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Tuesday 5 May 2020

मैं गुलाम नहीं होना चाहती (कविता) - सरिता सरस

मैं गुलाम नहीं होना चाहती
(कविता)
मैं गुलाम नहीं होना चाहती 
अपनी आदतों की 
अपने शौकों की 
ना ही सोशल मीडिया की ..

मैं उतना ही सहज, 
और आनन्दित होना चाहती हूँ
जैसे होतीं हैं बारिश की बूंदें 
जैसे बहती है बयार, 
जैसे कूकती है कोयल... 

मैं गुलाम नहीं होना चाहती 
अपने अहं की 
अपने जिद की.. 
मुझे प्रिय है मेरी आजादी 
मैं नहीं होना चाहती ऐसी 
कि 
मेरे संस्कार मुझे बोझ लगे..

और सत्य कटु.. 
चाहती हूं संस्कार ,
मेरी नस - नस में आनन्द की 
तरह प्रवाहित हो.. 

नहीं चाहती कर्तव्य मुझे बोझ लगे 
चाहती हूं मुझे मेरे कर्तव्य... 
सूर्य की पहली किरण - सी 
स्फूर्ति और ताजगी से भर दें... 

मैं गुलाम नहीं होना चाहती 
Inbox में पड़े sms का जवाब देने के लिए..
किसी की तारीफ या आलोचना 
के लिए... 

मैं गुलाम नहीं होना चाहती 
किसी की भी ..
न रूप की , न रंग की ..
यहां तक कि लेखन का भी..

मुझे प्रिय है मेरी आजादी 
मैं गुलाम नहीं होना चाहती 
खुशियों की ..
अश्रुओं की.. 

चाहती हूं 
जीवन फूलों - सी सहजता लिए 
बह उठे धमनियों में.. 
शिशुओं के मुस्कान से 
उतर आए आत्मा में 
जीवन के हर आयाम.. 

मैं गुलाम नहीं होना चाहती ,
अपनी किसी भी ..
इच्छाओं की 
पूर्वाग्रहों की 
बोलने की 
चुप रहने की 
घूमने की 
सोने की 
पढ़ने की या न पढ़ने की.. 

बस प्रेम होना चाहती हूं 
मुझे प्रिय है सबकी आज़ादी.. 
मुझे प्रिय है मेरा अकेला होना 
मुझे प्रिय है तुम्हारा साथ अनंत ..
-०-
पता:
सरिता सरस

गोरखपुर (उत्तर प्रदेश)

-०-


***
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गीत (कविता) - राघवेंद्र सिंह 'रघुवंशी'

गीत 
(कविता)
मैं तुम्हें बस यूं ही रोज लिखता रहा,
कविता और गीत गजलों में गाता रहा।

तू ही है वो कली ख्वाब में जो पली,
मन के मंदिर में तुम को सजाता रहा।।

मैं तुम्हें बस यूं ही रोज लिखता रहा...
मेरे ख्वाबों के पूरे जहां में थी तू,

हर गली हर तिराहे हर बस्ती में तू,
ख्वाब के हर झरोखे में पहरा तेरा,

जिसमें दिखता है बस मुझको चेहरा तेरा,
बिन देखे तुझे तेरी तस्वीर को,

मैं तसव्वुर में अपने बनाता रहा।
तू ही है वो कली एक ख्वाब में जो पली,

मन के मंदिर में तुझको सजाता रहा।।
मैं तुम्हें बस यूं ही रोज लिखता रहा...

तू मेरी शायरी मैं हूं शायर तेरा,
बिल्कुल था ये गलत मानना ये मेरा,

प्यार तुझको न था तुझको बस खेल था,
तेरा मेरा मिलन बिल्कुल बेमेल था,

बेवफा तुम हुए तो हुआ क्या सनम,
मैं तो फिर भी वफाएं निभाता रहा।

तू ही है वो कली ख्वाब में जो पहली,
मन के मंदिर में तुम को सजाता रहा...

मेरी कविता गजल गीत और शायरी,
सब है तेरे लिए सुनले ओ बावरी,

लिख मैं सकता नहीं इसमें नाम तेरा,
तुम समझती हो शायद इशारा मेरा,

मैं तुम्हारा जिकर कर सका ना कहीं,
मन ही मन बस तुम्हें गुनगुनाता रहा।

तू ही है वो कली ख्वाब में जो पहली,
मन के मंदिर में तुम को सजाता रहा।।

मैं तुम्हें बस यूं ही रोज लिखता रहा...
कविता और गीत गजलों में गाता रहा...

तुझको प्यार करने की ख़ता है पता,
है कुबूल अब मुझे यार मेरी ख़ता,

इतने भी मग़रूर लोग होते यहां,
नफरतों से भरा है प्यार का जहां,

मैं तुझे भूलने की हर एक कोशिशें,
हर पल हर घड़ी आज़माता रहा,

तू ही है वो कली ख्वाब में जो पहली,
मन के मंदिर में तुम को सजाता रहा।।

मैं तुम्हें बस यूं ही रोज लिखता रहा...-०-
कवि 
राघवेंद्र सिंह 'रघुवंशी'
-०-

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स्वप्न अवनी से (गजल) - सत्यम भारती

स्वप्न अवनी से
(गजल)
स्वप्न अवनी से निकल अब जाग तू,
मिहनत की चिंगारी से लगा आग तू ।

नफरते-मर्सिया गाता पपीहा इधर ,
बुलबुल सुना अमन का राग तू ।

जीत का मजा़ संघर्षों की तलब में है,
वक्त के थपेड़ों से ना भाग तू ।

प्रेम नहीं विष भरा मानव के अंदर ,
डस कर मर जाएगा नाग तू ।

मुद्दतों से राधा नाराज है मुझसे ,
दिल जलाने आया है फाग तू ।

इश्क़ का मारा सुकूँ नहीं पाता कहीं,
दिल लगाने से अच्छा ले ले बैराग तू ।
-०-
पता-
सत्यम भारती
नई दिल्ली
-०-

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त्रासदी (कविता) - सूबेदार पाण्डेय 'आत्मानंद'

त्रासदी
(कविता)
कांप रही है धरा,डोल उठा है गगन ।
देख तांडव मौतों का ,सिहर उठा है ‌जीवन।
महामारियां हैं आ रही, टूटते पहाड़ हैं।
कभी बादल फट रहे, ये मौत की दहाड़ है।
ध्वस्त‌ हुई बस्तियां,बिखर रही हैं लाशें।
मानवता रो रही, थम रही हैं सांसें।
प्रकृति क्रुद्ध हो रही,अपना धैर्य खो रही।
मानव की नादानियों का दंड प्रकृति दे रही।
अपने ही कुकर्मों का दंश,ये मानव झेल रहा।
समझ बूझ लुप्त हुई, मौत से वो खेल रहा।
काटता है बन जंगल ,पर्वतों को तोड़ रहा।
बड़े बड़े बांध बना जल धारा मोड़ रहा।
रोक रोक जलधारा, नदियों को मार रहा।
पानी बिन मर रहा,मदद को पुकार रहा।
बन जंगल कटने से बन्य जीव मर रहे।
खत्म हुई हरियाली, सपने बिखर रहे।
नित आंधियां है चल रही,बज्रपात हो रहा।‌‌ ‌
फ़ूटी सी किस्मत ले,ये मानव रो रहा।
प्रकृति और इंसान में,जंग मानों छिड़ गई।
प्रतिघात घात चल रहा, धरती अखाड़ा बन रही।
प्रकृति जन्यआपदा का जनक मानव ही बना।
मिट रहा निज कर्म से,कर्म फल है भोगना।
-०-
पता:
सूबेदार पाण्डेय 'आत्मानंद'
वाराणसी (उत्तर प्रदेश)

-०-

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