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Monday 28 September 2020

बादल (कविता) - मुकेश कुमार 'ऋषि वर्मा'

 

बादल
(कविता)
कभी जो थे मासूम से सूने-सूने बादल |
अब दिखा रहे तरह-तरह के रंग बादल ||

झमा-झम-झम झड़ी लगा रहे |
तड़ा-तड़-तड़ बिजली चमका रहे ||

कभी छोटीं तो कभी बड़ीं-बड़ीं बूंदें |
सुन गड़-गड़ की ध्वनि बच्चे आँखें मूंदें ||

जब जोर-शोर से बरसे पानी |
छतरी खोल बाहर निकले नानी ||

सर-सर-सररर हवा चले पुरवाई |
टीनू-मीनू ने कागज की नाव चलाई ||

बागों में नन्हीं-नन्हीं कलियां मुस्काई |
मेढ़क दादा ने टर्र-टर्र की टेर लगाई ||

कीट-पतंगों के जीवन में बहार आयी |
खेतों में चहुंदिशि हरियाली छायी ||

कीचड़ की लपटा-लपटी से बेहाल |
मामाजी की बदल गई है देखो चाल ||

वर्षा रानी आती हैं, थोड़ी-बहुत समस्या लाती हैं |
पर धरती के जीवन में नव प्राण भर जाती हैं ||
-०-
मुकेश कुमार 'ऋषि वर्मा'
फतेहाबाद-आगरा. 
-०-

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वर्षा गीत (कविता) - शाहाना परवीन

वर्षा गीत
(कविता)
घुमड़- घुमड़ कर बदरा आये,
मेरे घर- आँगन में छाए।
मेरी अंखियन तक- तक जाए।
तुम कब आओगे सजनवा?

अब तो आ जाओ सजना,
बागों में पड़ गए झूले।
अँबुआ की डाल पर कोयल,
मतवाली होकर बोले।

मेरी अंखियन तक- तक जाए।
तुम कब आओगे सजनवा?

सखियन से करूँ ना मै बात,
लागे ना मोरा जिया सजना आए याद।
बदरा भी अब तो घिर आए,
पवन मंद- मंद मुसकाएं।

मेरी अंखियन तक- तक जाए।
तुम कब आओगे सजनवा?
पता -
शाहाना परवीन
मुज़फ्फरनगर (उत्तर प्रदेश)
-०-


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चेहरे पर मुस्कान (लघुकथा) - आर्या झा

 


प्रियंवदा

(लघुकथा)
आज सुबह दरवाजा खोला तो बाहर गुलाबो खड़ी मिली। वह हमारे पड़ोस के घर में काम करती थी। हमेशा हँसते रहने वाली आज बड़ी घबराई दिखी। उसके मुँह से आवाज़ नहीं निकल रही थी। मेरा हाथ पकड़ कर लगभग खींचती हुई अपने साथ ले गई। सामने जो नजारा था वह दिल दहलाने वाला था।

आंटी जी सोफे पर अधलेटी थी। गर्दन एक ओर झुक आया था। उन्हें देखकर एकबारगी मेरा दिल भी काँप गया। डरते-डरते उनके नजदीक पहुँची तो महसूस किया कि शरीर तप रहा था। मैंने हिम्मत कर उन्हें झकझोरा। मुझे घर आई देख कर वह थोड़ी सचेत हुईं।

"अरे आंटी! आपको तेज बुखार है। निशा कहाँ है?" "आज कमल का जन्मदिन है ना! वह दोनों अनाथाश्रम गए हैं।" "ओह! आपको दवा देनी होगी। नाश्ता किया आपने?" " दीदी ब्रेड - बिस्किट रख गईं हैं पर माँ जी खा नहीं रहीं !"गुलाबो बोली। "अरे! ऐसे कैसे? दिन के बारह बज रहे हैं। तूने कुछ बनाया नहीं?" "आज सभी बाहर ही लंच करने वाले हैं। मुझे खिचड़ी बनाने के लिए कह गईं हैं। माँ जी ना तो ब्रेड खाने तैयार हैं और ना हीं खिचड़ी। दीदी का फोन नहीं लग रहा था इसलिए आपको बुला लाई।"

"अच्छा किया। चल मेरे साथ।" मैंने आलू परांठे,टमाटर की चटनी व चावल की खीर बनाई थी। आंटी ने खुश होकर खा लिया। एक पैरासिटामोल खिला कर उन्हें सुला दिया। थोड़ी देर बैठ कर उनका माथा सहलाती रही। जब तापमान गिरा तो वापस आ गई।  एक कनेक्शन सा महसूस हो रहा था। उनके बारे में सोचती हुई सोफे पर सो गई। अचानक नींद खुली तो देखा कि निशा का स्टेटस बदल गया था। शहर के सबसे बड़े होटल में खाते हुए दोनों लव -बर्डस लग रहे थे। घर वापस लौट कर मुझसे मिलने आई और आंटी का ख्याल रखने के लिए बहुत धन्यवाद दिया। आज की अपनी अनाथाश्रम से लेकर फाइव-स्टार होटल तक का सफ़र बताती हुई बेहद उत्साहित थी।  उसके जाने के बाद अकेली बोर होने लगी तो फेसबुक खोला। निशा ने निन्यानवे फोटोज अपलोड किये थे। एक- एक बच्चे के साथ तस्वीर डाली थी। हाथों में ब्रेड-बिस्किट केे साथ खिलखिलाते मासूम बच्चे बहुत प्यारे लग रहे थे पर उन सभी तस्वीरों पर भारी वह सौवीं तस्वीर थी जो मेेरी आँखों में कैद थी। उसकी तस्वीरों पर चंद घंटों में ही दो सौ लाइक और सौ कमेंट आ गए थे जो कि दंपत्ति की दरियादिली की तारीफों में थे, पर मेरे हृदय में बसी तस्वीर में जीवंतता थी। मेरा साथ पाकर खुश हो आई आंटी के चेहरे पर एक आत्मसंतुष्टि थी और एक विश्वास भी कि वह अकेली नहीं हैं। किसी बुजुर्ग के चेहरे पर मुस्कान लाकर मुझे भी अच्छा लगा था।
-०-
आर्या झा
हैदराबाद (तेलंगाना)

-०-

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