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Tuesday, 5 January 2021

*इंद्रधनुषी रंग* (कविता) - राजेश कुमार शर्मा 'पुरोहित'

 

*इंद्रधनुषी रंग*
(कविता)
*इंद्रधनुषी रंग*
अंतर के दर्पण में नव मीत बनाना बाकी है।
नव सृजन कर छंदों का नवगीत सजाना बाकी है।।

दुनिया के मिथ्या झगड़ों से खुद को बचाना बाकी है।
रूढ़ियों और कुरीतियों से लड़ना अब भी बाकी  है।।

विश्वासों के भंवर जाल में जीना मरना बाकी है।
असली और नकली चेहरों में 
अंतर करना बाकी है।।

नफरत की दीवारों को घर मे गिराना बाकी है।
रिश्तों की बगिया को फिर महकाना बाकी है। 

आगत के स्वागत में अतीत भुलाना बाकी है।
कोरे कागज में इंद्रधनुषी रंग सजाना बाकी है।।
-०-
राजेश कुमार शर्मा 'पुरोहित'
कवि,साहित्यकार
झालावाड़ (राजस्थान)

-०-


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इस ख़बर पर उनका दर्द (व्यंग्य आलेख) कमलेश व्यास 'कमल'

   

इस ख़बर पर उनका दर्द
(व्यंग्य आलेख)

जैसे किसी गन्ने को चरखी में से चार बार गुजारने के बाद उसकी हालत होती है, या किसी भी पतरे की अलमारी को गोदरेज की अलमारी कहने की तर्ज पर पानी की हर बोतल को बिसलरी कहने वाले किसी व्यक्ति द्वारा पूरी बोतल गटकने के बाद उसे मरोड़ मरोड़ कर जो हालत कर दी जाती है,या सैंकड़ो बार भट्टी पर चढ़ने के बाद कड़ाही के पैंदे की जो हालत होती है या अचानक हुई ओलावृष्टि के बाद खेतों में खड़ी फसल की दुर्दशा होती है, वही हालत आज कालू भिया की हो रही थी। सुबह का अखबार उनके लिए ऐसी  खबर लाया था जिसका शीर्षक पढ़ कर ही उनका मूड़ खीज, उदासी सहित ग़म के सातवें आसमान पर पहुंच चुका था। फिर भी हिम्मत जुटा कर उन्होंने पूरी खबर पढ़ी, जिसे पढ़ने के बाद उनका दिल ऐसा बैठा कि दोपहर 2:00 बजे तक उन्होंने चाय तो छोड़ो कुल्ला तक नहीं किया,मोबाइल पर कई काॅल आए पर एक भी रिसीव नहीं किया।  पत्नी बच्चे हैरान-परेशान,चिंतित, आखिर हुआ क्या है? ना तो बुखार है ना खांसी-जुकाम हुआ है? कुल मिलाकर कोरोना का कोई लक्षण नहीं...! फिर यह स्थिति क्यों? कल रात को अच्छे भले चकहते लहकते घर आए थे, बच्चों से हंसी मजाक किया था, पत्नी से भी 'पतिवत' व्यवहार किया...! फिर अचानक ऐसा क्या हुआ जो कालू भिया का पूरा अस्तित्व,व्यक्तित्व सुबह से किसी शव यात्रा या नेता का जुलूस गुजरने के बाद सड़क पर बिखरे फूलों पर से सैकड़ों वाहन गुजरने के बाद जैसा लग रहा था...!


कालू भिया का काम सिर्फ और सिर्फ समाजसेवा करने का ही था, जिसकी बदौलत उनके शहर में लगभग दस-बारह मकान थे, दो चार पहिया,पाँच दो पहिया वाहन सर्वसुविधा युक्त शानदार बंगले नुमा घर अलग, जिसमे वे सपरिवार रहते थे...! इसी समाजसेवा के अंतर्गत वे मात्र दस प्रतिशत के मामूली ब्याज पर जरूरतमंदों को पैसा मुहैया करवाते थे, जिसकी बदौलत  लोग उन्हे अपने मकान, ज़मीन, दोपहिया, चार पहिया वाहन भी कभी-कभी सौंप जाते थे, लेकिन पिछले 15 दिनो से तो उन्होंने किसी को ब्याज के लिए अनुरोध भी नहीं किया था, बल्कि किसी ने आकर गुज़ारिश भी की, कि "वह अभी ब्याज नहीं दे पाएगा" तो उन्होंने बड़े प्यार से हँसते-हँसते उसको "कोई बात नहीं" कहकर ही विदा किया था।  एकदम खिले खिले लग रहे थे अभी वे, यार दोस्तों,मोहल्ले वालों  से खूब गपशप करते थे, दिन भर किसी न किसी बहाने सबकी सहायता करने के लिए उतावले प्रतीत होते थे। जरूरत से ज्यादा सामाजिक होते दिखने पर पत्नी ने एक-दो बार मजाक करते हुए पूछ भी लिया था "क्या बात है, आजकल  कुछ ज्यादा ही समाज सेवा हो रही है,  चुनाव लड़ने का इरादा है क्या?" कालू भिया हंस कर टाल देते थे, कोई जवाब नहीं देते थे। पर आज सुबह से अपने पति की ऐसी स्थिति देखकर पत्नी की चिंता बहुत बढ़ गई थी। बेटे से पूछा तो बेटे ने बताया कि सुबह अखबार पढ़ने के बाद से यह हालत है तब पत्नी ने पूरा अखबार कई बार गौर से देखा, यहां तक कि विज्ञापन तक पढ़ डाले, उन्हें कहीं कोई ऐसी खबर नहीं दिखी जिसका सीधा संबंध वह अपने पति से जोड़ सकें। न किसी सगे-संबंधी, जान-पहचान वाले के परलोक गमन की ना ही देश-विदेश में कोई प्राकृतिक आपदा की ख़बर थी, किसी बड़े आतंकी हमले को तो छोड़िए कहीं कोई गोली चलने तक का समाचार नहीं था।   आखिर उसने जिद पकड़ ली वह कालू भिया के पीछे पड़ गई कि उन्होंने अखबार में ऐसा क्या पढ़ा जिससे उनकी हालत ऐसी हो गई ?  आखिर कालू भिया को वह ख़बर बताना पड़ी जिसे पढ़कर उनकी यह हालत हुई थी। शीर्षक था- "नगरीय निकाय और पंचायत चुनाव स्थगित, फरवरी के बाद होंगे।"  कालू भिया ने पत्नी को बताया कि अभी कुछ दिन पहले चुनाव होने की खबर पढ़कर उन्होंने पार्षद का चुनाव लड़ने के लिए मोहल्ले में प्रचार अभियान भी चालू कर दिया था, दस-पंद्रह दिनो से पूरी तरह अपने आप को इस अभियान में झोंक दिया था और अब यह खबर... जिसने सब किए कराए पर पानी फेर दिया था।

-०-
कमलेश व्यास 'कमल'
उज्जैन (मध्यप्रदेश)

-०-

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अन्नदाता (कविता) - डॉ. मलकप्पा अलियास महेश

 

अन्नदाता
(कविता)
हल लेकर निकल पड़े अन्नदाता
भविष्य की सोच लेकर विधाता |

हर मौसम को झेल कर, 
एक-एक दाने समेट कर |

मौज मस्ती नहीं किया कभी
दिन रात मेहनत करते सही |

भोर उठ फसलों का दिया ग्यान,
हर वक़्त जपते हैं अनाज - धान |

गाय की विष्ठा की खुशबू पसीने के
गुस्ल समय बुआई की पहचान |

हर मौसम की रखता है जानकारी, 
फिर भी भर जाते कीट  आपतकारी |

धरती पुलक थिरकती है इसके मोह,
सुखद अहसास  करते हैं इसके ही दाह | 

नभ देख समय परखते हैं, 
धूप की छाया देख घर चलते हैं |

सदा देश की सोच में बांध, 
यही हैं देश के सूरज चाँद |
-०-
पता:
डॉ. मलकप्पा अलियास महेश
बेंगलूर (कर्नाटक)

-०-
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किन्नर (कविता) - आदित्य अभिनव


किन्नर
(कविता)
          हाँ , मैं स्त्री हूँ 
          और पुरुष भी ; 
         आपके इस सभ्य समाज का 
         एक अंग भी । 
         मुझमें स्त्री-पुरुष दोनों 
         प्रवाहित होते हैं 
         लेकिन , कोई भी 
         प्रकट नहीं हो पाता 
         अपनी पूर्णता के साथ 
         क्योंकि ,
         मैं सदा बहने वाली 
         वह नदी हूँ 
         जिसका कोई किनारा नहीं।
         लोगों को कहते सुना है कि ,
         गलती करना इंसान की फितरत है 
         और ,
         इस सापेक्ष जगत् में 
         केवल ईश्वर ही 
         निरपेक्ष, निष्पाप , निर्विकार, 
         दया का सागर और करुणा निधान है।
         तो फिर ,
         स्त्री और पुरुष के बीच 
         हवा में त्रिशंकु के भाँति 
         लटके ,
         लांछित और अपमानित 
         जीवन के लिए अभिशप्त ,
         हम सब के रूप में 
         क्या , वह असीम अगोचर ही 
         अपनी ही भूल से
         साकार रूप में 
         व्यक्त है ? 
         बंधु ! 
         यदि ऐसा नहीं तो
         वह ईश्वर भी नहीं,
         क्योंकि यदि हम 
         गलत हैं तो
         हमें रचने वाला 
         सही कैसे हो सकता है ? ? ? 
-०-
पता: 
आदित्य अभिनव उर्फ डॉ.  चुम्मन प्रसाद श्रीवास्तव 
कौशाम्बी (उत्तर प्रदेश)

-०-

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