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Thursday 12 December 2019

माँ (मुक्तक रचना) - अब्दुल समद राही

माँ
(मुक्तक रचना)
माँ
एक सम्पूर्ण नारी
वट-वृक्ष
की तरह
देती है
छाँव
सर्दी, गर्मी, वर्षा
हर मौसम में
तनी रहती है
अडिग
अपनों के लिए
सर्दी में कम्बल
गर्मी में हवा
वर्षा में छत
बनकर करती है
हिफाजत
मगर
माँ की कोख से
बाहर
फैंकी जा रही है
कौंपल
जो
वट-वृक्ष
बनने को आतुर है
देना चाहती है
शीतल और ठण्डी
एक आत्मीय स्नेेहिल छाँव।
***
पता:
अब्दुल समद राही 
सोजत (राजस्थान) 
-०-

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जय लक्ष्मी माता (कविता) - शुभा/रजनी शुक्ला



जय लक्ष्मी माता
                   (कविता)
लगा है शुभकामनाओं का ताता
की जनम लिनहि है लक्ष्मी माता
जन जन का मन हर्षाया
की जनम लीं महालक्ष्मी माता

ढोलक बाजे ताशे बाजे
हर्षोल्लास से भक्त नाचे
धिन धिन धिन थैया ताता ——-कि जनम ली लक्ष्मी माता

कमल सेज पर लेटी माता
सुंदर नयन तेजस्वी माथा
असुरो का की संहार माता ——-कि जनम ली लक्ष्मी माता

लाल वस्त्र परिधान तुम्हारा
हाँथ से बहती धन की धारा
सबके सुख दुख की दाता ——-कि जनम ली लक्ष्मी माता

विष्णु जी के वामभाग मे
शोभा पाती क्षीरसागर मे
अद्भुत रूप सुहाता ———कि जनम ली लक्ष्मी माता

जो कोई लक्ष्मी जी को ध्याता
मनवांछ्त फल निश्चित पाता
भवसागर तर जाता ———कि जनम ली लक्ष्मी माता
-०-
शुभा/रजनी शुक्ला
रायपुर (छत्तीसगढ)

-०-

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‘क्या? कानून के रक्षक ही भक्षक हैं' (आलेख) - रेशमा त्रिपाठी

‘क्या? कानून के रक्षक ही भक्षक हैं'
(आलेख)
" भारत देश की वर्तमान न्यायव्यवस्था में विगत कुछ ही दिनों में जिस तरह से उभरते हुए मामले सामने आए हैं वह विचारणीय हैं यह घटना वहाॅ॑ की हैं जहाॅ॑ देश की सर्वोच्च न्यायपालिका स्थापित हैं और समूचा लोकतंत्र न्याय के लिए वहाॅ॑ तक का दरवाजा खटखटाता हैं (नई दिल्ली तीस हजारी कोर्ट का मामला) सामने आया लोकतंत्र यह सोचने को मजबूर हो गया की विधि और कानून के रक्षक ही यदि भक्षक बनते हुए नजर आते हैं तब भारत की लोकतांत्रिक व्यवस्था जहाॅ॑ अग्रिम पंक्ति में खड़ी दिखाई देती हैं वहाॅ॑ के जनमानस किस पर विश्वास करें जो स्वयं में ही एक नया इतिहास लिखने को तैयार खड़ा हैं उसी के बीच देश की कुछ परिपक्व लोकतंत्र की घटनाएं कभी-कभी ऐसे सामने आ जाती हैं कि न्यायपालिका, के न्याय और व्यवस्थापिका की व्यवस्थाओं पर प्रश्न खड़ा करती हैं जो कि न्यायपालिका को ही शर्मसार कर देती हैं जब अग्रिम पंक्ति के लोग इस तरह की मानसिकता से नहीं ऊपर उठ पा रहे हैं तो आम जनमानस किस तरह न्याय की उम्मीद करें? और किससे !कभी-कभी यह प्रश्न सोचने पर विवश कर देता हैं यद्यपि कि भारत की लोकतांत्रिक व्यवस्था समान रूप से न्यायपालिका, व्यवस्थापिका साथ –साथ चलती दिखाई देती हैं फिर भी कुछ अराजक मानसिकता के लोगों के कारण स्वयं को अराजकता में समेटे हुए ,अभद्र मानसिकता वाले लोगों के कारण जैंसा कि (तीस हजारी कोर्ट की घटना) सामने आयी हालांकि कोई पहली घटना नहीं थी यह लेकिन प्रशासनिक एवं न्यायिक व्यक्तियों का एक दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप जनमानस की भावना एवं उनकी सुरक्षा पर प्रश्न जरूर खड़ा करती हैं जो लोकतंत्र का परिचायक बनता हैं भारत एक लोकतांत्रिक देश हैं यहाॅ॑ पर यद्यपि कि कभी-कभी कुछ घटनाएं लोकतंत्र को शर्मसार करने वाली हो जाती हैं किंतु यह मानना उचित नहीं की न्यायव्यवस्था पूर्ण रूप से ध्वस्त हो चुकी हैं या लोकतंत्र को सुरक्षित करने में समर्थ नहीं हैं आवश्यकता इस बात की हैं कि मर्यांदित रूप में भारत की लोकतांत्रिक व्यवस्था में विश्वास करने वाले लोगों को वे जो कानून और प्रशासन को भलीभांति समझते हैं उन्हें मर्यादित रूप से अपने कार्य प्रणाली में सुधार करने की आवश्यकता हैं जिससे जनमानस में जागृत असंतोष की भावना न्यायव्यवस्था पर उठते प्रश्न पर एक सार्थक एवं व्यवस्थित छवि के रूप में लोकतंत्र के पटल पर स्थापित हो सकें । जिससे कानून व्यवस्था, प्रशासनिक व्यवस्था एवं लोकतंत्र सुचारू रूप से चलता रहे निरंतर ...
क्योंकि कभी-कभी छोटी-छोटी घटनाएं ही बहुत कुछ सोचने को विवश करते हुए शर्मसार भी करती हैं साथ ही इस भूमंडलीकरण के दौर में हमें अन्य देशों के सामने आलोचनाओं का शिकार भी होना पड़ता हैं जबकि भारत का लोकतंत्र सदैव से सामाजिक परिपाटी से परिपूर्ण संवैधानिक रूप में रहा हैं जहाॅ॑ लोकतांत्रिक व्यवस्था भले ही कुछ कमजोर एवं दबी हुई हो किन्तु सामाजिक समरसता की भावना चरम पर स्थापित रहा हैं बस आवश्यकता इस बात की हैं कि बिना किसी आशंका या दोषारोपण के एक दूसरे पर किए स्वयं में न्यायव्यवस्था आत्ममंथन करें। अन्यथा जनमानस कानून के रक्षक ही भक्षक समझ बैठेंगा ।
क्योंकि भारत के लोकतंत्र में न्यायपालिका और कार्यपालिका का टकराव नया नहीं है फिर भी न्यायिक सक्रियता के कुछ मामले अक्सर भारत में सबसे अधिक लोकतंत्र को मजबूत करते हुए सामने आते हैं किन्तु कानून के तथाकथित जानकार जानें –अनजानें उसे अपने हाथ में ले बैठते हैं भारत का संविधान दुनिया के उन विशिष्टतम॒ संविधानों में से एक हैं जो (सर्वधर्मं समभाव) की भावना से लिपटा हुआ हैं यद्यपि की सभी को समान रूप से संवैधानिक दायरे में रहकर सभी व्यक्तियों के लिए मूलभूत व्यवस्थाओं की जिम्मेंदारी और जीवन जीने का अधिकार भारतीय संविधान के नीति निर्देशक तत्व भाग 3 में वर्णित किया गया हैं साथ ही आदर्श राज्य की परिकल्पना भी की गई हैं जो भारतीय संविधान को सर्वोत्तम के शिखर पर परिलक्षित करता हैं भारत बहुआयामी, बहुभाषी संस्कृतियों का देश हैं जिसमें भौगोलिक, भाषिक, सांस्कृतिक, सामाजिक विलक्षणता भी देखने को मिलता हैं अर्थात (वसुधैंव कुटुंबकम्) की भावना में होते हुए भी भारतीय संविधान के रूप में नजर आता हैं फिर भी कभी-कभी अतिवादी मानसिकता, स्वा अहम की भावना, संकीर्ण सोच ,व्यक्तिगत हठधर्मिता, जनमानस को सोचने के लिए विवश कर देती हैं इस व्यापक लोकतंत्र में भी कानून के रक्षक /भक्षक दिखाई पड़ते हैं किन्तु दोनों का समन्वय ही एक ज्वलंत उदाहरण हाल ही में प्रस्तुत किया जो कि लगभग 540 वर्षों का पुराना विवाद न्यायपालिका सुलझा देता हैं जिसमें व्यवस्थापिका पूर्णं रूप से लोकतंत्र की भावना से, न्यायपालिका को सुरक्षा देती हैं और जनमानस की सेवा में अपना पूर्ण योगदान देती हैं यह देखते हुए कहना शायद गलत होगा कि कानून के रक्षक ही भक्षक हैं बल्कि यह कहना उचित होगा कि दोनों एक ही सिक्के के दो अलग-अलग पहलू होते हुए भी एक हैं भक्षक कम रक्षक सौ फ़ीसदी हैं अतः यह मानना उचित नहीं कि कानून के रक्षक ही भक्षक हैं ।।" 
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रेशमा त्रिपाठी
प्रतापगढ़ (उत्तर प्रदेश)

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ताना (आलेख) - बलजीत सिंह

ताना 
(आलेख)
खेल के मैदान में जब दो खिलाड़ी खेलते हैं ,उनमें से एक की जीत तथा दूसरे की हार निश्चित होती है । किसी भी कारण अगर एक खिलाड़ी घायल हो जाए, उसे खेल से बाहर कर दिया जाता है ।परंतु जिंदगी के मैदान में हार- जीत होती रहती है ।इसमें वही घायल होता है ,जिस पर ताना कसा जाता है ।

वह तीखी बात ,जो हमारे स्वाभिमान को ठेस पहुंचाए, उसे ताना या व्यंग्य कहते हैं ।जब कोई व्यक्ति किसी को ताना देता है, यह दो अक्षरों वाला शब्द उसके दो जहान को हिलाकर रख देता है ।यह कड़वा सच है, इसका सामना सभी को करना पड़ता है ।

दौड़ते हुए रथ का एक पहिया निकलकर अलग हो जाए ,वह रथ वहीं पर चक्कर काटकर रुक जाएगा । इसी प्रकार जब व्यक्ति के मन में कोई बात चुभ जाती है ,उसकी स्थिति भी रथ के निकले पहिये के समान होती हैं । उसके मन में सोच -विचार बार-बार चक्कर लगाते रहते हैं। जैसे हवा सूखे पत्तों को अपने साथ उड़ाकर ले जाती है ,वैसे ही विचार मन को कहीं और ले जाते हैं ।

नदी के बहते हुए पानी की सतह पर, अगर हम रंग करना चाहे ,हमारा प्रयास विफल हो जाएगा, क्योंकि बहते पानी में रंग घुलकर आगे चला जाता है ।इसी प्रकार मन को समझाने का कितना भी प्रयास करें , वह अतीत की यादों में खोया रहता है ।ऐसी स्थिति में व्यक्ति को अपने आप पर नियंत्रण रखना मुश्किल हो जाता है । कभी-कभी उसे अपने आप से भी नफरत होने लगती है ।

उड़ते हुए गुब्बारे से अचानक हवा निकल जाए, वह घूमता हुआ नीचे की ओर आता है । इसी प्रकार जब व्यक्ति का मनोबल टूटने लगता है, उसका हृदय भी बिना हवा के गुब्बारे के समान हो जाता है । ऐसे अवसर पर मन की स्थिति कुछ इस प्रकार होती है । जैसे : ----

बसंत में मुरझाए फूल की तरह, सावन में उड़ती धूल की तरह ।
आग से निकलते धुएं की तरह , बिना पानी के कुएं की तरह ।
जहर उगलते हुए सांप की तरह ,उबलते पानी में भाप की तरह ।
भीगे होठों में प्यास की तरह , जंगल में सूखी घास की तरह ।
शेर की डरावनी दहाड़ की तरह , सागर में बर्फीले पहाड़ की तरह ।
कटी हुई बेल की तरह , भूल भुलैया के खेल की तरह ।
पानी की सतह पर रंग की तरह , लोहे की धातु पर जंग की तरह ।
कोयले की उड़ती राख की तरह , सर्दी में फटी पोशाक की तरह ।
आंधी में भड़कती आग की तरह , बुझे हुए चिराग की तरह ।
मिट्टी की सूखी पपड़ी की तरह , जाल में उलझी मकड़ी की तरह ।
कलम से बहती स्याही की तरह , जंग में लड़ते सिपाही की तरह ।
खाल में चुभती सुई की तरह , जलती हुई रुई की तरह ।
भोजन में मिले बाल की तरह , पेड़ पर लटके छाल की तरह ।
बहती नदी में उफान की तरह , बारिश में आए तूफान की तरह ।
भीगी हुई लकड़ी की तरह , फटी हुई ककड़ी की तरह ।
टूटे हुए मीनार की तरह , पत्थर में आई दरार की तरह ।
ग्रहण लगते सूरज की तरह , पानी में डूबे नीरज की तरह ।
घाव पर लगे नमक की तरह , आसमानी बिजली की चमक की तरह ।
रेत में धंसे पांव की तरह । सुनसान हुए गांव की तरह ।
मयूर के टूटे पंख की तरह , कभी न बजने वाले शंख की तरह ।
बिना रंगों की रंगोली की तरह , फीके पानी की होली की तरह ।
पानी में पड़े गत्ते की तरह , फटे ताश के पत्ते की तरह ।
भंवर बनाती हुई झील की तरह , निशाना साधती हुई चील की तरह ।
जाल बनाती हुई रस्सी की तरह , बिना मक्खन के लस्सी की तरह ।
कान में घुसे जल की तरह , बिना छिलके के फल की तरह ।
लहराते हुए सागर की तरह , छलकते हुए गागर की तरह ‌।
हाथ से निकले तीर की तरह , टेडी़ -मेडी़ लकीर की तरह ।

जल में रहने वाली मछली को कभी-कभी मगरमच्छ का सामना करना पड़ता है । उसी प्रकार जब व्यक्ति घर के आंगन से बाहर निकलता है , उसे भी जमाने की निगाहों का सामना करना पड़ता है । इस दुनिया में वे लोग भी रहते हैं , जिनके पास व्यंग्य- रुपी हथियार हैं । इन हथियारों के प्रभाव से व्यक्ति की आत्मा बंजर हो जाती है , जो मरते दम तक हृदय को तड़पाती रहती है ।
-०-
बलजीत सिंह
हिसार ( हरियाणा )
-०-

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◆ फ़टी जेब (कविता) - अलका 'सोनी'◆

◆ फ़टी जेब ◆
(कविता)
कल शाम को
घर आते वक़्त
गिर गए ख्वाब कई
मेरी फ़टी जेब से।
अधूरे सपनों की गिन्नियों
को कब से सम्हाले
चल रही थी।


पूरे कर लूंगी किसी दिन
फुरसत पाकर
जीने की इस आपाधापी से।
भूल चुकी थी कि जेब में भी
सुरक्षित नहीं रहते ख्वाब।
अगर तुरपाई समय पर
ना करो तो फिसल सकते हैं
अनमोल सपने भी।


अब उन अधूरे सपनों
को पूरा करने का
हौसला और जुनून
दिल में जगाना
होगा फिर से।
स्वयं के देखे सपने भी
याद रखने होंगे।
तभी हम पा सकेंगे
उत्कर्ष जीवन में।-०-
अलका 'सोनी'
मधुपुर (झारखंड)




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डाकिया (लघुकथा) - वाणी बरठाकुर 'विभा'

डाकिया
(लघुकथा) 
निर्मला एकांत मन से ब्रीफकेस से निकली हुई चिट्ठी पढ़ रही है । "दादी...दादी, क्या पढ़ रहे हो? मुझे भी दिखाइए! " सात वर्षीय पोते अभिज्ञान ने जिज्ञासा भरी नजरों से चिट्ठी देखकर निर्मला से पूछा । निर्मला ने जवाब दिया, "ये तेरे दादा जी की चिट्ठी थी । आज इस ब्रीफकेस में से निकली ।" अभिज्ञान उत्सुकता से बोल पड़ा "ये चिट्ठी क्या होती है दादी ? दादा जी भी तो अब भगवान् के पास हैं ।" "सुनो चिट्ठी क्या है, मैं तुम्हें बताती हूँ । तुम अब तुम्हारे पिताजी के साथ कैसे बात करते हो, बताओ ?" निर्मला ने पूछा। अभिज्ञान ने झट से जवाब दिया, पापा तो मुझे रोज वीडियो काॅलिंग करते हैंऔर मुझे कुछ चाहिए तो मैं पापा को फोन करके बोल देता हूँ ।" "अब जैसे तुम्हारा पापा दूर रहता है, ठीक उसी तरह तुम्हारे दादा जी भी दूर रहकर नौकरी करते थे। लेकिन मैं, तुम्हारा पापा और बुआ दादाजी को फोन नहीं करते थे । उस जमाने में फोन नहीं था, तो खबरें कागज पर लिखकर भेजी जाती थी । उसे चिट्ठी कहते हैं ।" निर्मला समझाने लगी । "वो कागज कौन लाकर देते हैं , दादी ?" अभिज्ञान ने सवाल किया । सवाल सुनते ही निर्मला हंस कर बोलने लगी "वाह, तुम ने तो बहुत अच्छा सवाल किया! वो कागज पहले लिखनेवाला लेटर बक्स में डालता है । डाक ऑफिस फिर उसे अपने अपने पते के डाकघरों में भेज देते हैं । डाकघर से डाकिया घर घर चिट्ठी देकर जाता है ।" अभिज्ञान को उसकी माँ ने खाना खाने के लिये बुलाया तो वो खाना खाने चला गया ।
निर्मला फिर से चिट्ठी को देखने लगी । उसकी याद ताजा हो गई । उस समय तिनसुकिया से उसके यहाँ तबादला होकर एक डाकिया आया था । अक्सर वो चिट्ठी देने से पहले निर्मला से कहता है, "बाइदेउ , बुरा मत मानिए आज कुछ देर हो गई । चेकनी चुक के प्रमिला बाइदेउ को चिट्ठी पढ़कर सुनाना पड़ा ।" सच में डाकिया को भी कितने कष्ट सहने पड़ते हैं। दूर-दूर तक साइकिल से जाकर चिट्ठी देना, कोई अनपढ़ हो तो उसे पढ़कर सुनाना । ऊपर से घर से इतनी दूर आकर नौकरी करना । निर्मला को खगेन महन्त का गाना याद आ गया और अपने आप गुनगुनाने लगी....
चिट्ठियों का बोझ पीठ पर लादकर 
दूसरों के प्यार बाँटता हूँ मगर
मेरी प्यारी कैसी है उसका पता नहीं
बीते दिनों में छोड़ आया, नन्हें ने 
तुतलाते हुए कहा था 
पिताजी, जल्दी आना...
आते वक्त खिलौने लाना....
-०-
वाणी बरठाकुर 'विभा'
शोणितपुर (असम)

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