पीड़ा को शब्द देती हूँ
(कविता)
(कविता)
पीड़ा को शब्द देती हूँ ,
करुणा को मौन.......
किन्तु ,
एक ही उलझन मन में है पनपता
कि
आखिर इस मौन को सुनेगा कौन.....?
एक ही धुरी पर..
पुरुष उतरा
और उतरी स्त्री,
एक दूसरे पर थोपने की फितरत लिए....
पुरुष को लगा
कि
नहीं समझ सकता वो
स्त्री का त्रियाचरित्र........
और..
स्त्री को लगा
कि
नहीं समझ सकती वो
पुरुष के
शासक होने का घमंड.....
दोनों अपने - अपने तर्क को
प्रमाणित
करने में रहे मशगूल,
खाई बढ़ती गयी..
और..
हिमालय बनता गया शूल...
और
मैं वही धुरी हूं
जिसपर बैठें हैं स्त्री और पुरूष ।
पीड़ा से जब तर होती हूँ..
पीड़ा को शब्द देती हूँ ,
करुणा को मौन.......
किन्तु ,
एक ही उलझन मन में है पनपता
कि
आखिर इस मौन को सुनेगा कौन.....?
स्त्री उलझी रही अंत तक
शिकायत रही उसे
कि वह सम्भालती रही....
उसका बच्चा, उसका घर,
उसके माता - पिता.....
पुरुष खीझता रहा अंत तक
कि
वह कमाता रहा
उसके लिए, उसके बच्चे के लिए,
उसके भविष्य के लिए....
किसी की दृष्टि
कभी अपने कुरूपता पर नहीं गयी ,
अपनी अपंगता पर नहीं गयी...।
अपनी ही गढ़ी परिस्थितियों के लिए
कभी स्वीकार न सका मनुष्य
खुद को जिम्मेदार......
मैं वही धुरी हूँ
जहाँ..
मैंने देखा है
घरों में प्रेम को आत्महत्या करते हुए
मैंने देखा है
घरों में शांति को जलते हुए
मैंने देखा है
घरों में स्नेह को दफन होते हुए..
मैं वही धुरी हूं
जिसे कहा गया है
शास्त्रों में
शिव का तीसरा नेत्र.....
मैं वही धुरी हूँ
पीड़ा को शब्द देती हूँ ,
करुणा को मौन.......
किन्तु ,
एक ही उलझन मन में है पनपता
कि
आखिर इस मौन को सुनेगा कौन.....?
करुणा को मौन.......
किन्तु ,
एक ही उलझन मन में है पनपता
कि
आखिर इस मौन को सुनेगा कौन.....?
एक ही धुरी पर..
पुरुष उतरा
और उतरी स्त्री,
एक दूसरे पर थोपने की फितरत लिए....
पुरुष को लगा
कि
नहीं समझ सकता वो
स्त्री का त्रियाचरित्र........
और..
स्त्री को लगा
कि
नहीं समझ सकती वो
पुरुष के
शासक होने का घमंड.....
दोनों अपने - अपने तर्क को
प्रमाणित
करने में रहे मशगूल,
खाई बढ़ती गयी..
और..
हिमालय बनता गया शूल...
और
मैं वही धुरी हूं
जिसपर बैठें हैं स्त्री और पुरूष ।
पीड़ा से जब तर होती हूँ..
पीड़ा को शब्द देती हूँ ,
करुणा को मौन.......
किन्तु ,
एक ही उलझन मन में है पनपता
कि
आखिर इस मौन को सुनेगा कौन.....?
स्त्री उलझी रही अंत तक
शिकायत रही उसे
कि वह सम्भालती रही....
उसका बच्चा, उसका घर,
उसके माता - पिता.....
पुरुष खीझता रहा अंत तक
कि
वह कमाता रहा
उसके लिए, उसके बच्चे के लिए,
उसके भविष्य के लिए....
किसी की दृष्टि
कभी अपने कुरूपता पर नहीं गयी ,
अपनी अपंगता पर नहीं गयी...।
अपनी ही गढ़ी परिस्थितियों के लिए
कभी स्वीकार न सका मनुष्य
खुद को जिम्मेदार......
मैं वही धुरी हूँ
जहाँ..
मैंने देखा है
घरों में प्रेम को आत्महत्या करते हुए
मैंने देखा है
घरों में शांति को जलते हुए
मैंने देखा है
घरों में स्नेह को दफन होते हुए..
मैं वही धुरी हूं
जिसे कहा गया है
शास्त्रों में
शिव का तीसरा नेत्र.....
मैं वही धुरी हूँ
पीड़ा को शब्द देती हूँ ,
करुणा को मौन.......
किन्तु ,
एक ही उलझन मन में है पनपता
कि
आखिर इस मौन को सुनेगा कौन.....?
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