*** हिंदी प्रचार-प्रसार एवं सभी रचनाकर्मियों को समर्पित 'सृजन महोत्सव' चिट्ठे पर आप सभी हिंदी प्रेमियों का हार्दिक-हार्दिक स्वागत !!! संपादक:राजकुमार जैन'राजन'- 9828219919 और मच्छिंद्र भिसे- 9730491952 ***

Friday 3 January 2020

तलाश (लघुकथा) - महावीर उत्तराँचली

तलाश
(लघुकथा)

“मैं तो खलील जिब्रान बनूंगा, ताकि कुछ कालजयी रचनाएं मेरे नाम पर दर्ज हों.” एक अति उतावला होकर बोला. हम सब उसे देखने लगे. हम सबकी आंखों के आगे हवा में खलील जिब्रान की उत्कृष्ट रचनाएं तैरने लगीं.
दरअसल काफी समय बाद मुलाकात में हम पांच लेखक इकट्ठा हुए. सभी एक-दूसरे से अच्छी तरह परिचित. पांचों पांडवों की तरह हम सब लेखन के हुनर के धुरंधर योद्धा. अतः हम पांचों के मध्य समय-समय पर साहित्य के अलावा विविध विषयों पर आत्ममंथन, गहमा-गहमी,टकराव, गतिरोध, वाद-विवाद, आलोचना, टीका-टिप्पणी आदि का दौर चलता रहता था. आज का विषय बातों-बातों में यूं ही बनता चला गया.बात चली कि हम साहित्य कैसा रचें? हमारे इर्द-गिर्द साहित्य की भीड़ है. हम किनका अनुसरण करें. या किस शिखर बिंदु को छुएं?
“मैं ओ’ हेनरी बनना चाहूंगा! उसके जैसी कथा-दृष्टि अन्यत्र नहीं दिखती.” पहले शख्स का उतावलापन देखकर दूसरे ने भी जोश के साथ अपने होने की पुष्टि कर दी. हम सभी का ध्यान अब उसकी ओर गया. ओ’ हेनरी की अमर कहानियां ‘बीस साल बाद’, ‘आखिरी पत्ती’, ‘उपहार’ और ‘ईसा का चित्र’ आदि हम सबके दरमियान वातावरण में घूमने लगीं.
“मुझे चेखव समझो.” तीसने ने ऐसे कहा, जैसे चेखव उसका लंगोटिया यार हो. बड़े गर्व से हम तीसरे की तरफ देखने लगे. चेखव का तमाम रूसी साहित्य अब हमारे इर्द-गिर्द था.
“और आप…!” मैंने सामने बैठे व्यक्ति से कहा.
“भारतीयता का पक्ष रखने के लिए मैं प्रेमचंद बनना चाहूंगा.” उन चौथे सज्जन ने भी साहित्य के प्रति अपनी प्रतिबद्धता को दोहराया.
मैं मन ही मन सोच-विचार में डूब गया, ‘काश! इन सबने दूसरों की तरफ देखने की जगह अपनी रचनाओं में खुद को तलाशने की कोशिश…’ अभी मैं इतना ही सोच पाया था कि भावी प्रेमचंद ने मुझे झकझोर कर मेरी तन्द्रा तोड़ी, “और आप क्या बनना चाहोगे महाशय?”
“मैं क्या कहूं, अभी मेरे अंदर खुद की तलाश जारी है. जिस दिन पूरी हो… तब शायद मैं भी कुछ…” आगे के शब्द मेरे मुख में ही रह गए और मैं भविष्य के महान साहित्यकारों की सभा से उठकर चला आया.
•••
पता: 
महावीर उत्तराँचली
दिल्ली
-०-

***
मुख्यपृष्ठ पर जाने के लिए चित्र पर क्लिक करें 

जाड़ा आया (बाल कविता) - मुकेश कुमार 'ऋषि वर्मा'


जाड़ा आया
(बाल कविता)
आया-आया जाड़ा आया
किट-किट दांत बजाता आया

सूरज जी को खूब लताड़ा
धूप रानी को भी पछाड़ा
आया-आया जाड़ा आया
किट-किट दांत बजाता आया

मांग रहा तिल-गुड़ की चासनी
और मूंगफली की दाना-दानी
ओढ़ रजाई तोड़ रहा है खाट
शूट-बूट में देखो इसके ठाट

खा-खाकर घर का किया कबाड़ा
कहो कहाँ से भरा जायेगा भाड़ा
आया-आया जाड़ा आया
किट-किट दांत बजाता आया

ठिठुरा बैठा, दुबका बैठा रामू
सर्दी-जुकाम से परेशान है श्यामू
शाल-दुशाले ओढ के निकलो बाहर
तो निश्चय ही सर्दी की होगी हार

आया-आया जाड़ा आया
किट-किट दांत बजाता आया
-०-
मुकेश कुमार 'ऋषि वर्मा'
फतेहाबाद-आगरा. 
-०-

***
मुख्यपृष्ठ पर जाने के लिए चित्र पर क्लिक करें 

सबसे बड़ा है ... (गीत) - व्यग्र पाण्डे


सबसे बड़ा है
(गीत)
प्रेम के फ्रेम में जो जड़ा है
सच मायनों में वो सबसे बड़ा है

सुख-दुख में जो तत्पर खड़ा है
सहयोग का पाठ जिसने पढ़ा है
सच मायनों में वो सबसे बड़ा है

घमंड के फंड से रिक्त है जो
आदर-भाव से सिक्त है जो
सहजता का नशा जिसको चँढ़ा है
सच मायनों में वो सबसे बड़ा है

सच्चाई की ढलाई का लेप है जिस पर
लुटाने को भलाई की खेप है जिस पर
उन्नति के शिखरों पर वो ही बढ़ा है
सच मायनों में वो सबसे बड़ा है

बातों से जिसके झड़ते हो फूल
निंद्रा में भी जिससे ना होती हो भूल
स्वार्थ के लिए जो ना कभी लड़ा है
सच मायनों में वो सबसे बड़ा है
-०-
व्यग्र पाण्डे
सिटी (राजस्थान)

-०-

मुख्यपृष्ठ पर जाने के लिए चित्र पर क्लिक करें 

जब वो पहली बार (कविता) - राजीव कपिल

जब वो पहली बार
(कविता)
जब वो पहली बार मुझसे दूर गई
लगा मेरी जिंदगी मुझसे रुठ गई।
हलक से निवाला मेरा उतरा नही
प्यास मेरी गयी और भूख गयी।
उसकी हंसी पे जान मेरी कुर्बान थी
क्या कहूं उसके साथ मेरी जान गई।
आज जब आया था फ़ोन उसका
न जाने कहाँ मेरी आवाज गयी।
वहाँ दाना पानी मिलता तो होगा
बुलबुल मेरी पहली दफा बाहर गयी।
शेयर की उसने कुछ तसवीरें अपनी
नन्ही परी अब कुछ लम्बी हो गई।
-०-
पता:
राजीव कपिल
हरिद्वार (उत्तराखंड)

-०-

***
मुख्यपृष्ठ पर जाने के लिए चित्र पर क्लिक करें 

मेरी नटखट बिटिया (कविता) - सुरेश शर्मा




मेरी नटखट बिटिया

(कविता)

दो साल की मेरी प्यारी बिटिया,
बड़ी चुलबुल -चंचल नटखट है ।
काम करने नही देती मुझे चैन से
दिन भर शरारत करती रहती है ।

दफ्तर के किताबों को तकिया समझकर
उसपर वह सर रखकर सो जाती है ।
मेरी कलम को ब्रश समझकर
अपने बदन पर चित्र बनाने लगती है

नेहरू जी के कोट पर लगे
लाल गुलाब को ,
अपने तरीके से सजाने लगती है
कभी पीला तो कभी नीला बना देती है

बापू जी के चिकने सर पर
मेरी काली स्याहीयुक्त कलम से
बाल उगाने लगती है ।
कभी उनके सफेद चश्मे को
रंगीन बनाने लगती है

मेरी कलम और पेन्सिल को हाथ लगाते ही
बड़ी चित्रकार बन जाती है ।
मेरी कलम और किताबों के पास जाते ही
वह बड़ी विद्वान बन जाती है ।

कभी-कभी टीवी मे नृत्य देखकर
खुद ही थिरकने लग जाती है
अपने हाथ-पैर को घुमा-घुमाकर
डिस्को डांसर बन जाती है ।

तिलचट्टे को देखते ही ,
झाडू से मार गिरा देती है ।
घर के बाहर बन्दर को देखते ही ,
घर के अंदर ही लाठी घुमाने लगती ।

गुस्से से जब मै उसे घूरता ,
उल्टा वो मुझपे गुर्राने लगती है ।
दो साल की मेरी सु-कोमल बिटिया ,
चुलबुल चंचल प्यारी नटटखट है ।

-०-
सुरेश शर्मा
गुवाहाटी,जिला कामरूप (आसाम)
-०-

 ***
मुख्यपृष्ठ पर जाने के लिए चित्र पर क्लिक करें

सृजन रचानाएँ

गद्य सृजन शिल्पी - नवंबर २०२०

गद्य सृजन शिल्पी - नवंबर २०२०
हार्दिक बधाई !!!

पद्य सृजन शिल्पी - नवंबर २०२०

पद्य सृजन शिल्पी - नवंबर २०२०
हार्दिक बधाई !!!

सृजन महोत्सव के संपादक सम्मानित

सृजन महोत्सव के संपादक सम्मानित
हार्दिक बधाई और शुभकामनाएँ