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Thursday 12 March 2020

बचपन (आलेख) - बलजीत सिंह

बचपन
(आलेख)
कच्चे फल को आदमी तो क्या पक्षी में नहीं तोड़ते , क्योंकि वे जानते हैं ,यह फल पूरी तरह से नहीं पका । जब तक वह अच्छी तरह से नहीं पकता , तब तक वह सुरक्षित रहता है । इसी प्रकार मनुष्य के जीवन में भी एक अवस्था ऐसी आती है , जिसमें वह सुरक्षित रहता है अर्थात उसका किसी के साथ भेदभाव नहीं होता और जीवन की इस आस्था का नाम है -- बचपन ।

बच्चा जब घर की दहलीज से बाहर कदम रखता है तो उसकी नजर में सभी अपने होते हैं , कोई पराया नहीं होता । वह अपने घर वालों के साथ , आस- पड़ोस वालों के साथ , खेलना -कूदना ,पढ़ना -लिखना इत्यादि जो भी गतिविधि करता है ,उस गतिविधि में बिताया गया समय , बचपन कहलाता है ।

आंधी के आने पर , वृक्षों के सूखे पत्ते अचानक टूटने लगते हैं , क्योंकि सूखे पत्ते कमजोर होते हैं और जो पत्ते हरे होते हैं , वे आसानी से नहीं टूटते । इसी तरह बचपन भी हरे पत्तों के समान होता है । इस अवस्था में केवल खुशियां ही खुशियां होती है ,गम का कहीं नामोनिशान नहीं होता । जीवन में आनंद और उत्साह की अधिकतर बारिश , लगभग इसी अवस्था में होती है ।

आईना कांच का जरूर होता है , परंतु उसमें चेहरा स्पष्ट दिखाई देता है । कांच की जगह अगर उस आईने को किसी दूसरी धातु से बनाया जाए , तो उसमें चेहरा साफ दिखाई नहीं देगा । इसी तरह बचपन भी एक आईने के समान है , इसमें बच्चे की पवित्रता बिल्कुल साफ दिखाई देती है । उनका मन साफ होता है अर्थात उसमें मन में किसी धर्म एवं जाति के प्रति हीन -भावना नहीं होती ।

हमें बचपन में खेलने का जो अवसर मिलता है , उसके बाद वह जीवन में कभी नहीं मिलता । बचपन के खेल निराले होते हैं । आंख-मिचौली , गुल्ली -डंडा ,चोर- सिपाई आदि खेलों को हम भूल नहीं सकते । कभी-कभी तो बच्चों की खेल- खेल में मार -पिटाई भी हो जाती है , परंतु कुछ ही देर में , सभी साथ मिलकर खेलना आरंभ कर देते हैं । वे कभी एक- दूसरे से गिला- शिकवा नहीं करते ।

बच्चे बरसात के मौसम में भीगना ज्यादा पसंद करते हैं । ऐसे समय में वे नहाते हैं ,खेलते हैं और पूरे समूह के साथ मौज- मस्ती करते हैं । उनका खाना- पीना और गुनगुनाना सभी एक साथ होता है । जब तक बचपन होता है , वे जीवन का सच्चा आनंद प्राप्त करते हैं । इसलिए प्रत्येक इंसान को अपना बचपन जीवन भर याद रहता है ।

दुश्मन के घर की तरफ , हम कभी आंख उठाकर नहीं देखते । हमारा बच्चा जब किसी दुश्मन के घर चला जाता है , वे उसके साथ अपने बच्चों जैसा व्यवहार करते हैं । उसे खिलाते हैं , पिलाते हैं , सब कुछ पता होते हुए भी उससे लाड -प्यार करते हैं ,क्योंकि बच्चा भगवान का रूप होता है अर्थात सभी के दिलों में बच्चों के प्रति प्रेम की भावना होती हैं ।

मेले की शोभा हमेशा लोगों से बढ़ती है और उस मेले में जितने ज्यादा लोग होंगे , वह उतना ही ज्यादा अच्छा लगेगा । इसी तरह जब कोई त्यौहार आता है , वह बच्चों के बिना अधूरा लगता है । त्यौहारों के शुभ अवसर पर , बच्चे ही सबसे ज्यादा खुशी मनाते हैं । ऐसे-ऐसे अवसरों पर वे कई दिन पहले ही , उनका भरपूर आनंद उठाने लगते हैं ।

सुबह -सुबह सूरज के निकलने ही ,कलियों के घूंघट अपने आप खुलने लगते हैं । उन कलियों में छुपी हुई महक , धूप लगने से चारों तरफ फैल जाती है ।इसी प्रकार बचपन भी एक कली के समान है ।परिवार एवं समाज का प्रभाव जब इसके ऊपर पड़ता है ,इससे हंसी -खुशी की महक उत्पन्न होती है और उस महक से हमारा घर- आंगन महकने लगता है ।

आज हम धर्म , जाति एवं वर्ग के आधार पर बंटे हुए हैं । लोगों में भेदभाव का जहर फैलता जा रहा है , परंतु बचपन इन सब चीजों से दूर है । बचपन का कोई मजहब नहीं होता , इसका मजहब तो केवल प्रेम है । मंदिर हो चाहे मस्जिद , इनकी नजर में सब एक समान है अर्थात् कोई अपना-पराया नहीं ।

मुसीबत के समय , लगभग सभी व्यक्ति परमात्मा को याद करते हैं । इसी तरह जब हम जीवन के सुनहरे पलों को याद करते हैं तो वहां बचपन हमें सबसे पहले याद आता है ।
-०-
बलजीत सिंह
हिसार ( हरियाणा )
-०-

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••तुम चांद से जुदा हो•• (कविता) - अनवर हुसैन

••तुम चांद से जुदा हो••
(कविता)
तुम ही दौलत तुम ही शोहरत
तुम ही मेरी , ऐशो - इशरत
तुम ही इबादत तुम ही चाहत
तुम लबों की दुआ हो
तुम चांद से जुदा हो
तुम चांद से जुदा हो .....

उगता सूरज महकता गुलशन
तुझ पर वारु तन - मन - धन
तुम ही दिल , तुम ही धड़कन
तुम मेरे हमनवा हो
तुम चांद से जुदा हो
तुम चांद से जुदा हो ......

तुम से जीवन तुम से सरगम
सदाबहार हो पतझड़ मौसम
तुम ही खुशी हो तुम्ही सनम
तुम दिल की दवा हो
तुम चांद से जुदा हो
तुम चांद से जुदा हो......

मखमली हंसी रेशम- सा बदन
इश्क में उड़ती तुम कटी पतंग
तुम ही जुनून हो तुम ही उमंग
तुम दिल की सदा हो
तुम चांद से जुदा हो
तुम चांद से जुदा हो......
-०-
पता :- 
अनवर हुसैन 
अजमेर (राजस्थान)

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अनुभूतियों के गजरे (कविता) - शिवानन्द सिंह ‘सहयोगी’

अनुभूतियों के गजरे 
(कविता)
सबदों की धूप ओढ़े,
मन के सहन में उतरे,
कुछ अक्षरों के साये.

वर्णों के पैदलों में,
हैं दर्द के मृत्युंजय,
भावों के भव्य बंधन,
स्वरग्राम के धनंजय,
लय घुँघरुओं को बाँधे,
वाणी के मंजु पाये.

नम बादलों के आँसू,
अँखियों की भैरवी हैं,
बिजली की धड़कनों की,
पीरों की कैरवी हैं,
ध्वनि-वाटिका में उड़-उड़,
भँवरा ठुमरियाँ गाये.

सुधियों के मधुवनों के,
प्रतीकत्वों के प्रबंधन,
कथनों के वाक्य अभिनव,
शैली के हर समंजन,
अभिप्राय की झोंपड़ियों
की, छान को हैं छाये.

भाषा की आंतरिकता,
है व्यंजना की व्याख्या,
बिंबों के नव वसंतों,
संवेदना की आख्या,
अनुभूतियों के गजरे,
अवगाहनों के लाये.
-०-
पता: 
शिवानन्द सिंह ‘सहयोगी’
मेरठ (उत्तरप्रदेश)
-०-


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गर कुछ पेड़ लगाए होते (ग़ज़ल) - डॉ. रमेश कटारिया 'पारस'


गर कुछ पेड़ लगाए होते
(ग़ज़ल)
गर कुछ पेड़ लगाए होते
घनी धूप में साए होते

पानी बदल दिया होता तो
कमल ना ये मुरझाये होते

वे भी खफा नहीँ रह पाते
दिल से यदि मुस्काये होते

नफ़रत को कोई जगह न मिलती
यदि गीत प्रेम के गाए होते

हम तुम जुदा कभी ना होते
उसने यदि मिलवाये होते

संसद कभी ना ऐसी बनती
यदि चुन कर पहुंचाये होते

सबको अपने हक़ मिल जाते
यदि सबने फ़र्ज निभाए होते

स्वार्थ अगर आडे ना आता
तो अपने भी ना पराए होती

भूखा कोई नहीँ सोता यदि
हक़ ना किसी के खाये होते

अन्त समय में ना पछताते
यदि कुछ पुण्य कमाएं होते

पारस यदि समझौता करते
सारे जग में छाये होते
-०-
पता:
डॉ. रमेश कटारिया 'पारस'
ग्वालियर (मध्यप्रदेश)
-०-



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