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Sunday 5 January 2020

भोजन बनाएंगे (कविता) - दुल्कान्ती समरसिंह (श्रीलंका)


भोजन बनाएंगे
(कविता)
हर जगह से खोजते हैं
भोजन के लिए चीजें हम
बढ़ने के बजाय
आयात और खपत
स्वाद और सुविधा लाता है ।

दिन प्रति दिन में
प्रगति के साथ ही दुनिया के
नये आविष्कार होते ही
जब पैसा दुनिया का
राजा बन जाते ही
अपने खाने पीने क्या है
याद भी ना हो जाते ही ।।

इसलिए महसूस हो रही थी
उबलने सुखाने गति धीमी
आशाओं के बढ़ जाने से
इच्छायें बाजार में ज़मा गए ।।

खाने पीने कहाँ से आते हैं
ना जाने, पर खा पी सकते हैं
क्या होगा इस्तेमाल से
कोई बात नहीं इस से ।।


जब उनका उपयोग करें
अगर बहुत स्वादिष्ट है तो
जहर मिलाये मीठा करने
स्मृति नहीं लालची मन में ।।

अपने आँगन में उगने में
अनमोल विचार उठने से
साहस दे रहे ख्वाबों पर
फूलों और फलों से बन
हँसेंगे हम सब पृथ्वी पर ।।।
-०-
दुल्कान्ती समरसिंह
कलुतर, श्रीलंका

-०-

***
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मेरे हमसफ़र (कविता) - दीपिका कटरे

मेरे हमसफ़र
(कविता)

ओ मेरे हमसफ़र,
बड़ी लंबी है डगर
फिर क्यों न करे हम ,
एक-दूसरे की कदर।
कर लो तुम मेरी
और मैं कर लूँ तुम्हारी कदर।

चाहे हम जाए,
किसी भी शहर या नगर ,
रखेंगे अपने परिवार पर नजर
चाहे सुख का हो पहर ,
या दुःख का कहर ,
चलेंगे हम साथ- साथ ,
थोड़ा ठहर -ठहर
ओ मेरे हमसफ़र....

ध्यान रखना,
एक बात का मगर
तुम हो सागर ,
तो मैं हूँ लहर
चलना तो है हमें साथ साथ ,
फिर किस बात का है डर
थोड़ा लड़कर तो,
थोड़ा झगड़कर ,
रहना तो है हमें एक ही घर पर
फिर क्यों न करें,
हम एक दूसरे की कदर
ओ मेरे हमसफ़र....
जीवन डोर बंधी अपनी,
रिश्ता हर पल निभाएँगे
बिछड़ेंगे न कभी
न अलग रह पाएँगे ,
एक दूसरे से कभी दूर ही सही,
फिर क्यों न करे हम ,
एक दूसरे के प्यार की कदर
ओ मेरे हमसफ़र,
बड़ी लंबी है डगर
ओ मेरे हमसफ़र....
-०-
पता:
दीपिका कटरे 
पुणे (महाराष्ट्र)

-०-

***
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नदी (कविता) - अपर्णा गुप्ता

नदी
(कविता)
नदी हूँ मै
बहती हूँ चुपचाप
पर सिर्फ बहती नही हूँ
जूझती हूँ पत्थरीली राहो से
चट्टानों से टकरा कर भी रूकती नही
हो जाती हूँ और निर्मल स्वच्छ
नदियाँ सिर्फ़ बहती नही
बल्कि वो ढोती हैं
गन्दगी और कचरा
उतराते निथारते उभरती है
और स्वच्छ सुंदर होकर
नदियाँ सिर्फ़ बहती नही
वो प्रतीक है अन्ततः चिर मिलन का
जैसे आत्मा का परमात्मा से मिलन का
नदियाँ सिर्फ़ बहती नही है
वो समा जाती है समन्दर में
और मिल जाती है
सदा के लिये 
अथाह बहने को 
फिर सबकुछ सहने को
हाँ मै नदी हूँ
-०-
पता
अपर्णा गुप्ता
लखनऊ (उत्तर प्रदेश)

-०-

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रंगीन चश्मा (कविता) - छगनराज राव

रंगीन चश्मा
(कविता)
हाँ, मैंने पहन रखा है
एक रंगीन चश्मा,
शौक से नहीँ
बल्कि इसलिए कि
मेरी आँखों में बसा रखा है
एक नूर
मुहब्बत का..........
जिसे कहीं तुम्हारी नज़र
न लग जाए।
जिसको मैंने दिल में बसाया,
उसे आँखों में भी बसा रखा है
ताकि उसका चेहरा देखता रहूं
सोते - जागते हुए
रात-दिन।
और हाँ कोई और ना देख पाए
मेरे कोहिनूर को,
इसलिए मैंने पहन रखा है
एक रंगीन चश्मा।
-०-
पता
छगनराज राव
जोधपुर (राजस्थान)
-०-

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सूरज की पहली किरण (कविता) - लाल देवेन्द्र कुमार श्रीवास्तव

सूरज की पहली किरण
(कविता)
सूरज की पहली किरण
मिटाती है रात का अंधकार
करती है धरा पर
प्रकाश का विस्तार
सभी प्राणियों में नई ऊर्जा
नए स्फूर्ति का करती है नव संचार
पनपती है नित नई आस
जीवन के प्रति दृढ़ होता है
एक नया विश्वास।
सूरज की पहली किरण
कितना कुछ बदल देती है
हमारे जीवन के भी
तिमिर को भी हर लेती है
अतीत में हुई गलतियों से
हम सबक सीखते हैं
उस पर करते हैं चिंतन मनन
फिर सफ़ल हो जीतते हैं
हम में हो जाता है कितना उत्साह
और ख़ुशी से हम जीवन जीते हैं
सूरज की पहली किरण की तरह
औरों के जीवन में
हम भी प्रकाश भरते हैं।
-०-
लाल देवेन्द्र कुमार श्रीवास्तव
स्थायी पताबस्ती (उत्तर प्रदेश)



-०-
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अंधी माँ का ख़त (कविता) - डॉ गुलाब चंद पटेल

अंधी माँ का ख़त

(कविता)

अमरुत से भरा है दिल मेरा,
जो समंदर जितना हे सच,
पूनम चंद के पप्पू के पास,
अंधी माँ लिखवाती खत

पप्पू उसका मुंबई गांव में,
परेश भाई प्रेम चंद नामे
लिखवाती है मैया,
पांच वर्षो में पहुची नहीं एक पाई
कागज की एक चिठ्ठी भी नहीं मिली मेरे भाई

समाचार सुनके तेरा,
रोना हमे कितने दिनों? 
नाती की का नाती लिखता है कि, 
पप्पू और मेरा मिलन होता है रोज रोज

पूरे दिन मजदूरी करे, 
होटल में रात को खाए 
रोज रोज नए कपड़े पहने 
पानी की तरह पेसे फेंके

होटल का खाना अच्छा नहीं, 
रखना खर्चे का हिसाब 
दवाई दारू के पेसे, 
कहा से लाएगा मेरे भाई

काया तेरी रखना रूडी 
हम गरीबो की वही है मुड़ी 
घर बेचा और खेत बेचा 
तंबू मे किया है निवास

गेहूँ कि रोटी मिले नहीं 
उस दिन अकेला पानी पीती 
तुम्हें मिले पकवान की थाली 
हमे मिले रोज चाय की प्याली

लोगो के घर काम में करती, 
अंधी माँ को कुछ नहीं देती धरती 
तेरे गांव बिजली के दिए 
मेरे घर अंधेरा पीए

लिखी तंग तेरी अंधी माँ का 
पढ़ना जय श्री कृष्णा 
घर में नहीं है अन्न का दाना 
अंधी माँ के लिए तुम कफन लाना

अब नहीं है जीने की इच्छा 
गुलाब चंद कहे एसा हे किस्सा 
माँ को तुम प्यार भी करना 
और उसके तुम पेर को छूना
-०-
डॉ गुलाब चंद पटेल
गाँधी नगर  (गुजरात)
-०-



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