तलाश
(लघुकथा)
“मैं तो खलील जिब्रान बनूंगा, ताकि कुछ कालजयी रचनाएं मेरे नाम पर दर्ज हों.” एक अति उतावला होकर बोला. हम सब उसे देखने लगे. हम सबकी आंखों के आगे हवा में खलील जिब्रान की उत्कृष्ट रचनाएं तैरने लगीं.
दरअसल काफी समय बाद मुलाकात में हम पांच लेखक इकट्ठा हुए. सभी एक-दूसरे से अच्छी तरह परिचित. पांचों पांडवों की तरह हम सब लेखन के हुनर के धुरंधर योद्धा. अतः हम पांचों के मध्य समय-समय पर साहित्य के अलावा विविध विषयों पर आत्ममंथन, गहमा-गहमी,टकराव, गतिरोध, वाद-विवाद, आलोचना, टीका-टिप्पणी आदि का दौर चलता रहता था. आज का विषय बातों-बातों में यूं ही बनता चला गया.बात चली कि हम साहित्य कैसा रचें? हमारे इर्द-गिर्द साहित्य की भीड़ है. हम किनका अनुसरण करें. या किस शिखर बिंदु को छुएं?
“मैं ओ’ हेनरी बनना चाहूंगा! उसके जैसी कथा-दृष्टि अन्यत्र नहीं दिखती.” पहले शख्स का उतावलापन देखकर दूसरे ने भी जोश के साथ अपने होने की पुष्टि कर दी. हम सभी का ध्यान अब उसकी ओर गया. ओ’ हेनरी की अमर कहानियां ‘बीस साल बाद’, ‘आखिरी पत्ती’, ‘उपहार’ और ‘ईसा का चित्र’ आदि हम सबके दरमियान वातावरण में घूमने लगीं.
“मुझे चेखव समझो.” तीसने ने ऐसे कहा, जैसे चेखव उसका लंगोटिया यार हो. बड़े गर्व से हम तीसरे की तरफ देखने लगे. चेखव का तमाम रूसी साहित्य अब हमारे इर्द-गिर्द था.
“और आप…!” मैंने सामने बैठे व्यक्ति से कहा.
“भारतीयता का पक्ष रखने के लिए मैं प्रेमचंद बनना चाहूंगा.” उन चौथे सज्जन ने भी साहित्य के प्रति अपनी प्रतिबद्धता को दोहराया.
मैं मन ही मन सोच-विचार में डूब गया, ‘काश! इन सबने दूसरों की तरफ देखने की जगह अपनी रचनाओं में खुद को तलाशने की कोशिश…’ अभी मैं इतना ही सोच पाया था कि भावी प्रेमचंद ने मुझे झकझोर कर मेरी तन्द्रा तोड़ी, “और आप क्या बनना चाहोगे महाशय?”
“मैं क्या कहूं, अभी मेरे अंदर खुद की तलाश जारी है. जिस दिन पूरी हो… तब शायद मैं भी कुछ…” आगे के शब्द मेरे मुख में ही रह गए और मैं भविष्य के महान साहित्यकारों की सभा से उठकर चला आया.
•••पता:
महावीर उत्तराँचली
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