किन्नर
(कविता)
हाँ , मैं स्त्री हूँ
और पुरुष भी ;
आपके इस सभ्य समाज का
एक अंग भी ।
मुझमें स्त्री-पुरुष दोनों
प्रवाहित होते हैं
लेकिन , कोई भी
प्रकट नहीं हो पाता
अपनी पूर्णता के साथ
क्योंकि ,
मैं सदा बहने वाली
वह नदी हूँ
जिसका कोई किनारा नहीं।
लोगों को कहते सुना है कि ,
गलती करना इंसान की फितरत है
और ,
इस सापेक्ष जगत् में
केवल ईश्वर ही
निरपेक्ष, निष्पाप , निर्विकार,
दया का सागर और करुणा निधान है।
तो फिर ,
स्त्री और पुरुष के बीच
हवा में त्रिशंकु के भाँति
लटके ,
लांछित और अपमानित
जीवन के लिए अभिशप्त ,
हम सब के रूप में
क्या , वह असीम अगोचर ही
अपनी ही भूल से
साकार रूप में
व्यक्त है ?
बंधु !
यदि ऐसा नहीं तो
वह ईश्वर भी नहीं,
क्योंकि यदि हम
गलत हैं तो
हमें रचने वाला
सही कैसे हो सकता है ? ? ?
-०-
आदित्य अभिनव उर्फ डॉ. चुम्मन प्रसाद श्रीवास्तव
कौशाम्बी (उत्तर प्रदेश)
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