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Thursday, 12 December 2019

‘क्या? कानून के रक्षक ही भक्षक हैं' (आलेख) - रेशमा त्रिपाठी

‘क्या? कानून के रक्षक ही भक्षक हैं'
(आलेख)
" भारत देश की वर्तमान न्यायव्यवस्था में विगत कुछ ही दिनों में जिस तरह से उभरते हुए मामले सामने आए हैं वह विचारणीय हैं यह घटना वहाॅ॑ की हैं जहाॅ॑ देश की सर्वोच्च न्यायपालिका स्थापित हैं और समूचा लोकतंत्र न्याय के लिए वहाॅ॑ तक का दरवाजा खटखटाता हैं (नई दिल्ली तीस हजारी कोर्ट का मामला) सामने आया लोकतंत्र यह सोचने को मजबूर हो गया की विधि और कानून के रक्षक ही यदि भक्षक बनते हुए नजर आते हैं तब भारत की लोकतांत्रिक व्यवस्था जहाॅ॑ अग्रिम पंक्ति में खड़ी दिखाई देती हैं वहाॅ॑ के जनमानस किस पर विश्वास करें जो स्वयं में ही एक नया इतिहास लिखने को तैयार खड़ा हैं उसी के बीच देश की कुछ परिपक्व लोकतंत्र की घटनाएं कभी-कभी ऐसे सामने आ जाती हैं कि न्यायपालिका, के न्याय और व्यवस्थापिका की व्यवस्थाओं पर प्रश्न खड़ा करती हैं जो कि न्यायपालिका को ही शर्मसार कर देती हैं जब अग्रिम पंक्ति के लोग इस तरह की मानसिकता से नहीं ऊपर उठ पा रहे हैं तो आम जनमानस किस तरह न्याय की उम्मीद करें? और किससे !कभी-कभी यह प्रश्न सोचने पर विवश कर देता हैं यद्यपि कि भारत की लोकतांत्रिक व्यवस्था समान रूप से न्यायपालिका, व्यवस्थापिका साथ –साथ चलती दिखाई देती हैं फिर भी कुछ अराजक मानसिकता के लोगों के कारण स्वयं को अराजकता में समेटे हुए ,अभद्र मानसिकता वाले लोगों के कारण जैंसा कि (तीस हजारी कोर्ट की घटना) सामने आयी हालांकि कोई पहली घटना नहीं थी यह लेकिन प्रशासनिक एवं न्यायिक व्यक्तियों का एक दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप जनमानस की भावना एवं उनकी सुरक्षा पर प्रश्न जरूर खड़ा करती हैं जो लोकतंत्र का परिचायक बनता हैं भारत एक लोकतांत्रिक देश हैं यहाॅ॑ पर यद्यपि कि कभी-कभी कुछ घटनाएं लोकतंत्र को शर्मसार करने वाली हो जाती हैं किंतु यह मानना उचित नहीं की न्यायव्यवस्था पूर्ण रूप से ध्वस्त हो चुकी हैं या लोकतंत्र को सुरक्षित करने में समर्थ नहीं हैं आवश्यकता इस बात की हैं कि मर्यांदित रूप में भारत की लोकतांत्रिक व्यवस्था में विश्वास करने वाले लोगों को वे जो कानून और प्रशासन को भलीभांति समझते हैं उन्हें मर्यादित रूप से अपने कार्य प्रणाली में सुधार करने की आवश्यकता हैं जिससे जनमानस में जागृत असंतोष की भावना न्यायव्यवस्था पर उठते प्रश्न पर एक सार्थक एवं व्यवस्थित छवि के रूप में लोकतंत्र के पटल पर स्थापित हो सकें । जिससे कानून व्यवस्था, प्रशासनिक व्यवस्था एवं लोकतंत्र सुचारू रूप से चलता रहे निरंतर ...
क्योंकि कभी-कभी छोटी-छोटी घटनाएं ही बहुत कुछ सोचने को विवश करते हुए शर्मसार भी करती हैं साथ ही इस भूमंडलीकरण के दौर में हमें अन्य देशों के सामने आलोचनाओं का शिकार भी होना पड़ता हैं जबकि भारत का लोकतंत्र सदैव से सामाजिक परिपाटी से परिपूर्ण संवैधानिक रूप में रहा हैं जहाॅ॑ लोकतांत्रिक व्यवस्था भले ही कुछ कमजोर एवं दबी हुई हो किन्तु सामाजिक समरसता की भावना चरम पर स्थापित रहा हैं बस आवश्यकता इस बात की हैं कि बिना किसी आशंका या दोषारोपण के एक दूसरे पर किए स्वयं में न्यायव्यवस्था आत्ममंथन करें। अन्यथा जनमानस कानून के रक्षक ही भक्षक समझ बैठेंगा ।
क्योंकि भारत के लोकतंत्र में न्यायपालिका और कार्यपालिका का टकराव नया नहीं है फिर भी न्यायिक सक्रियता के कुछ मामले अक्सर भारत में सबसे अधिक लोकतंत्र को मजबूत करते हुए सामने आते हैं किन्तु कानून के तथाकथित जानकार जानें –अनजानें उसे अपने हाथ में ले बैठते हैं भारत का संविधान दुनिया के उन विशिष्टतम॒ संविधानों में से एक हैं जो (सर्वधर्मं समभाव) की भावना से लिपटा हुआ हैं यद्यपि की सभी को समान रूप से संवैधानिक दायरे में रहकर सभी व्यक्तियों के लिए मूलभूत व्यवस्थाओं की जिम्मेंदारी और जीवन जीने का अधिकार भारतीय संविधान के नीति निर्देशक तत्व भाग 3 में वर्णित किया गया हैं साथ ही आदर्श राज्य की परिकल्पना भी की गई हैं जो भारतीय संविधान को सर्वोत्तम के शिखर पर परिलक्षित करता हैं भारत बहुआयामी, बहुभाषी संस्कृतियों का देश हैं जिसमें भौगोलिक, भाषिक, सांस्कृतिक, सामाजिक विलक्षणता भी देखने को मिलता हैं अर्थात (वसुधैंव कुटुंबकम्) की भावना में होते हुए भी भारतीय संविधान के रूप में नजर आता हैं फिर भी कभी-कभी अतिवादी मानसिकता, स्वा अहम की भावना, संकीर्ण सोच ,व्यक्तिगत हठधर्मिता, जनमानस को सोचने के लिए विवश कर देती हैं इस व्यापक लोकतंत्र में भी कानून के रक्षक /भक्षक दिखाई पड़ते हैं किन्तु दोनों का समन्वय ही एक ज्वलंत उदाहरण हाल ही में प्रस्तुत किया जो कि लगभग 540 वर्षों का पुराना विवाद न्यायपालिका सुलझा देता हैं जिसमें व्यवस्थापिका पूर्णं रूप से लोकतंत्र की भावना से, न्यायपालिका को सुरक्षा देती हैं और जनमानस की सेवा में अपना पूर्ण योगदान देती हैं यह देखते हुए कहना शायद गलत होगा कि कानून के रक्षक ही भक्षक हैं बल्कि यह कहना उचित होगा कि दोनों एक ही सिक्के के दो अलग-अलग पहलू होते हुए भी एक हैं भक्षक कम रक्षक सौ फ़ीसदी हैं अतः यह मानना उचित नहीं कि कानून के रक्षक ही भक्षक हैं ।।" 
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रेशमा त्रिपाठी
प्रतापगढ़ (उत्तर प्रदेश)

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