टप्पा
(कहानी)
टप्पे के साथ गेंद आ गई इस पार। अब भला गेंद को सरहद से क्या लेना देना। उसका टप्पा सरहद के इस ओर पड़े या उस ओर। वो तो दीवार लांघ आई थी। दीवार भी ऐसी-वैसी नहीं कंटीली बाड़ थी। जिसके आमने-सामने तनी थी बंदूक़ें। गेंद को न गोली का ख़ौफ़ था न रॉकेट लांचर का। उसने टप्पा डालना था सो डाल दिया।
वैसे ये गेंद अब्दुल की थी जो अपनी भेड़ों के साथ सरहद के पास चला आता था। भेड़ें मैदान में चरतीं और वह गेंद के साथ खेलता रहता। इस बार अब्दुल ने गेंद ज़मीन पर ज़ोर से पटकी तो गेंद टप्पा खाकर कंटीली बाड़ को पार करके इस ओर आ गई, खेत में काम करते मंजीत के पास। जो अपने बाबा को रोटी देने आया था। मंजीत ने गेंद पकड़ी इधर-उधर देखा तो सामने कंटीली बाड़ के पास अब्दुल खड़ा हुआ गेंद वापस मांग रहा था। मंजीत मुस्कराया उसने ज़ोर लगाकर गेंद उस तरफ़ फ़ेंक दी। गेंद टप्पा खाकर अब्दुल के हाथों में थी। वह भी मंजीत को देखकर मुस्कराया।
अगले दिन गेंद टप्पा खाकर जब मंजीत के पास पहुंची तो दोनों का खेल शुरू हो गया। गेंद टप्पा खाकर कभी अब्दुल के हाथ में होती कभी मंजीत के हाथ में। दोनों ज़ोर-ज़ोर से खिलखिलाकर हंसते रहे। सरहद तो जैसे दोनों के बीच कहीं नहीं थी।
'क्या नाम है तेरा?' मंजीत ने गेंद उछालते हुए पूछा।
'अब्दुल।'
'ये तेरी भेड़ें हैं ?'
' हां, सारी की सारी।'
इतने में उधर से बाबा ने आवाज़ दी,'मंजीते! जल्दी आ, उधर क्या कर रहा है?'
'आ रहा हूं बाबा।'
मंजीत चल दिया। अब्दुल को उसका नाम पता चला। मंजीत...मंजीता। वह मुस्कराया।
दिन चढ़ते ही अब्दुल भेड़ चराने आ गया। कंटीली बाड़ के उस तरफ़ मंजीत दिखाई दिया। अब्दुल दूर से चिल्लाया।
'मंजीते...मंजीते।'
मंजीत ने अब्दुल की आवाज़ सुनी तो वह दौड़कर बाड़ के पास आ गया। दोनों आमने-सामने खड़े थे। बाड़ कांटे फैलाए दोनों के बीच खड़ी थी। दोनों ने एक दूसरे को देखा। दोनों मुस्कराए।
'मंजीते!'
'अब्दू! यार अमरूद तोड़कर देगा।'
'कौनसे?'
'वो सामने वाले।' मंजीत ने पेड़ की तरफ़ इशारा किया।
'अच्छा अभी तोड़ता हूं।'
अब्दुल ने अमरूद तोड़कर मंजीत के ओर उछाल दिया। अमरूद था गेंद नहीं, मंजीत ने टप्पा नहीं पड़ने दिया। लपक लिया। ख़ुशी से हाथ हिलाया। अब्दुल पेड़ पर चढ़े-चढ़े चिल्लाया,'और दूं?'
'हाँ, एक और दे दे।'
अब्दुल ने एक अमरूद और उछाल दिया। दोनों ख़ुश थे। दोनों खिलखिला रहे थे।
अब दोनों रोज़ ही कंटीली बाड़ के पास आकर खेलते थे।
आज सांझ का झुटपुटा बढ़ चुका था। दोनों को खेलते-खलते देर हो चुकी थी। वे गहराती सांझ से बेख़बर थे।
'मेरे पास कंचे हैं, तू लेगा अब्दू?'
'कितने हैं?'
'दस, पांच तू ले-ले। फेंक दूं?'
'नहीं, अंधेरा हो रहा है खो जाएंगे। तू ऐसा कर उस पेड़ पर चढ़। मैं इस झुकी डाल से ऊपर चढ़ता हूं। तू पेड़ पर ही कंचे दे दियो' अब्दुल ने मंजीत को समझाया।
'ठीक है।'
मंजीत पेड़ पर चढ़ गया। फ्लड लाइट उसके चेहरे पर पड़ी। आंखें चौंधिया गई उसकी। उधर अब्दुल भी डाल पकड़कर चढ़ आया। सर्च लाइट की रोशनी तेज़ हो गई। धायं-धायं की आवाज़ ने ख़ामोशी को चीर दिया। दो गोलियां चलीं। एक उस तरफ़ से दूसरी इस तरफ़ से।
आख़िरी दो टप्पे खाए थे दोनों ने। अब्दुल टप्पा खाकर सरहद के इस ओर गिरा और मंजीत दूसरी तरफ़ टप्पा खा चुका था।
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शिवचरण सरोहा
दिल्ली
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