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Saturday, 29 February 2020

दांव सारे ही (ग़ज़ल) - अमित खरे

दांव सारे ही
(ग़ज़ल)
दांव सारे ही हार बैठा हूँ
ले के कितना उधार बैठा हूँ
वो सितारा गुमान करता है
जिसकी किस्मत सँवार बैठा हूँ
हक़ जरा तूँ जता कमाई पर
कब से लेकर पगार बैठा हूँ
कैसे कह दूँ रहनुमा उसको
जख्म खाकर हजार बैठा हूँ
शे'र कैसे 'अमित मुकम्मल हों
बहरें सारी बिसार बैठा हूँ
-०-
अमित खरे 
दतिया (मध्य प्रदेश)
-०-




***
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पहेलियाँ - भाग - १ (दोहा पहेली) - महावीर उत्तराँचली

पहेलियाँ - भाग - १
(दोहा पहेली)
मुझे न कोई पा सके, चीज़ बड़ी मैं ख़ास।
मुझे न कोई खो सके, रहती सबके पास //१. //

छोटी-सी है देह पर, मेरे वस्त्र पचास।
खाने की इक चीज़ हूँ, मैं हूँ सबसे ख़ास // २. //

लम्बा-चौड़ा ज़िक्र क्या, दो आखर का नाम।
दुनिया भर में घूमता, शीश ढ़कूँ यह काम // ३. //

विश्व के किसी छोर में, चाहे हम आबाद।
रख सकते हैं हम उसे, देने के भी बाद // ४. //

वो ऐसी क्या चीज़ है, जिसका है आकार।
चाहे जितना ढ़ेर हो, तनिक न उसका भार // ५. //

देखा होगा आपने, हर जगह डगर-डगर।
हरदम ही वो दौड़ता, कभी न चलता मगर // ६. //

घेरा है अद्भुत हरा, पीले भवन-दुकान।
उनमें यारों पल रहे, सब काले हैवान // ७. //

पानी जम के बर्फ़ है, काँप रहा नाचीज़।
पिघले लेकिन ठण्ड में, अजब-ग़ज़ब क्या चीज़ // ८. //

मैं हूँ खूब हरा-भरा, मुँह मेरा है लाल।
नकल करूँ मैं आपकी, मिले ताल से ताल // ९. //

सोने की वह चीज़ है, आती सबके काम।
महंगाई कितनी बढ़े, उसके बढ़े न दाम // १०. //

नाटी-सी वह बालिका, वस्त्र हरे, कुछ लाल ।
खा जाए कोई उसे, मच जाए बवाल // ११. //
भाग - २ - १५ मार्च २०२० 
-०-
पता: 
महावीर उत्तराँचली
दिल्ली
-०-

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आहटें सुनी सुनी (कविता) - श्रीमती कमलेश शर्मा

आहटें सुनी सुनी
(कविता)
सर्द रात के बाद,
अल सुबह ,
दरवाज़े पर,
दस्तक देता अख़बार।
ख़बरें ,सुर्ख़ियाँ बटोरती,
कुछ आहटें सुनी सुनी,
मन को कचोटती।
पर क्या ये सिर्फ़ सुर्ख़ियाँ हैं ?
घटनाएँ है...? जो घट गई।
आज आइ,कल गई ?
कुछ पल की चर्चा,
कुछ पल की बातें,
ख़बरें ही तो हैं,
आती हैं,जाती है,
अगले दिन भूल जाती हैं।
कुछ सपनों को ,
उम्मीदों को,आकांक्षाओं को,
रौंदते हादसे,
ज़िम्मेदार ,ज़िम्मेवारी से भागते।
सोच ओर सिस्टम के प्रहार,
जन जन पर पड़ रही,इनकी मार,
नक़ाबों में छिपे,
कुछ असामाजिक तत्व,
नज़ारे विभत्स ।
मूक बन देख रहा समाज।
दे रहे ख़तरनाक संकेत,
ग़ुस्से,तनाव,अराजकता का माहोल,
कौन बना रहा ,नहीं मालूम।
सरकारी अस्पतालों में,
क़ब्रगाह बनते मासूम।
कैसे मिले सकूँ ?
हिचकोले खाता स्वास्थ् शिक्षा विभाग,
मंदी का मकड़जाल।
संकट में पड़ी महत्वकांक्षा
,बाज़ार बर्बाद, घोर निराशा।
हर दिन,हर पल,
इन ख़बरों का का जीवन पर,
धीमें विष सा असर।
निपटने का खोजते रास्ता,
कोशिशें विफल।
हुडदंगियो से पटी गालियाँ,
मरता इंसान,कीड़े मकोड़ों सा,
इंसान ही इंसान की बर्बादी के तत्व बोता ।
कहाँ गई,नए साल की उम्मीद..?
अच्छे दिनों की ताक़ीद..?
बदलनी होगी,
मानव विकास की परिभाषा,
टूट रही आशा,पसरती निराशा।
उठ रहे सवाल..?
खोजने होंगे जवाब।
कैसे सम्भाले,कैसे रोकें ?
कुछ तो करें,कुछ तो सोचें।
प्रश्न करता अख़बार,
है ...कोई...जवाब...?-०-
पता
श्रीमती कमलेश शर्मा
जयपुर (राजस्थान)

-0-


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इंसानियत हुई लहुलुहान है (कविता) - राजकुमार अरोड़ा 'गाइड'

इंसानियत हुई लहुलुहान है
(कविता)
मन्दिर मस्जिद का झगड़ा है
राम रहीम तो एक समान है
खून से खून जुदा हुआ
इंसानियत हुई लहूलुहान है

हर कोई राजनीति की बिसात पर
खेल रहा उठापटक की गोलियाँ
नैतिकता की धज्जियां उड़ी
बिखर गई हैवानियत को चोलियाँ ।

कहीं फूँक दी बसें तो
कहीं रेल के डिब्बे जले
तो कहीं हो जाती फिर फिर
पत्थरों की बरसात
तो कहीं मस्जिद धूं धूं दिखी,
तो कहीं मंदिर ने खो दी अपनी बात
इस्लाम को इससे क्या मिलेगा
और हिन्दू धर्म क्या पाएगा 
खाई में पड़े पड़े कब तक करते रहोगे ,
एवरेस्ट पर चढ़ जाने का
उदघोष ।

अब आदमी को अपनी ही छाया से लगता है डर
कि होश को भी न जाने कब आएगा होश ।।
क्या कहूं ,क्या सोचू
सोच भी देती जवाब नही
ऐसी असमंजस में ,मैं हो गया परेशान हूं ।
गीता में मेरी जान बसी है
नहीं छोड़ सकता मैं कुरान हूं
देखो ये कैसी अंधो की बस्ती है
खुल गई जहाँ चश्मों की दुकान है।
-०-
पता: 
राजकुमार अरोड़ा 'गाइड'
बहादुरगढ़(हरियाणा)


-०-

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हे देश के नवजवानो ! (कविता) - सुरेश शर्मा


हे देश के नवजवानो !
(कविता)
हे देशवासियों ! हे देश के रखवालों !
कहां खो गये हो ? 
आज सारा देश धू-धू कर जल रहा है
ना जाने किसने हमपर नजर लगाई 
सुख गया ,शान्ति गया ,
हमने रातों की नींद भी गवायी ।

इसी आड़ मे कुछ लोगो ने राजनीतिक की
मशाल जलाई 
हे नवजवानो !
सुनो ओ नादानो !
तुम्हे आन्दोलनकारी बनाकर ,
उपद्रवी के नाम से आगजनी करवायी ।
और !
खेत खेलने वालो ने अपनी अंक बैठाकर ,
सतरंज की गहरी चाल चलाई ।
चाभी अपने हाथो मे रखकर ,
आपलोगों को जलती भट्टी मे झोंककर ; 
खुद तंदूर मे घी की रोटी सेंककर खायी ।

देश हमारा हम सब का है, 
ये देश की संपत्ति भी हमारी है ;
यह किसी एक की जागीर नही, 
नष्ट करने का भी किसी को हक नही ।

हंसी-खुशी हरियाली देश ,
दुश्मनो को रास ना आयी ।
आज हमारी देश की खुशहाली ,
कालनुमा ग्रहण से ग्रसित है हो आयी ।

इस तरह की उपद्रवी कृया-कलाप से ,
नही होनी है किसी की भी भलाई ।
विनाशकारी गतिविधियों से ,
निकालो अपने आपको ;
क्योंकि, 
आज देश की बागडोर है तुम्हारे उपर आयी ।
-०-
सुरेश शर्मा
गुवाहाटी,जिला कामरूप (आसाम)
-०-

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