुजीत जी के लिए जो लड़की फाइनल कर रहे थे उसका क्या हुआ? धर्मपत्नी के इस प्रश्न पर प्रतीक बोला - अभी कुछ तय नहीं कर पा रहा हूँ। उसकी कुंडली सुजीत की कुंडली से मिल नही रही है। लड़की घोर मांगलिक है। अभी दो-तीन पंडितों से और राय ले लूँ फिर कुछ कह पाऊंगा।
"और दो-तीन पंडित !!!! कोई मांगलिक-वांगलिक नही होता। जब जन्म का समय ही सही- सही निर्धारित नही किया जा सकता कि कितने मिनट, कितने सेकंड में फलां ने जन्म लिया तो उसकी सही कुंडली कैसे बनाई जा सकती है? हमेशा की तरह इस बार भी प्रेरणा की बातों का जवाब प्रतीक के पास नही था। लेकिन वह भी किसी से कम क्यूँ रहे इसलिए धर्मपत्नी की तारीफ भी नही की उसने।
अपनी बात आगे बढ़ाती हुई प्रेरणा बोली कि सोचो हमारी कुंडली में कोई मांगलिक नही था। फिर भी हमारे झगड़े को देखकर लोग डर जाते हैं ,कभी -कभी तो ऐसा लगता है कि तलाक लेकर ही बात रुकेगी।
ये तो कुंडली में नही लिखा था हमारे। उसमे कहीं भी ये नही लिखा था कि हम 'मांगलिक' नही "दांगलिक" हैं। फिर भी हमारी लाइफ चल रही है। आज एक जगह मांगलिक सुनकर अच्छे रिश्ते को छोड़ देना ठीक नहीं होगा। दो और पंडित देखेंगे उनके हिसाब से मांगलिक ना हुआ तो क्या करोगे?
इसलिए कुंडली मिलाना छोड़ कर दोनों के मन मिल जाये इस पर ध्यान दो। जीवन मन मिलने से चलता है कुंडली मिलाने से नही।
-०-
अलका 'सोनी'
बर्नपुर (पश्चिम बंगाल)



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देखिए (कविता) - शशांक मिश्र 'भारती'

देखिए
(कविता)
पैसे का कमाल देखिये
गरीब का बुरा हाल देखिये।
चीर स्वंय जो उतारे
उस द्रोपदी को देखिये।
खड़ -खड़ पत्तों से होती
धूल -आंधियों की देखिये।
सो रहे क्यों चादर तान
हलाहल प्रदूषण का देखिये।
भागम भाग जीवन में जन
लक्ष्य को बही नदी देखिये।
भाप और विज्ञान से अंधे
घुड़-दौडी विश्व को देखिये।
-०-
शशांक मिश्र 'भारती'
संपादक
देवसुधा हिन्दी सदन बड़ागांव,
शाहजहांपुर (उत्तरप्रदेश)

-०-


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कैसा ये बदलाव? (कविता) - शालिनी जैन



कैसा ये बदलाव ?
(कविता)
सशक्त  है बदलाव में 
धरा का दर्द  ज्ञात नहीं 
जुड़ाव संस्कृति से था जो 
वो हमे अब भाता नहीं 
बदलाव सिर्फ बदलाव 
अच्छे से बुरे की ओर जा रहे ओर मान रहे बदलाव 
इस बदलाव ने धरा का छीन लिया मान 
दर्द सिर्फ धरा का नहीं 
शीन हो गए सभी रिश्ते नाते हो या इंसान 
साँसों को भारी पड़ रहा बदलाव 
पेड़ों को काट कंक्रीट की बस्तिया बसा रहे 
अब तंग गलियारों में सांसो को ढूंढ़ते नज़र आ रहे 
बदलाव कैसा है ये बदलाव 
जिस सभ्यता से थे जुड़े 
उसको खो कर 
आज फिर ढूंढ़ते नज़र आ रहे 
ये सभ्यता का  प्रेम नहीं 
प्रेम है सांसो का 
जिनको हम खोते जा रहे 
धरा को कर आहत हम सब कुछ खो चुके 
अंधकार को मान जीवन
आगे बढ़ते जा रहे 
बदलाव ये बदलाव 
कैसा ये बदलाव ?
-०-
शालिनी जैन 
गाजियाबाद (उत्तरप्रदेश)

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आदमजात (लघुकथा) - विरेंदर 'वीर' मेहता

आदमजात
(लघुकथा )
वह गुमसुम सी मेरे सामने खड़ी थी और उसके चेहरे से वह चमक गायब थी जिसे मैं अक्सर देखा करता था। बरहाल इस समय तो मैं उस पर नजरें गड़ाये, ये जानने की कोशिश में था कि उसने ऐसा क्यों किया?
पिछले साल भर से वह सोसाइटी के कई घरों में साफ़-सफाई का काम करती आ रही थी और आज, मेरे ख़ास दोस्त खान साहब के साहबजादे के सिर में फूलदान मारकर उसे घायल करने के बाद हुए हंगामे में वह मेरे सामने खड़ी थी और बतौर सोसाइटी सचिव के नाते मैं मामले को इसी जगह खत्म कर देना चाहता था।
"तुमने बताया नहीं कि तुमने ऐसा क्यों किया?" मैंने अपना प्रश्न दोहरा दिया।
"जो बताऊँगी तो, क्या मानेंगे आप?" 
"हाँ क्यों नहीं?" मैं खुद भी नहीं जानता था कि मैं सच बोल रहा था या झूठ।
"वो... 'छोटे बाबा' मेरी बेटी के साथ बदतमीजी.....।" उसकी कांपती आवाज में निकले कुछ शब्द पूरे भी नहीं हो सके थे कि वह सिसकने लगी।
"लेकिन खान साहब का तो यही कहना है कि 'बाबा' ने तुम्हें उनके पर्स से रूपये चुराते देखा था, इसलिये तुमने उसके सिर पर फूलदान दे मारा।"
"साहब, आप तो अक्सर आते हो बंगले में, कभी लगा आपको कि हम चोर हो सकते हैं!" उसने अपनी सवालियां नजरें मुझ पर टिका दी।
"लेकिन इतने लोगों के बीच तुम ही सच बोल रही हो, ये कैसे समझें?" मेरे चेहरे पर झुंझलाहट के भाव उभर आये। "अब मेजर वर्मा का लड़का, बैरिस्टर कामत का बेटा, डॉक्टर साहब का भाई और मेरा भांजा। ये सभी झूठ बोल रहे हैं क्या?"
"अब क्या कहूँ साहब, सच तो यही है।"
"अच्छा. . . !" एकाएक मेरी आवाज तेज हो गयी। "उन बच्चों को बचपने से देखता आ रहा हूँ मैं। मेरे से ज्यादा जानती है तू उन्हें।" 
"साहब! आप हमेशा उन्हें 'नाम' के अलग-अलग मुखोटों से देखते आये हैं लेकिन मैंने तो अक्सर उनके मुखोटों के पीछे छिपे एक ही चेहरे को देखा है, आदमज़ात चेहरे को!" कहते हुए उसकी आँखों की चमक एकाएक लौट आई थी और मुझे महसूस हो रहा था जैसे मेरी आँखों की चमक हल्की पड़ने लगी थी।
-०-
पता 
विरेंदर 'वीर' मेहता
दिल्ली

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