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Sunday, 15 December 2019

आत्ममंथन (लघुकथा) - महावीर उत्तराँचली

आत्ममंथन
(लघुकथा)
“सम्पूर्ण विश्व में मेरा ही वर्चस्व है,” भूख ने भयानक स्वर में गर्जना की।
“मै कुछ समझी नहीं,” प्यास बोली।
“मुझसे व्याकुल होकर ही लोग नाना प्रकार के उद्योग करते हैं। यहाँ तक कि कुछ अपना ईमान तक बेच देते हैं,” भूख ने उसी घमंड में चूर होकर पुन: हुंकार भरी, “निर्धनों को तो मै हर समय सताती हूँ और अधिक दिन भूखे रहने वालों के मैं प्राण तक हरण कर लेती हूँ। अकाल और सूखा मेरे ही पर्यायवाची हैं। अब तक असंख्य लोग मेरे कारण असमय काल का ग्रास बने हैं।”
यकायक मेघ गरजे और वर्षा प्रारम्भ हुई। समस्त प्रकृति ख़ुशी से झूम उठी। जीव-जंतु। वृक्ष-लताएँ। घास-फूस। मानो सबको नवजीवन मिला हो! शीतल जल का स्पर्श पाकर ग्रीष्म ऋतु से व्याकुल प्यासी धरती भी तृप्त हुई। प्यास ने पानी का आभार व्यक्त करते हुए, प्रतिउत्तर में “धन्यवाद” कहा।
“किसलिए तुम पानी का शुक्रिया अदा करती हो, जबकि पानी से ज़्यादा तुम महत्वपूर्ण हो?” भूख का अभिमान बरक़रार था।
“शुक्र है मेरी वज़ह से लोग नहीं मरते, ग़रीब आदमी भी पानी पीकर अपनी प्यास बुझा लेते हैं। क्या तुम्हें भी अपना दंभ त्यागकर अन्न का शुक्रिया अदा नहीं करना चाहिए?”
प्यास के इस आत्म मंथन पर भूख हैरान थी।•••
पता: 
महावीर उत्तराँचली
दिल्ली
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ईमानदारी (आलेख) - शिप्रा खरे

ईमानदारी
(आलेख)
फोटो खींचते समय किसी का फ्रेम में ना आ पाना और किसी को फ्रेम से जानबूझ कर बाहर कर देना या फिर स्वयं अच्छा बनने के लिए सामने वाले को बुरा बना कर प्रदर्शित करना दोनों अलग अलग बातें हैं। किसी से बिना सोचे समझे कुछ गलत हो जाए तो यह गलती नहीं लेकिन अगर किसी की मंशा गलत हो तो और वह ऐसा काम करे तो यह ठीक नहीं। कितने ही लोग किसी का करीबी बनकर उनके मन की थाह लेकर अपने फायदे के लिए दूसरों से चुगली करते हैं। कितने ही लोग खुद को सही साबित करने के लिए दूसरे को गलत साबित करने की कोई कसर नहीं छोड़ते। तो ऐसे लोगों को याद रखना चाहिए कि जब वे खुद ईमानदार नहीं रहे तो किसी दुसरे को बेईमान कहने का हक उन्हें किसने दिया है। ऐसे कामों का बुरा प्रभाव कहीं ना कहीं उस व्यक्ति के जीवन पर ज़रूर पड़ता है। उस समय वह ईश्वर को उलाहना देते हैं। हमारे द्वारा किये जाने वाले कार्य ही अच्छे और बुरे का परिणाम ले कर आते हैं।
आज के दौर में लोगों के अंदर से ईमानदारी और बर्दाश्त खत्म हो गई है। एक दूसरे की भावनाओं को समझना तो दूर एक दूसरे की बातें तक नहीं समझना चाहता कोई। ज़रा ज़रा सी बातों में अहम को बीच में लाना और मनमुटाव शगल बन गया है। कोई यह जानने तक का प्रयास नहीं करना चाहता कि घटित घटनाओं के पीछे क्या कारण है। भाईचारा लगभग खत्म हो गया है और तेरा-मेरा तक सीमित होते जा रहे हैं हम सभी। इन सभी का कारण भी कहीं ना कहीं इर्द गिर्द जमा वह लोग होते हैं जो व्यक्तिगत स्वार्थ सिद्धि के लिए अपने आप को आप का हितैषी और दूसरों को आपका शुभचिंतक ना होना बताते रहते हैं। समाज भौतिक रूप से विकसित और वैचारिक रूप से अविकसित दिखाई दे रहा है।
सूरज के ढलने पर अंधेरा बहुत खुश हो जाता है फूला नहीं समाता है। वह ये कतई भूल जाता है कि सूरज कहीं और उजाला फ़ैला रहा होता है उस वक़्त । किसी की राह में रोड़े अटकाए जाने पर जीवट राही नया रास्ता बना लेते हैं। वो किसी बात का मलाल नहीं करते हैं बल्कि रोशनी की तरफ कदम बढ़ा लेते हैं।
आज हम ये मानना ही नहीं चाहते कि हमारे अलावा कोई और भी कुछ अच्छा कर सकता है। सराहना तो दूर की बात है हम अलग अलग तरह से उनकी आलोचना करने में लग जाते हैं। हमे अपना कद बड़ा और अपने आगे सब बौने नजर आते हैं। लेकिन ऐसा करते वक़्त हमे ये ध्यान ही नहीं रहता कि हम अकेले भी होते जाते हैं।
इसलिए किसी से जलिए मत और ना ही इस जलन का धुआं अपनी आंखों में भरने दीजिए। अगर आप ऐसा करेंगे तो साफ कभी नहीं देख पाएंगे। आपको चेहरे, परछाई और परछाई, चेहरे की तरह नजर आने लगेंगे। इसलिए हमे अपने दिल की सुनने के साथ ही साथ बुद्धि और विवेक का इस्तेमाल भी करना चाहिए ताकि किसी की आड़ लेकर कोई खुद का हित ना साध सके और आप खुद को ठगा हुआ ना महसूस करें। खुद के साथ ईमानदार रहकर सत्य को स्वीकार करना और हर किसी के अस्तित्व का सम्मान करना सीखिए।
ईमानदारी बनाए रखिए....
पता- 
शिप्रा खरे
लखीमपुर (उत्तरप्रदेश)

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नई मोहब्बत (कविता) - राजीव डोगरा


नई मोहब्बत
(कविता)
पुरानी तस्वीरों के साथ
कुछ नए जज्बात लिखूंगा,
जो तूने
सोचा भी नहीं था कभी
वो हर चीज
अपनी तकदीर में लिखूंगा।
छोड़ दूँगा उन
हाथों की लकीरों को देखना
जो मेरी
तकदीर में नहीं।
खुदा का फकीर बन
हर चीज उससे मांग कर
अपने नसीब में लिखूंगा।
छोड़ दूंगा लोगों से
मोहब्बत की
दर-दर भीख मांगना।
इश्क कर उस रब से
मोहब्बत को उसकी
अपने नाम लिखूंगा।
-०-
राजीव डोगरा
कांगड़ा हिमाचल प्रदेश
-०-




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जान बची तो लाखों पाये (बालकहानी) - डॉ. सुधा गुप्ता 'अमृता'


जान बची तो लाखों पाये
 (बालकहानी)

मटरू चूहा बिल्कुल अपने नाम के अनुरूप ही था । उसकी माँ मटककली उसे रोज प्यार से समझाती , बाहर इस तरह घूमने से सौ तरह के खतरे हैं । पर , मटरू हँसते हुए कहता - खतरों से खेलना तो मेरा शौक है , घूमो - फिरो मस्ती से , डर - डरकर भी क्या जीना ? मटककली कहती - डर - डरकर नहीं , किन्तु संभल - संभलकर चलना मेरे प्यारे मटरू । बिल्ली मौसी , कुत्ता चाचा , सर्प दादा , तो कहीं चील मौसी , कौए भाई और तो और रामे बुआ दिन भर यही सोचती हैं कि हम कब उनके झांसे में आ जायें और उनके पिंजड़े में फंस जाएं । वैसे तो ये सब अपंनी - अपनी जगह सही हैं किन्तु , हमारी तो जान के दुश्मन हैं । मटरू उछल - कूद करता हुआ कहता - ठीक है माँ , संभल - संभलकर चलूँगा । रामे बुआ के झांसे में नहीं आऊंगा । मटककली कहती - खूब समझदारी से काम लेना , हरियल तोते की तरह रट्टू मत बनना । उसे खूब सिखाया गया था , शिकारी आता है , जाल फैलाता है , दाने बिखेरता है , हमें जाल में नहीं फंसना चाहिए । किन्तु वह दानों की लालच में फंस ही गया था । मटरू फिर उछला , रामे बुआ पिंजड़ा रखेंगीं , मुझे उसमें नहीं फंसना है । मटककली बोली - हाँ ठीक है , होशियार रहना । मटककली को नींद आ रही थी , वह बिल में जाकर सो गई । किन्तु , नटखट मटरू को नींद कहाँ ? वह तो दिन में सोकर नींद पूरी कर लेता और रात में ऊधम - मस्ती करता । कहाँ क्या खाने को रखा है , क्या काटना है , क्या कुतरना है , बस इसी धमाचौकड़ी में लगा रहता ।
इन दिनों उसे कुछ अजीब शौक लग गया था । वह रामे बुआ की ड्रेसिंग टेबल पर क्रीम - पावडर की खुशबू का आनंद उठाने लगा था । फेसक्रीम की डिब्बियों में अपने नुकीले दांतों से छेद कर लेता , क्रीम की खुशबु में नहाता फिर फेस पावडर के डिब्बे में छेद करके उसकी खुशबू पूरे शरीर पर लपेट लेता । एक दिन तो उसने क्रीम का लेप लगाया ही था कि फेस पावडर उस पर गिर गया और वह काले चूहे से सफ़ेद चूहा दिखने लगा । आईने में अपना चेहरा देखकर वह बहुत प्रसन्न हुआ । इतने में ही रामे बुआ ने प्रवेश किया । वह चूहे को देखकर घबरा गईं - अरे बाप रे , सफ़ेद चूहा ! फिर अपनी ड्रेसिंग टेबल पर नजर दौड़ाई , उन्हें समझते देर न लगी । क्रीम पावडर के सारे डिब्बे छिद्रयुक्त हो गये हैं । पूरी ड्रेसिंग बिखरी पड़ी है । उन्होंने ठान लिया , अब इस मटरू की खैर नहीं । मटरू काले से सफ़ेद होकर अपनी माँ के पास बिल में घुसा तो वह भी घबरा गई । मटरू बोला - खुशबू में नहाओ माँ और आराम से सोओ ।
रामे बुआ ने ड्रेसिंग के पास ही रात में पिंजड़ा रख दिया और उसमें बढ़िया मीठी गुड़ की रोटी का टुकड़ा फंसा दिया । फिर आराम से सो गईं । मटरू आया , मीठी गुड़ की रोटी देखकर उसके मुंह में पानी आ गया । पहले तो उसने जी भर खुशबू का आनंद लिया फिर खाने के लिए लपक पड़ा । फिर क्या था , फंस गए मटरू राम पिंजड़े में । तब माँ की सीख - सिखावन याद आई । किन्तु अब पछताये होत क्या ? सबेरा हुआ , रामे बुआ ने सबसे पहले अपनी ड्रेसिंग टेबल का मुआयना किया और पिंजड़े में फंसे मटरू राम को देखकर उछल पड़ीं । अब आया ऊंट पहाड़ के नीचे । मजा आया मटरू ? खूब तूने मेरा नुक्सान किया है , अब चल मेरे घर से दूर , समझे । रामे बुआ ने पिंजड़ा उठाया और घर से थोड़ी दूर ले जाकर पिंजड़ा खोल दिया । फिर वापस आ गईं ।
मटरू ने इधर - उधर देखा , बिल्ली मौसी पास में बैठी थी । वह मटरू पर लपक पड़ी और उसे मुंह में दबाने वाली ही थी कि कुत्ता उस पर झपट पड़ा । मटरू बिल्ली के मुंह से छूट गया । वह भाग ही रहा था कि ऊपर से उड़ती चील ने झपट्टा मारकर मटरू को पकड़ लिया और उड़ चली । तभी एक दूसरी चील ने उस पर झपट्टा मारा तो मटरू नीचे गिरा धड़ाम से एक बगीचे की मखमली घास पर । उसने राहत की सांस ली ही थी कि बगीचे में छिपा सर्प बाहर आया और मटरू को दबोच लिया । तभी पेड़ के पीछे से नेवला निकला और उसने सर्प पर हमला बोल दिया । सर्प और नेवले की लड़ाई में सर्प के मुंह से मटरू छूट गया और वह बेतहासा भागा .... भागा ,,,,,भागा और भागकर अपनी माँ के पास बिल में घुस गया । वह जोर - जोर से हांफ रहा था , बोला - ' जान बची सो लाखों पाये ' । माँ मटककली ने कहा - ' लौट के बुद्धू घर को आये ' । माँ बेटे दोनों गले से लिपट कर प्यार करने लगे ।
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डॉ. सुधा गुप्ता 'अमृता'
(राष्ट्रपति पुरस्कार से सम्मानित)
दुबे कालोनी , कटनी 483501 (म. प्र.)
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हर तरफ हरियाली (कविता) - ज्ञानप्रकाश 'पीयूष'

हर तरफ हरियाली
(कविता)

बरसात के बाद की धरती
देखने लायक
उदासी बिल्कुल गायब
आँखों में आशा की चमक
दिये की दिवाली-सी
अनुपम निराली
फैली हर तरफ़ हरियाली
सुना रही सत्य-कथा
क़ामयाबी की,
नहीं जाली।
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पता-
ज्ञानप्रकाश 'पीयूष'
सिरसा (हरियाणा)
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