डाकिया
(लघुकथा)
निर्मला एकांत मन से ब्रीफकेस से निकली हुई चिट्ठी पढ़ रही है । "दादी...दादी, क्या पढ़ रहे हो? मुझे भी दिखाइए! " सात वर्षीय पोते अभिज्ञान ने जिज्ञासा भरी नजरों से चिट्ठी देखकर निर्मला से पूछा । निर्मला ने जवाब दिया, "ये तेरे दादा जी की चिट्ठी थी । आज इस ब्रीफकेस में से निकली ।" अभिज्ञान उत्सुकता से बोल पड़ा "ये चिट्ठी क्या होती है दादी ? दादा जी भी तो अब भगवान् के पास हैं ।" "सुनो चिट्ठी क्या है, मैं तुम्हें बताती हूँ । तुम अब तुम्हारे पिताजी के साथ कैसे बात करते हो, बताओ ?" निर्मला ने पूछा। अभिज्ञान ने झट से जवाब दिया, पापा तो मुझे रोज वीडियो काॅलिंग करते हैंऔर मुझे कुछ चाहिए तो मैं पापा को फोन करके बोल देता हूँ ।" "अब जैसे तुम्हारा पापा दूर रहता है, ठीक उसी तरह तुम्हारे दादा जी भी दूर रहकर नौकरी करते थे। लेकिन मैं, तुम्हारा पापा और बुआ दादाजी को फोन नहीं करते थे । उस जमाने में फोन नहीं था, तो खबरें कागज पर लिखकर भेजी जाती थी । उसे चिट्ठी कहते हैं ।" निर्मला समझाने लगी । "वो कागज कौन लाकर देते हैं , दादी ?" अभिज्ञान ने सवाल किया । सवाल सुनते ही निर्मला हंस कर बोलने लगी "वाह, तुम ने तो बहुत अच्छा सवाल किया! वो कागज पहले लिखनेवाला लेटर बक्स में डालता है । डाक ऑफिस फिर उसे अपने अपने पते के डाकघरों में भेज देते हैं । डाकघर से डाकिया घर घर चिट्ठी देकर जाता है ।" अभिज्ञान को उसकी माँ ने खाना खाने के लिये बुलाया तो वो खाना खाने चला गया ।
निर्मला फिर से चिट्ठी को देखने लगी । उसकी याद ताजा हो गई । उस समय तिनसुकिया से उसके यहाँ तबादला होकर एक डाकिया आया था । अक्सर वो चिट्ठी देने से पहले निर्मला से कहता है, "बाइदेउ , बुरा मत मानिए आज कुछ देर हो गई । चेकनी चुक के प्रमिला बाइदेउ को चिट्ठी पढ़कर सुनाना पड़ा ।" सच में डाकिया को भी कितने कष्ट सहने पड़ते हैं। दूर-दूर तक साइकिल से जाकर चिट्ठी देना, कोई अनपढ़ हो तो उसे पढ़कर सुनाना । ऊपर से घर से इतनी दूर आकर नौकरी करना । निर्मला को खगेन महन्त का गाना याद आ गया और अपने आप गुनगुनाने लगी....
चिट्ठियों का बोझ पीठ पर लादकर
दूसरों के प्यार बाँटता हूँ मगर
मेरी प्यारी कैसी है उसका पता नहीं
बीते दिनों में छोड़ आया, नन्हें ने
तुतलाते हुए कहा था
पिताजी, जल्दी आना...
आते वक्त खिलौने लाना....
-०-
वाणी बरठाकुर 'विभा'
शोणितपुर (असम)
-०-
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