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Sunday, 26 July 2020

बूढ़े बरगद की छाया (कहानी) - राजकुमार अरोड़ा 'गाइड'

बूढ़े बरगद की छाया
(कहानी)
बूढ़े बरगद की छाया रोहितपुर गांव नदी किनारे बसा था,मैन हाईवे से थोड़ा ही दूर था इस गांव में आज़ाद हिंद
फ़ौज में कर्नल रहे सोनाराम का 1943 में लगाया एक बरगद का पौधा एक  विशाल रूप ले चुका था। सोनाराम तो आज़ादी के दो साल बाद ही चल बसे थे । सोनाराम की यादों के रूप में बरगद का पेड़ आज पूरे गाँव की पहचान और जरूरत बन गया था ।पंचायत ने पेड़ के चारों ओर ईंट की काफी चौड़ी ,ऊंची शिला बना कर टाइल्स तक लगा बढ़िया बना दिया था। पास में ही शिव मंदिर था। थोड़ी ही दूरी पर मीठे साफ़ पानी का गहरा पक्की मुंडेर वाला कुआँ । गांव का यह इलाका बच्चों, महिलाओं और पुरुषों से दिन भर  आबाद रहता । बच्चे खेलते रहते, महिलाओं का मंदिर आना जाना, कुएं से पानी भरना,पुरुषों का बरगद के नींचे बैठ दुःख सुख बाँटना हर
रोज की दिनचर्या थी साथ मे पक्षियों का कलरव,चहचाहट जीवंत रूप दे देती थीं ।
सातवीं कक्षा में पढ़ रहा शामू खुद को गौरवान्वित महसूस करता था, जब लोग यह कहते थे कि यह पेड़ शामू के परदादा ने  लगाया था । इतने बड़े घने पेड़ की छाया में पंचायत की बैठक भी होती थी । चुनाव सभा, रामलीला, नाटक, सामूहिक भंडारा यहीँ पर होते थे । सारा दिन उल्लास व खुशी का वातावरण रहता था ।
पर एक दिन ऐसी खबर आई,कि गांव भोचन्का रह गया। शामू के पापा जो तहसील में चतुर्थ श्रेणी के कर्मचारी थे, खबर लाये,मैन हाईवे से ले कर फिरनी तक का सारा एरिया एक बड़ी मल्टी नैशनल कंपनी ने खरीद लिया है, उसमें बरगद के पेड़ वाली जगह भी आयेगी । यह सुनते ही गाँव मे सन्नाटा सा छा गया।पेड़ कटने की आशंका से ही लोग सिहर उठे । सारे गांव वाले सरपंच के पास गए, उसने बताया कि सरकार तो फैसला ले चुकी हैं । कुछ ही दिन में कब्ज़ा लेने व जो सात-आठ घरों को जो उस जगह में आयंगे, मुआवजा देने ,कंपनी के बड़े पदाधिकारी ,जिलाधीश के संग पुलिस बल के साथ आयंगे । अगले दिन सरपंच के साथ कुछ लोग शहर में विधायक के पास
गए, उसने बात को अनसुना कर दिया, वह तो कंपनी के साथ सांठगांठ कर,अधिकारियों के साथ मिल कर पूरा जाल बिछा चुका था। गांव के लोग सब मिल कर बरगद के पेड़ के नीचे इकठ्ठे हुए, एक संघर्ष समिति बनी, जिसके प्रधान सर्व सम्मति शामू के दादा हरिराम को बनाया गया। गांव वालों का बस यही कहना था कि बरगद के पेड़ से हमारी अन्तरात्मा, हमारी भावनाएँ जुड़ी हैं । 
पिछले 75-80 वर्षों से हम इसकी छत्रछाया में बड़े हुए है, हम यह पेड़ नही कटने देंगे ।अगले दिन कंपनी के अफसर पुलिस बल के साथ आ गये । काफी देर तक गांव वालों से बहस होती रही। पेड़ न कटने देने की बात
पर सभी अडिग थे । काफी अधिक समय बीत पुलिस बल का धैर्य जवाब दे गया । उप पुलिस अधीक्षक ने लाठीचार्ज का आदेश दे  दिया। सभी ग्रामीण वहीँ पेड़ के चारों और लेट गए। लाठियाँ खाते रहे,पर हिले नहीं।जिला धीश लाठीचार्ज की खबर मिलते ही तुरंत पहुंच गए। उन्होंने भी लोगों को समझाने की कोशिश की,
पर सब बेकार। तभी एक अच्छी बात हुई, कंपनी के पदाधिकारियों ने बताया कि हमारे सी एम डी साहब पूना से अभी फ्लाइट से आये हैं, एक घंटे में यहीं आ रहे हैं। जिलाधीश भी वहीं रुके रहे,गांव वालों से बात करते रहे।सी एम डी पारिख साहब गाड़ी में आते हुए यही सोच रहे थे आखिर एक पेड़ के लिये इतना संघर्ष, यही सोच उन्हें यहां तक खीचं लाई। पारिख साहब के आते ही हलचल मच गई। सब लोग उत्सुक थे, आखिर निर्णय तो उनको ही लेना था, पारिख साहब उसी बरगद के नीचे बनी शिला पर बैठ गए, उनके साथ जिलाधीश भी थे। सभी ग्रामीण भी शांत हो कर बैठ गए। 
तभी पारिख साहब उठ खड़े हुए, बोले - गांव वालों हमारी कंपनी यहाँ पर ऑटो पार्ट्स बनाने की 2000 करोड़ की लागत से फैक्टरी लगा रही है, आपके ही गाँव की सबसे अधिक ज़मीन है , यहीं के लोगों को रोज़गार देना है । आप की एक बूढ़े बरगद के  पेड़ के प्रति प्यार आस्था व निष्ठा देख कर यह निर्णय लिया है, न तो यह पेड़ कटेगा, न ही इधर फ़ैक्टरी का काम होगा, जो ग्रीन बेल्ट हमने मैन हाई वे पर बनानी थी,अब हम इस बरगद के चारों ओर के एरिया में तैयार करेंगे। इस बरगद के वृक्ष के आगे कंक्रीट का बड़ा स्टेजनुमा प्लेटफार्म होगा।
मेरे दादा जी,पुणे से 40 किलोमीटर दूर एक गांव में रहते थे,तब सड़क निकलने के लिये कई पेड़ों को गिरा दिया गया  था, उसमें कुछ मेरे दादाजी ने लगाये थे। मैं तब बहुत छोटा था, उनकी आँखों में आये आंसू मुझे आज भी याद हैं। लगता है आज इस पेड़ को बचा कर मैंने वो ऋण चुका दिया है।इस ग्रीन बेल्ट में फलों के पेड़ भी लगाएँ जायँगे व सब्ज़ियों उगायंगे, इस का फ़ायदा आप सबको मिलेगा। यह सुन लोगों की खुशी का पारावार न
रहाऔर तालियों की गड़गड़ाहट से सारा माहौल गूंज उठा । 
-०-
पता: 
राजकुमार अरोड़ा 'गाइड'
बहादुरगढ़(हरियाणा)


-०-

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पीड़ा को शब्द देती हूँ (कविता) -सरिता सरस

पीड़ा को शब्द देती हूँ
(कविता)
पीड़ा को शब्द देती हूँ ,
करुणा को मौन.......
किन्तु ,
एक ही उलझन मन में है पनपता
कि
आखिर इस मौन को सुनेगा कौन.....?

एक ही धुरी पर..
पुरुष उतरा
और उतरी स्त्री,
एक दूसरे पर थोपने की फितरत लिए....
पुरुष को लगा
कि
नहीं समझ सकता वो
स्त्री का त्रियाचरित्र........
और..
स्त्री को लगा
कि
नहीं समझ सकती वो
पुरुष के
शासक होने का घमंड.....

दोनों अपने - अपने तर्क को
प्रमाणित
करने में रहे मशगूल,
खाई बढ़ती गयी..
और..
हिमालय बनता गया शूल...
और
मैं वही धुरी हूं
जिसपर बैठें हैं स्त्री और पुरूष ।
पीड़ा से जब तर होती हूँ..
पीड़ा को शब्द देती हूँ ,
करुणा को मौन.......
किन्तु ,
एक ही उलझन मन में है पनपता
कि
आखिर इस मौन को सुनेगा कौन.....?

स्त्री उलझी रही अंत तक
शिकायत रही उसे
कि वह सम्भालती रही....
उसका बच्चा, उसका घर,
उसके माता - पिता.....
पुरुष खीझता रहा अंत तक
कि
वह कमाता रहा
उसके लिए, उसके बच्चे के लिए,
उसके भविष्य के लिए....
किसी की दृष्टि
कभी अपने कुरूपता पर नहीं गयी ,
अपनी अपंगता पर नहीं गयी...।
अपनी ही गढ़ी परिस्थितियों के लिए
कभी स्वीकार न सका मनुष्य
खुद को जिम्मेदार......
मैं वही धुरी हूँ
जहाँ..
मैंने देखा है
घरों में प्रेम को आत्महत्या करते हुए
मैंने देखा है
घरों में शांति को जलते हुए
मैंने देखा है
घरों में स्नेह को दफन होते हुए..

मैं वही धुरी हूं
जिसे कहा गया है
शास्त्रों में
शिव का तीसरा नेत्र.....
मैं वही धुरी हूँ
पीड़ा को शब्द देती हूँ ,
करुणा को मौन.......
किन्तु ,
एक ही उलझन मन में है पनपता
कि
आखिर इस मौन को सुनेगा कौन.....?
-०-
पता:
सरिता सरस
गोरखपुर (उत्तर प्रदेश)
-०-



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*संतुलन - करोना * (लघुकथा) - विवेक मेहता

 *संतुलन - करोना *
(लघुकथा)
          कुदरत की बनाई व्यवस्था में बदलाव आ रहे थे। कुछ प्रजातियों का विकास हो रहा था, संख्या में वृद्धि हो रही थी। तो कुछ का विनाश हो रहा था। प्रकृति भी उसी के अनुरूप बदलाव कर रही थी। कुछ बिगड़ता, कुछ बदलाव होते।फिर संतुलन बैठ जाता।
            प्रजातियों में से मानव ने बहुत विकास किया। अपने उत्थान के लिए मशीनों का निर्माण किया। धरती में पीढ़ियों के लिए जमा हो रहे पेट्रोल को खींच लिया। तरंगों का प्रयोग बढ़ा दिया। पहले डायनासोर नष्ट हुए थे, अब हुए गोरैया कव्वों का दिखना बंद हो गया। बे टपा टप यहां वहां गिरकर मरने लगे। कौन गिनती करता। कार्बन डाई ऑक्साइड, कार्बन मोनोऑक्साइड और अन्य जहरीली गैसों ने वातावरण का संतुलन बिगाड़ दिया। गर्मी वर्षा शीत ऋतु गड़बड़ा गई। अब बारिश में ठंडी पड़ती, गर्मी में बर्फ गिरती और सर्दी में बारिश होती। कुछ मालूम नहीं पड़ता। मानव की प्रतिरोध शक्ति कम होने लगी। ओज़ोन की परत में छेद हो गए, फिर परत धीरे-धीरे नष्ट होने लगी। प्रकृति पर संतुलन बनाए रखने का दबाव बढ़ने लगा। प्रकृति हारती सी दिखने लगी। मानव जीता हुआ दिखलाई पड़ा।
         कई जाने अनजाने बदलाव से, ओज़ोन परत में हुए नुकसान से, हानिकारक किरणों और विषाणुओं ने वातावरण में प्रवेश किया। पृथ्वी पर असक्रिय वायरस सक्रिय हो गए। अपना संतुलन न बना पाने के कारण प्रकृति उन पर रोक न लगा सकी। वह मजबूत होते गए। जैसे गौरैया और अन्य पक्षी, जानवर नष्ट हुए थे अब मानव टपा टप मरने लगे। हाहाकार मच गया। मशीनें बंद हुई। वाहन बंद हुए। धुंआ, प्रदूषण कम हुआ। वातावरण में से जहर कम हुआ। ओज़ोन परत में सुधार हुआ। वातावरण की अन्य व्यवस्थाओं में भी मजबूती आई। परत फिर फैलने लगी। वातावरण में से विषैली किरणों और विषाणुओं का आना बंद हुआ तो अन्य चीजें भी सुधरने लगी। मानव का विनाश, विकास पर जोर कम होने लगा। प्रकृति फिर जीतने लगी। संतुलन बैठने लगा।
-0-
पता:
विवेक मेहता
आदिपुर कच्छ गुजरात

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उजियारे को तरस रहा हूँ (गीत) - प्रो.(डॉ.)शरद नारायण खरे



उजियारे को तरस रहा हूँ
(गीत)
उजियारे को तरस रहा हूं,अँधियारे हरसाते हैं !
अधरों से मुस्कानें गायब,आंसू भर-भर आते हैं !!

अपने सब अब दूर हो रहे,
हर इक पथ पर भटक रहा
कोई भी अब नहीं है यहां,
स्वारथ में जन अटक रहा

सच है बहरा,छल-फरेब है,झूठे बढ़ते जाते हैं !
अधरों से मुस्कानें गायब,आंसू भर-भर आते हैं !!

नकली खुशियां,नकली मातम,
हर कोई सौदागर है
गुणा-भाग के समीकरण हैं,
झीनाझपटी घर-घर है

जीवन तो अभिशाप बन गया,
मायूसी से नाते हैं !
अधरों से मुस्कानें गायब,आंसू भर-भर आते हैं !!

रंगत उड़ी-उड़ी मौसम की,
अवसादों ने घेरा है
हम की जगह आज 'मैं ' 'मैं ' है,
ये तेरा वो मेरा है

फूलों ने सब खुशबू खोई,पतझड़ घिर-घिर आते हैं !
अधरों से मुस्कानें गायब,आंसू भर-भर आते हैं !!
-०-
प्रो.(डॉ.)शरद नारायण खरे
मंडला (मध्यप्रदेश)
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