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Monday 13 January 2020

जल संवर्धन (कविता) - अख्तर अली शाह 'अनन्त'


जल संवर्धन
(कविता)
बहती हुई सरिताओं की कलकल बचाएंगे।
हम जल बचाएं जल बचाएं जल बचायेंगे ।।
*******
अपने वनों की कोई क्षति हम न सहेंगे।
करना है सुरक्षित जो जमीं करके रहेंगे ।।
जंगल हो या पहाड वृक्ष लहलहाएंगे ।
शहरों में भी हर सिम्त पेड़ सिर उठाएंगे।।
कटती हुई जमीन का हम तल बचाएंगे ।
हम जल बचाएं जल बचाएं जल जाएंगे।।
******
हमने ही तो जमीन को छलनी बना दिया ।
कर कर रूराख सीने में पानी सुखा दिया ।।
प्यासी धरा तड़प रही पानी के वास्ते ।
नदियां तरस गई है जवानी के वास्ते ।।
गहराई में जमीन की हलचल बचाएंगे।
हम जल बचाएं जल बचाएं जल बचायेंगे।।
*******
जिन्दा रहे ना घाट ही कुए भी अब कहाँ ।
जल चारसौ फिट नीचे बह रहा है अब यहां।।
हर गांव में आओ नए पोखर बनाया हम ।
तालाब करें जिंदा कमल फिर खिलाए हम ।।
खुशियों के जिंदगी में शेष पल बचाएंगे ।
हम जल बचाएं जल बचाएं जल बचायेंगे।।
******
बढ़ती हुई ये गर्मी जमीं को जला रही ।
पानी नहीं रहा तो सेहत तिलमिला रही।।
गुम सारे हो गए हैं देखो ताल तलैया ।
बेरोजगार हो गए नावों के खिवैया ।।
हल इसका एक ही है कि जंगल बचाएंगे।
हम जल बचाएं जल बचाएं जल बचाएंगे ।।
******
बरसात का जल व्यर्थ ही जाने न ये पाए ।
जलती धरा को और जलाने न ये पाए ।।
जब घर का रहे घर में खेत का हो खेत में।
खोजेगे निकल आएगा जल लोगों रेत में ।।
जीना है वर्तमान में पर कल बचाएंगे ।
हम जल बचाएं जल बचाएं जल बचाएंगे।।
******
दो बाल्टी की जगह एक से नहाएं हम ।
धोने में गंदे कपड़े नही जल बहाएं हम ।।
रिसता हुआ बहता हुआ जल व्यर्थ न जाए ।
कतरा हरेक पानी का जीवन को बचाए ।।
हम बूंद बूंद जल की मुसलसल बचाएंगे ।
हम जल बचाएं जल बचाएं जल बचायेंगे ।।
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पानी के लिए भीख का बर्तन लिए खड़े ।
ऐसा न हो के आए नजर छोटे और बड़े ।।
दुत्कारे जाएं एक भिखारी की तरह हम ।
दंगे हों जल के वास्ते ढ़ाते रहें सितम ।।
दस्तार नर की नारी का आँचल बचाएंगे ।
हम जल बचाएं जल बचाएं जल बचाएंगे ।।-0-
अख्तर अली शाह 'अनन्त'
नीमच (मध्यप्रदेश)
-०-

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जिन्हें यह ज़िन्दगी सौंपी (ग़ज़ल) - डॉ० अशोक ‘गुलशन’


जिन्हें यह ज़िन्दगी सौंपी
(ग़ज़ल)
बहुत दिन हो गये आँखों में वो मंज़र नहीं आते,
तुम्हारी याद के चेहरे हमारे घर नहीं आते|

हुआ है हाल ये अपना जो तुमसे दूर हो करके ,
लिए अब हाथ में दुश्मन कभी खंज़र नहीं आते |

समय के साथ मिलकर काम करना बुद्धिमानी है,
हमेशा जिंदगी में एक से अवसर नहीं आते|

तुम्हारे प्यार के खत को लगा दी है नज़र किसने ,
बहुत दिन से कबूतर अब हमारे घर नहीं आते|

हुए हमदर्द दुश्मन भी जुदाई में जरा देखो,
तुम्हारे बाद छत पर अब कभी पत्थर नहीं आते|

बहुत है दूर मंजिल चल रहे हैं हम अकेले ही,
सदायें सुन के भी नज़दीक अब रहबर नहीं आते |

न जाने क्या खता कर दी है हमने प्यार में ‘गुलशन’,
जिन्हें यह ज़िन्दगी सौंपी वही दिलवर नहीं आते ||
-०-
संपर्क 
डॉ० अशोक ‘गुलशन’
बहराइच (उत्तरप्रदेश)
-०-



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प्रिय कलम (कविता) - दुल्कान्ती समरसिंह (श्रीलंका)


प्रिय कलम
(कविता)
कलम, इसलिए तुम
मेरे दिल की यादें 
शांत हो गई और
दबा दिया है तुमने दिल ।

रात बिता के, नींद के बिना
शोक ताप दूर करने में
कभी कभी मन में
विचारों को सजाने में
बहुत थक गए रहते हुए
दायाँ हाथ में मेरे ।।

कलम, इसलिए तुम
मेरे दिल की यादें
शांत हो गई और
दबा दिया है तुमने दिल ।

तुम जो विचार ले कर
किताब पर डाली गई
आँसुओं के मोती
कई मन को खुश के गीत
गाना और बजाना सकेंगे।

कलम इसलिए तुम
मेरे दिल की यादें
शांत हो गई और
दबा दिया है तुमने दिल ।

-०-
दुल्कान्ती समरसिंह
कलुतर, श्रीलंका

-०-

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पन्ने भर नहीं सकते (ग़ज़ल) - डॉ० भावना कुँअर (ऑस्ट्रेलिया)

पन्ने भर नहीं सकते
(ग़ज़ल)
झरे हों फूल गर पहले,तो फिर से झर नहीं सकते
मुहब्बत डालियों से फिर,कभी वो कर नहीं सकते

कड़ी हो धूप सर पर तो,परिंदे हाँफ जाते हैं
तपी धरती पे भी वो पाँव,अपने धर नहीं सकते

भरा हो आँसुओं से गर,कहीं भी आग का दरिया
बनाकर मोम की कश्ती,कभी तुम तर नहीं सकते

भले ही प्यार की मेरीवो छोटी सी कहानी हो
लिखो सदियों तलक चाहे,ये पन्ने भर नहीं सकते

उड़ाने हों अगर लम्बी,तो दम फिर हौंसलों में हो
भले तूफाँ कई आयेंकतर वो पर नहीं सकते

इरादे हों अगर पक्के,तो मत डर देखने से तू
बड़े कितने भी सपने हों,कभी वो मर नहीं सकते
-०-
डॉ० भावना कुँअर 
सिडनी (ऑस्ट्रेलिया)

-०-

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तुम्हारे मौन रहने का दर्द (कविता) - नरेन्द्र श्रीवास्तव

तुम्हारे मौन रहने का दर्द
(कविता)
जब भी
मैंने
किसी गुलाब को
छुआ है
काँटों की चुभन
जबरदस्त
मेरी उंगलियों को
चुभो गई है
और गुलाब
केवल धीरे से
यह पूछकर
चुप हो गया है
दर्द तो नहीं हुआ?

जब भी
मैंने
नदी में
किसी किश्ती से
उस पार जाने की
कोशिश की है
तूफान का एक झोंका
जबरदस्त
उस किश्ती को
डुबो गया है
और नदी
केवल धीरे से
यही पूछकर
चुप हो गया है
दर्द तो नहीं हुआ?

जब भी
मैंने
किसी वट वृक्ष की
छाया में
तनिक सुस्ताने की
कोशिश की है
कौए की बीट से
जबरदस्त
मेरी कमीज में
दाग लग गया है
और वट वृक्ष
केवल धीरे से
यही पूछकर
चुप हो गया है
दर्द तो नहीं हुआ?

जब भी
मैंने
खुली धरती में आ
दमकते सूरज को
निहारने की
कोशिश की है
आकाश का एक टुकड़ा
जबरदस्त
मेरे सिर पर आ गिरा है
और सूरज
यही पूछकर
चुप हो गया है
दर्द तो नहीं हुआ?

दर्द तो हुआ
मगर इसलिए
कि
तुम मौन देखते रहे
मुझे
मैं जबाब देता हूं,उन्हें।
-०-
संपर्क 
नरेन्द्र श्रीवास्तव
नरसिंहपुर (मध्यप्रदेश)  
-०-

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