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Tuesday, 29 December 2020

पुस्तक की ताकत का कमाल (व्यंग्य संस्मरण) - कृष्णकुमार ‘आशु’

पुस्तक की ताकत का कमाल
(व्यंग्य संस्मरण)
ये कुदरत का अनूठा खेल नहीं तो और क्या है कि जिस व्यक्ति ने सरकारी स्कूल में पढ़ते हुए पांचवीं कक्षा में पढ़ाई छोड़ दी थी। परिवार वालों के लाख कोशिश करने के बावजूद पूरे साल स्कूल नहीं गया। घर वालों ने दूसरे साल फिर पांचवीं कक्षा में प्रवेश दिलवाया लेकिन एक दिन आधी छुट्टी को रोटी खाने घर आया तो फिर कभी स्कूल नहीं गया। यहां तक कि आधी छुट्टी में जो बस्ता स्कूल में छोडक़र आया थाउसे लाना भी जरूरी नहीं समझा। पता नहीं ऐसा क्या था कि स्कूल जाने से उसका मन उचट गया थावही व्यक्ति स्कूल जाने के दिनों में चौधरियों के घर उनके बर्तन-भांडे मांजकरउनके घर के दूसरे काम करके खुश रहता था। यह सब काम करते हुए भी उस घर में आने वाली पत्रिकाओं को पढऩे का उसे बहुत शौक था और उसी शौक ने उसे न सिर्फ साहित्य से जोड़ दियाबल्कि उसका जीवन ही बदल दिया! यहां तक कि वर्षों बाद अधूरी छोड़ी पढ़ाई की तरफ मोड़ा और अकादमिक शिक्षा भी पूरी करवाकर ‘डॉक्टे्रट’ की उपाधि दिलवा दी! शैलेंद्र ने बिल्कुल सही लिखा है-किस्मत के खेल निराले मेरे भैयाकिस्मत का लिखा कौन टाले मेरे भैया...!

आज का यह पत्रकार बनाम व्यंग्यकार सोचता है तो पाता है कि पुस्तकों से आरंभ में ही वह एक चुम्बकीय आकर्षण महसूस करता रहा है। जहां कहीं भी पुस्तक दिखतीवह उसे पढऩे लगता था। वह बेशक चौथी क्लास पास था लेकिन हिंदी पढऩे की उसकी न सिर्फ गति अच्छी थीबल्कि बहुत ध्यान से पढ़ा हुआ अक्सर उसे याद भी रह जाया करता था।
जिस जगह पर उनका किराए का मकान थाउसके मालिक चौधरी श्योजीराम सहारण के घर वह शुरू में तो अपनी मां के साथ काम करने जाता था। उनके घर का चौका-बर्तन उसकी मां ही करती थी। फिर वह वहीं रहकर उनके घर के काम करने लगा और वहीं रोटी खा लिया करता। उनके घर सरिता पत्रिका आया करती थी। अखबार भी आता था। वहीं से उसे कुछ पढऩे का शौक लगा था। उसे याद है पहली बार उसने बच्चन की ‘मधुशाला’ भी वहीं उनके घर में ही पढ़ी थी। यह जुदा बात है कि तब उसे ‘मधुशाला’ का महत्व ही पता नहीं था। असल में बारह-तेरह साल का बच्चा होने के कारण न तो साहित्यिक समझ थी और न ही जानता था कि साहित्य क्या होता है। उसे अच्छी तरह याद हैआगे-पीछे से फटी हुई ‘मधुशाला’ के बीच के कुछ पन्ने ही चौधरी साहब के घर में उपेक्षित पड़े मिले थे। उन्हें पढक़र वह बहुत खुश हुआ था। उसने चौधरी साहब के सबसे छोटे बेटेजिन्हें वह मामा जी कहता थासे कहा था, ‘ मामा जीआ पोथी देखोईं में शराब सारू कीं लिख्योड़ो है!’ (मामा जीयह पुस्तक देखेंइसमें शराब के बारे में कुछ लिखा हुआ है।)
तब मामा जी ने मुंह बिचकाते हुए कहा था, ‘पड़ी बळण दे। म्हैं अजे कोनी छोडां शराब!’ (पड़ी रहने दे। मैं अभी शराब छोडऩे वाला नहीं हूं!)
तब उस बच्चे का जवाब था,  ‘ईं में शराब नै कोजी कोनीआछी चीज बताई है।’ (इसमें शराब को गंदी नहींअच्छी चीज बताया है।)
तब मामा जी ने हंसते हुए कहा था, ‘तो ठीक है। बठै मेल दे। आराम सूं भणस्यां!’ (तब ठीक है। वहां रख दे। आराम से पढ़ेंगे।)
तब अपनी नासमझी के चलते बच्चन की ‘मधुशाला’ का इतना-सा ही महत्व समझा था उस बच्चे ने और उसके मामा जी ने!  
जब कुछ समय तक दमकल विभाग के अधिकारी गोपाल सैनी के पुत्र को खिलाने के लिए आया के रूप में काम करना शुरू किया तो उनके यहां धर्मयुग आती थी। उसमें डब्बू जी उस बच्चे का पसंदीदा कालम था।
लेकिन साहित्य की समझ तब भी नहीं थी। इसके बाद उसके दोस्त ओमी (ओम ग्रोवर) ने उसे जासूसी उपन्यास पढऩे को दिया। वह पढऩे के बाद उसका ऐसा नशा चढ़ा कि वह रात-दिन जासूसी उपन्यास ही पढऩे लगा। विशेष रूप से वेदप्रकाश शर्मा के सौ से ज्यादा उपन्यास उसने पढ़ लिये थे। वेदप्रकाश कम्बोजसुरेंद्र मोहन पाठक और मेजर बलवंतकर्नल रंजीत आदि के जासूसी उपन्यास वह पढ़ता। पुरानी आबादी में ही एक नॉवेल स्टोर खुला था जो किराए पर पुस्तकें देता था। पच्चीस पैसे प्रतिदिन एक नॉवेल का किराया होता था। उस जमाने में उसे पच्चीस पैसे रोज जेब खर्ची मिला करती थीवह रोज एक नॉवेल पढ़ जाता। बीच-बीच में कॉमिक्स की किताबें भी पढ़ता रहता था।
इन्हीं किताबों और पत्रिकाओं को पढऩे के दौरान वह चौधरी साहब के घर सेवा-चाकरी करता रहता था। एक दिन उसके पास पढऩे को कुछ भी नहीं था तो उसने चौधरी साहब के घर में पड़ी उनकी पोतियों की किताबों में रखी नवीं कक्षा की पुस्तक पढऩी शुरू की। उसमें एक कहानी थी-ईदगाह! लेखक प्रेमचंद!
बस यहीं से शुरू हुआ कुदरत का खेल। ‘ईदगाह’ ने उसे इतना प्रभावित किया कि जासूसी उपन्यास एकदम ही छूट गए और साहित्यिक कहानियोंबाल कहानियों की तरफ उसका रुझान बढ़ गया। पहली बार उसे पता चला कि साहित्यिक पुस्तकें भी कोई चीज होती हैं! साहित्यिक कहानियां और उपन्यास के साथ कविताएंलघुकथाएं और बालकथाएं वह पढऩे लगा। अब उस नॉवेल स्टोर से जासूसी उपन्यास के बजाय परागनंदनचम्पकलोटपोट और चंदा माता आदि पत्रिकाएं किराए पर आने लगी। लोटपोट तो उसे इतनी भाई कि जब वह किशोरावस्था में कपड़े की दुकान पर काम करने लगा तो वह हर हफ्ते लोटपोट खरीदने ही लगा। उस जमाने में लोटपोट का मूल्य था एक रुपया! पढऩे के बाद वह लोटपोट को संभाल कर रखता और अगले कुछ वर्षों में उसके पास लोटपोट का ढेर लग गया।
कई बार लाला जी नाराज हो जाते और कहते, ‘क्या करैंसै इन्हां किताबां दा! स्कूल तां तू गिया कानी। हौ’ण पड’दै केहड़ा अफसर बणसैं!’ (क्या करेगा इन पुस्तकों का! स्कूल तो तू गया नहीं। अब पढक़र कौनसा अफसर बनेगा!)
परंतु उस पर लालाजी की इस डांट का कोई असर नहीं था। कच्चे घर में लोटपोट के ढेर को संभालकर रखने की जगह ही नहीं थी। आखिर उस ढेर को धीरे-धीरे दीमक लग गई और एक दिन लाला जी ने वह तौल के भाव कबाड़ी को बेच दी।
वर्षों बाद जब लोटपोट में उसकी अपनी स्वरचित बाल कहानी छपी तो उसकी खुशी का ठिकाना नहीं था। उस एक कहानी का पारिश्रमिक सत्तर रुपए मनिऑर्डर से आया था और इस खुशी में उसने अपने दोस्तों को अलग-अलग पार्टी देने के नाम पर सौ रुपए से ज्यादा खर्च कर दिए थे!
बेशकआज स्वीकार करने में कोई हिचक नहीं है कि स्वतंत्र पत्रकारिता करते हुए दो-दो दैनिक अखबारों को अस्थायी सेवाएं देते हुए अपनी आजीविका चलाने और घर फूंक तमाशा देखने के जुनून में त्रैमासिक साहित्यिक पत्रिका ‘सृजन कुंज’ का नियमित प्रकाशन-सम्पादन करते-करते उम्र के इस छठे दशक में पढऩे की गति पहले वाली नहीं रही है। वट्सअेप और फेसबुक ने भी पढऩे की रुचि और गति दोनों को बुरी तरह प्रभावित किया है लेकिन फिर भी यह सौ फीसदी सच है कि जो आनंद आज भी इस पत्रकार बनाम व्यंग्यकार को छपी हुई पुस्तक को पढऩे में आता हैवह आनंद किसी भी सोशल मीडिया पर नहीं आता। यह पत्रकार बनाम व्यंग्यकार आज भी अपने मित्रों से बातचीत के दौरान ‘सृजन कुंज’ अथवा अखबारों में छापने के लिए भले ही रचना की सॉफ्ट कॉपी ही मांगता हैलेकिन पढऩे के लिए ‘हार्डकॉपी’ की ही मांग रहती है! भले ही पुस्तक खरीदकर पढऩी पड़े और पीडीएफ मुफ्त में उपलब्ध होतब भी उसकी प्राथमिकता छपी हुई पुस्तक ही होती है!
यह छपी हुई पुस्तक की ताकत का ही परिणाम है कि बचपन से ही राह भटक रहा एक आवारा लडक़ा न सिर्फ पत्रकार बनाम व्यंग्यकार के रूप में पहचाना गयाबल्कि अपना जीवन स्तर भी सम्मानजनक रूप से सुधार चुका है!
पुस्तक की ताकत इस पत्रकार बनाम व्यंग्यकार ने बचपन में ही महसूस की होऐसा नहीं है। हाल के वर्षों तक उसने पुस्तक के कारण सौ फिसदी कट्टर कहे जाने वाले एक शख्स का नजरिया बदलते भी देखा है। दस-बारह साल पुरानी बात है। तब यह पत्रकार बनाम व्यंग्यकार राजस्थान पत्रिका में काम करता था। उन दिनों राजस्थान पत्रिका के श्रीगंगानगर कार्यालय में जयपुर से स्थानांतरित होकर एक शख्स आए थे। वे मूलत: बिहार के थे और हिंदीअंग्रेजी के साथ संस्कृत के प्रकांड विद्वान थे। उन्हें पुस्तकें पढऩे का बहुत शौक था। वे ढूंढ-ढूंढकर नई-नई पुस्तकें पढ़ा करते थे। उनकी ज्योतिष के साथ धार्मिक कर्मकांड में विशेष रुचि थी। वे प्रतिदिन दो घंटे अपने कमरे में दुर्गा सप्तशती का पाठ करते थे। यहां तक तो ठीक था लेकिन उनकी विचारधारा कट्टर हिंदुवादी होने के कारण उन्हें मुसलमानों से बहुत दिक्कत थी। इतनी कि साहित्य की चर्चा करते समय वे हिंदीअंग्रेजी और संस्कृत ही नहींअन्य कई विदेशी भाषाओं के साहित्य पर भी अधिकार के साथपूरे आत्मविश्वास से खुलकर बोलते थे लेकिन जैसे ही उर्दू शायरी की बात आतीवे चिल्लाने लगते! उन्हें उर्दू शायरों का नाम तक सुनना पसंद नहीं था।
इस पत्रकार बनाम व्यंग्यकार का यह स्वभाव ही रहा है कि उसे विद्वानों की संगत अच्छी लगती है। यही कारण है कि कई बार वह ‘अच्छे ज्ञाता लेकिन बुरे व्यक्ति’ के साथ उसका घटियापन  बर्दाश्त करते हुए भी काफी समय गुजार लेता है। वे शख्स तो व्यक्ति के रूप में भी बहुत अच्छे थे। भोले और निर्मल मन के एकदम निर्दोष व्यक्ति! उनके अवगुणों पर नजर डालने की कोशिश भी करें तो शायद इस कट्टरपन से अधिक कुछ नजर नहीं आता था। इसी के चलते इस पत्रकार बनाम व्यंग्यकार की उनके साथ बहुत अच्छी दोस्ती रही। खूब हंसी-ठठा और खाना-पीना हुआ।
अपनी रुचि और सामाजिक दायित्व के चलते शहर में साहित्यिक आयोजन की जिम्मेदारी यह पत्रकार बनाम व्यंग्यकार नौकरी में रहकर भी समय निकालकर निभाता रहता था। इन्हीं में एक काम था-लघु स्तर पर पुस्तक मेले का आयोजन! रूप बिल्कुल वैसा ही जैसा बड़े स्तर पर पुस्तक मेलों का रहता है। मसलन पुस्तकों के स्टॉल लगतेलोग पुस्तकें खरीदते और दिन में एक छोटा-मोटा साहित्यिक कार्यक्रम कवि गोष्ठीकहानी पाठपुस्तक चर्चा आदि करवाते थे।
ऐसे ही एक पुस्तक मेला लगा तो एक दिन वे देखने आए। इस पत्रकार बनाम व्यंग्यकार के दिमाग में जानें क्या बात आई कि उन्होंने मात्र पचास रुपए मूल्य की एक पुस्तक पर रैपर चढ़वा लिया और उन शख्स को भेंट करते हुए वादा ले लिया कि आप इस पुस्तक को पढ़ेंगे जरूर! उन्होंने भी बहुत खुश होकर वादा किया और पुस्तक लेकर चले गए।
शाम को जब ऑफिस आए तो उन्होंने आते ही इस पत्रकार बनाम व्यंग्यकार को गले लगा लिया। बोले, ‘यारतुमने तो कमाल कर दिया! मुझे पता ही नहीं था कि गालिब सचमुच में इतना बड़ा शायर है! मैं तो समझता था कि उर्दू वालों ने उन्हें यूं ही चढ़ा रखा है। आज पहली बार गालिब को पढ़ा तो मेरी आंख खुली!
यह पत्रकार बनाम व्यंग्यकार भी हैरान था! ‘दीवान-ए-गालिब’ की छोटी सी प्रति भेंट करते समय इस तरह के चमत्कार की तो उसने भी कल्पना नहीं की थी। उसके बाद तो उन्होंने अनेक उर्दू शायरों को पढ़ा और अपनी बातों में उनके शे’र भी कोट करने लगे।
यह पुस्तक की ताकत नहीं तो और क्या है कि मुसलमानों के नाम से नफरत करने वाला शख्स गालिब की एक किताब पढक़र कट्टर हिंदुत्व के जाल से निकल आया। तब वह पूरी तरह भले ही न बदला होलेकिन उर्दू शायरों के प्रति उसके मन में आदर का भाव उस एक पुस्तक के कारण ही उत्पन्न हो गया था!

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पता:
कृष्णकुमार  ‘आशु’
श्रीगंगानगर (राजस्थान) 

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भारत भाग्य विधाता' (कविता) - श्रीमती सरिता सुराणा

 

भारत भाग्य विधाता
(कविता)
वह असमंजस में था
चारों ओर छाए थे उसके 
निराशा के घनघोर काले बादल
दुविधा में पड़ गया था वह
उसके एक ओर कुंआ था
तो दूसरी ओर खाई
एक ओर कोरोना से मरने का डर
तो दूसरी ओर भूख का भय
वह करे तो क्या करे?
जाए तो कहां जाए?
अपने पैतृक गांव
जिसे वह छोड़ आया था
बरसों पहले
चला आया था शहर
रोजी-रोटी की तलाश में
बनाए थे उसने यहां लाखों आशियाने
अपने इन्हीं खुरदरे हाथों से
मगर उसे ही नसीब नहीं
एक टूटी-फूटी छत सिर छिपाने को
आज जब उसे सबसे ज्यादा जरूरत थी
इस शहर में एक सहारे की
तब दुत्कार रहा था वही
जिसे उसने ही सजाया-संवारा था
अपने खून-पसीने से
आज़ वही चक्की के दो पाटों के बीच 
पिस रहा था और सोच रहा था
वह आज भी असमंजस में था
जाए तो जाए कहां?
करे तो करे क्या?
इसी असमंजस में निकल पड़ा वह
पैदल ही अपने परिवार के साथ
अपना घर सिर पर उठाए
एक हाथ की अंगुली पकड़े बच्चा
दूसरे हाथ में टूटी-फूटी साइकिल
दो-चार एल्यूमीनियम के बर्तन और
कुछ फटे-पुराने चीथड़ेनुमा कपड़ों की 
पोटली उठाए उसकी पत्नी
बस यही तो थी उसकी जमा पूंजी
जिसे साथ लिए जा रहा था वह
वहीं, जहां से आया था
जैसे आया था, उससे भी बदतर हालत में
सहसा प्रश्न उठा कि
कौन था वह?
वह था भारत का भाग्य विधाता
सबके लिए रोटी, कपड़ा और मकान का निर्माता
बना नहीं पाया तो बस अपने लिए ही कुछ
दर-दर की ठोकरें खाने को मजबूर
नाम है उसका मजदूर!
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श्रीमती सरिता सुराणा
हैदराबाद (तेलंगाना)
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जीवन में (कविता) - अतुल पाठक 'धैर्य'

 

जीवन में
(कविता)
घृणा बढ़ रही है चहुँओर 
प्रेम घट रहा है जीवन में

घृणा में घृणा के ही योग से
घृणा का गुणनफल हो रहा है जीवन में

प्रेम शान्ति का बिगड़ रहा समीकरण
द्वेष का आकृमण बढ़ रहा है जीवन में

क्रूर हिंसा का बढ़ रहा संक्रमण 
मानवता का गणित मानव नहीं सीख रहा है जीवन में
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पता: 
अतुल पाठक  'धैर्य'
जनपद हाथरस (उत्तरप्रदेश)

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अतुल पाठक  'धैर्य' जी की रचनाएं पढ़ने के लिए शीर्षक चित्र पर क्लिक करें!

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किसान पर दोहे (दोहे ) -शिव कुमार 'दीपक'

 

किसान पर दोहे
(दोहे)          
जिसके श्रम बल से मिले, सबको रोटी-दाल ।
उसकी खाली थालियाँ , काटें  रोज  बबाल ।।-1

जिसके श्रम से भूख का, मिट जाता संत्रास ।
भूख, गरीबी, बेबसी,  हरदम  उसके  पास ।।-2

जिसके श्रम से खा रहा , खाना  हिन्दुस्तान ।
होगा उसकी भूख का, संसद को कब ज्ञान ।।-3

स्वेद, रक्त  से  सींचकर , खेती  करे  किसान ।
मिला नही श्रम का कभी,उसे उचित सम्मान ।।-4

गर्मी, पावस, शरद में , पाये  कष्ट  तमाम ।
दे न  सकीं ये नीतियां,हलधर को आराम ।।-5

कह आराम हराम है ,श्रम को पूजा मान ।
करे किसानी खेत में , आधा  हिंदुस्तान ।। -6

जब सोता सुख - चैन से, पूरा  हिंदुस्तान ।
तब सरहद पर घूमता , सारी रात जवान ।।-7

खा - पी  सोता  चैन  से , पूरा  हिन्दुस्तान ।
पेट देश का भर रहा,निर्धन आज किसान ।।-8

सजीं मेज पर थालियाँ, महक रहे पकवान ।
लगे अन्नदाता  बिना, घर-घर  में  रमजान ।।-9
-०-
शिव कुमार 'दीपक'
हाथरस (उत्तर प्रदेश)
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