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Tuesday 5 January 2021

किन्नर (कविता) - आदित्य अभिनव


किन्नर
(कविता)
          हाँ , मैं स्त्री हूँ 
          और पुरुष भी ; 
         आपके इस सभ्य समाज का 
         एक अंग भी । 
         मुझमें स्त्री-पुरुष दोनों 
         प्रवाहित होते हैं 
         लेकिन , कोई भी 
         प्रकट नहीं हो पाता 
         अपनी पूर्णता के साथ 
         क्योंकि ,
         मैं सदा बहने वाली 
         वह नदी हूँ 
         जिसका कोई किनारा नहीं।
         लोगों को कहते सुना है कि ,
         गलती करना इंसान की फितरत है 
         और ,
         इस सापेक्ष जगत् में 
         केवल ईश्वर ही 
         निरपेक्ष, निष्पाप , निर्विकार, 
         दया का सागर और करुणा निधान है।
         तो फिर ,
         स्त्री और पुरुष के बीच 
         हवा में त्रिशंकु के भाँति 
         लटके ,
         लांछित और अपमानित 
         जीवन के लिए अभिशप्त ,
         हम सब के रूप में 
         क्या , वह असीम अगोचर ही 
         अपनी ही भूल से
         साकार रूप में 
         व्यक्त है ? 
         बंधु ! 
         यदि ऐसा नहीं तो
         वह ईश्वर भी नहीं,
         क्योंकि यदि हम 
         गलत हैं तो
         हमें रचने वाला 
         सही कैसे हो सकता है ? ? ? 
-०-
पता: 
आदित्य अभिनव उर्फ डॉ.  चुम्मन प्रसाद श्रीवास्तव 
कौशाम्बी (उत्तर प्रदेश)

-०-

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