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Saturday 2 November 2019

परमात्मा को पाओगे (कविता) - हंसराज गोस्वामी 'हंस'


परमात्मा को पाओगे
(कविता)
हे साधु ! सन्त! दोस्त !
अपने आपको समझ सकते हो
मेरे और तुम्हारे मध्य --
खड़े हो सकते हो
पड़ौसी की दूरी
को मिटा सकते हो
मगर इसके लिए तुम्हें
मेरी - तुम्हारी -उसकी तथा उनकी
सोच की परिधि का
चाप बनाना होगा
अब हर वृ त्त को
एक-दूसरे से ग्लोब को
और सूक्ष्म बनाना होगा
आखिर में तुम केन्द्र बिन्दु पर --
आ जाओग /विभिन्न रेखाओं को-
अब परख नहीं पाओगे
अब तुम्हे अपने आपको
मिटाना है -ब्रह्मांड में फैलाना है
परन्तु यह सद्गुरु वचन --
से ही समझ पाओगे
जब आत्म बोध कर पाओगे
अगर सद्गुरु की इस अनमोल
सोच कोजिन्दा रख पाओगे
तो सच कहता हूं-- ब्रह्मांड को अपने
विराट रूप में पाओगे
अहम ब्रह्मास्मि के भाव
के साथ -भगवान कृष्ण की
तरह "हंस"! तुम भी अपने
अस्तित्व कोभगवान से मिलाओगे
अपनी आत्मा में ही- परमात्मा पाओगे
-०-
हंसराज गोस्वामी 'हंस'
1C 485 कुड़ी भगतासनी हाऊसिंग बोर्ड़
जोधपुर, (राजस्थान) 342005

-०- 
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देहरी पर माटी का दिया (कविता) - डॉ मीनाक्षी शर्मा 'लहर'


देहरी पर माटी का दिया
(कविता)
देहरी पर माटी का दिया जल रहा था।
रात की गोद में सपना सा पल रहा था।

कभी हवा, कभी अँधेरे से लड़ रहा था।
मिटटी का था पर ज़रा न डर रहा था।

मैंने कहा क्यों बेवजह ही इतराये जाते हो।
किस के आतिथ्य को प्रकाश लुटाए जाते हो।
तुम्हारे जलने से कुछ नहीं बदलेगा।
अँधेरा घना है, ज़िद्दी है नहीं टलेगा।

दीप बोला मिट्टी से बना मिट्टी में मिल जाना है।
बन्धु मेरे बोलो तो फिर काहे का इतराना है।

हाँ जलता हूँ....
ज्योतिर्मय जग करता हूँ।
कुटि से महलों तक खुशियां भरता हूँ।
कच्ची मिट्टी का हूँ पर सच्ची प्रीत निभाता हूँ।
बुझते बुझते भी एक दिया रोशन कर जाता हूँ।

मैंने पूछा मित्र मेरे एक बात बता दे तू।
मिट्टी के हम दोनों, कैसे मुझसे जुदा है तू।
जलता तो मैं भी बहुत हूँ ....
जब कोई मुझसे बेहतर करता है।
मित्र कोई मेरा मुझसे आगे बढ़ता है।
दीप हँस कर बोला...
जलना बुरा नहीं है बन्धु।
अगर जले मेरी तरह से तू।
तू जल किसी की आस रखने के लिए।
तू जल किसी का विश्वास परखने के लिए।
तू जल रात की मांग में मोतियों सा जड़ने के लिए।
तू जल अंतिम साँस तक अंधियारे से लड़ने के लिए।
तू जल पथिक को दिशा बोध कराने के लिए।
तू जल धरा से अम्बर तक रोशनी लुटाने के लिए।
और सुन बन्धु...
इस दफा दिवाली पर काम एक नेक करना।
दोस्तों को उपहार में मिट्टी का दिया भेंट करना।
-०-
डॉ मीनाक्षी शर्मा 'लहर'
2/106, सेक्टर -2, राजेंद्र नगर, साहिबाबाद, ग़ज़ियाबाद, उ.प्र.
-०-
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तापमान (कविता) - अनिता मंदिलवार 'सपना'

तापमान
(कविता)

तापमान जिस तरह
मौसम के हिसाब से
बदलता है
हम प्रभावित होते हैं
शब्दों का तापमान भी
ऐसा ही होता है
शब्द का ताप
सीधे ह्रदय पर
घात करता है
शब्दों का मधुर गान
मरहम लगाता है
हमें चुनना है
शब्दों की मापनी
जिसका ताप
मौसम की गर्मी को
शीतलता में बदल दे !
-०-
श्रीमती अनिता मंदिलवार 'सपना'
जरहागढ़ शिव मंदिर के पास अंबिकापुर सरगुजा छतीसगढ़ 

-०-
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दिवाली (कविता) - नीलम नारंग

दिवाली
(मुक्तक कविता)मैं एक कुम्हार
चाक पर करता जाँ न्योछार
मेरे सपने सजते जाते
जैसे जैसे मिट्टी ले आकार
मेरे घर भी मने दिवाली
आए मिठाई और फलाहार
चाक पर जल्दी हाथ चलते
ख़ुशियों का ना कोई पार
बिक जाए सारा सामान
भर जाए मेरे भी भंडार
मन मे सपने सजाए
करते जाए सारे कार
नीलम की भी है यही हसरत
इसकी सुने सब परिवार
मत करना इसको रुसवा
कर रही यही प्रार्थना बारमबार
दीए जलाओ ख़ुशियाँ मनाओ
चारों ओर लाओ नई बहार
सबके घर मने दिवाली
मन से दिए बनाए कुम्हार
नीलम नारंग
147/ 7, गली नंबर 7, जवाहर नगर ,
हिसार, जिला हिसार - 125001 (हरियाणा)


-०-


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दो लघुकथाएँ (लघुकथा) - माधुरी शुक्ला

सुकून
(लघुकथा)
आशु और दोस्तों ने गर्मी की छुट्टियों में कुछ दिन समुद्र किनारे मनाने का कार्यक्रम बनाया। बहुत उत्साह के साथ जब वहां पहुंचे तो गंदगी देख उत्साह ठंडा पड़ गया। आशु और साथियों ने वहां और गंदगी फैला रहे लोगों को रोकने की कोशिश भी की। उनकी यह कोशिश नाकाम रही। फिर आशु ने साथियों से कहा हमें ही कुछ करना पड़ेगा। सब भिड़ गये गंदगी साफ करने में। दो घंटे बाद जब समुद्र का किनारा बहुत कुछ साफ हो गया तो आशु और साथियों को सुकून महसूस हुआ। ऐसा सुकून जो समुद्र किनारे की गई खूब सारी मस्ती में भी शायद नहीं मिलता।
-०-
प्यार का रंग
(लघुकथा)
शादी के बाद आज पहली होली है। चारू मायके में है। मां सुनीता बार-बार उससे कह रही हैं ससुराल में फोन लगा कर सबको होली का प्रणाम कर ले। पति उमेश से नाराज होकर मायके आई चारु को लग रहा है कि वह आखिर फोन लगाए तो कैसे। फिर उमेश ने भी तो चारू की एक न सुनी थी। फिलहाल परिवार बढ़ाने की बजाय अपनी शिक्षा बढ़ाने पर जोर दे रही थी पर उमेश और उसके परिवार के लोग चाहते थे कि जल्दी से उन्हें पोता-पोती का मुंह देखने को मिले। फोन लगाए कि ना लगाए यह विचार कर ही रही थी कि अचानक बेल बजी उसने दरवाजा खोला तो सामने उमेश खड़ा था। चारू दौड़ती हुई अंदर गई रंग की थैली लेकर आई।
दूरियां मिट चुकी थीं। दोनों ने बहुत करीब आकर बड़े प्यार से एक-दूसरे को रंग दिया। 
-०-
माधुरी शुक्ला 
कोटा (राजस्थान)


-०-
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कोसी कैसे धारे धीर ? (कविता) - मोती प्रसाद साहू

कोसी कैसे धारे धीर ?
(कविता)
कोसी किसको कोसे
बढ़ती जाती पीड़
टूट रही हैं सांसे उसकी
दिन प्रति घटता नीर...

जिनको पाला और पिलाया
सदियों सदियों
वक्षस्थल का नीर
वही हाथ अब खींच रहे हैं
हरित वनों का चीर ...

बिछड़ गया है बसा बसाया
चिड़ियाओं का नीड़
कोसी किस को कोसे
कौन बधाये धीर
कि उसकी बढ़ती जाती पीड़...

पहले माँ का भरा हुआ था
पूरा घर- परिवार
जल जंगल संग
बाग -बगीचे
औषधियाँ भरमार
सूखा सूखा पावस बीता
रीत गया है शीत
आमद नहीं कहीं पानी की
कोसी हुई अधीर ...

कोसी किसको कोसे
कौन बधाये धीर...?
कि ; उसकी बढ़ती जाती पीड़...
काकड़ और कुरंग अलोपित
जंगल , जंतु -विहीन
सायं होते तेंदुआ धमके
बच्चों को ले जाता छीन...

दर्द हमारा देख के होती
कोसी खुद गमगीन ...
शीतल -शीतल मंद हवाएँँ
पानी की तासीर
धीरे-धीरे होती जाती
मरू जैसी तकदीर
मरू जैसी तकदीर

कोसी किसको कोसे
कैसे धीरे धीरे ?
कि ; उसकी बढ़ती जाती पीड़
हल सुस्ताते
खेती उजड़ी
इंतजार में आँख उनींदी
उड़ती मिट्टी
जैसे उड़े अबीर...

कोसी कैसे धारे धीर...?
कि; उसकी बढ़ती जाती पीड़
कुछ वृक्षों को आओ रोपें
माँ कोसी के तीर
माँ कोसी के तीर
काम करें सुपुनीत
कोसी किसको कोसे
कौन बधाये धीर...?
कि; उसकी बढ़ती जाती पीड़...।
-०-
मोती प्रसाद साहू 
अल्मोड़ा (उत्तराखंड)

-०-
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