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Monday 10 February 2020

गुंडे (कहानी) - विवेक मेहता


गुंडे
(कहानी)
यह कोई कहानी नहीं है। आप चाहे तो इसे घटना समझिए या दुर्घटना का विवरण मात्र मानिए। आप इसे मसालेदार चाट समझकर चटकारे भी ले सकते हैं, और चाहे तो कड़वी कुनैन भी मान सकते हैं। सब कुछ आप पर निर्भर है अब।

मेरे लिए तो यह मात्र घटना नहीं रही। यदि घटना मात्र ही रही होती तो मैं मानसिक रूप से उत्तेजित नहीं होता, और यह बात इस रूप में आपके सामने नहीं आती। खैर छोड़िए भी इन बातों को पूरा विवरण जानने के लिए चलिए मेरे साथ एक छोटे से कस्बे में।

बढ़ते हुए पेट्रोल के दामों के कारण बस यात्रा तो महंगी दर महंगी होती जा रही है। रेल यात्रा ही ठीक रहेगी। इसलिए रेलवे स्टेशन से ही शुरु करते हैं।

स्टेशन के सामने, दाई और बड़ी सी बिल्डिंग देख रहे है ना आप! वह है आर्ट और साइंस कालेज। उसके पास वाली बिल्डिंग पॉलिटेक्निक की है। थोड़ा सा और आगे बढ़ेंगे तो पाएंगे होम साइंस की विंग। यह पॉलिटेक्निक के अंतर्गत आती है। आगे आइए आगे चलते हैं। चौराहा पार करते ही सौ कदम पर पुलिस थाना आता है। उसके सामने यानी आपके बाई और पॉलिटेक्निक की पुरानी बिल्डिंग है। यहां आजकल प्रैक्टिकल ही होते हैं। बिल्डिंग खत्म होते ही फिर चौराहा आ जाता है। सीधी सड़क बस स्टैंड की ओर जाती है। बाई और कॉमर्स कॉलेज का प्रवेश द्वार है। इनके बीच में हॉस्टल, नगर पालिका और पोस्ट ऑफिस की बिल्डिंग आ जाती है। इस सड़क से हटकर प्रोफेसर क्वार्टर्स बने हैं। थोड़ा और अंदर जाएंगे अन्य लोगों के बंगले, मकान, दुकाने, बैंक आदि पाएंगे।यह तो हुआ इस शहर का भूगोल। थोड़ा सा इतिहास भी जानकर आगे बढ़े।

स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद इस शहर को बसाया गया। जर्मन आर्किटेक्चर के निर्देशन अनुसार।इसी कारण सड़कें समकोण बनाती सीधी और साफ दिखलाई पड़ती है। धोती लोटा लेकर आने वाले विस्थापितों को बसाने के लिए यह शहर बसाया गया। आजकल वे लोग लक्ष्मी से खेलने लगे। फिर भी इस शहर की शान तो यह कालेज ही हैं। यह कालेज एक ट्रस्ट के द्वारा संचालित होते हैं। जिसके संचालक हैं श्री चौहान।

बूढ़े खूसट, गंजे से श्री चौहान की धाक है। वह इन सभी कालेजों पर एकछत्र राज करते हैं। पढ़े-लिखे बुद्धिजीवियों को वह अपनी उंगलियों पर नचाते हैं। आखिर नचाए भी क्यों नहीं, अर्थ की डोर जो थामें है। बिना 'अर्थ' के तो कोई अर्थ नहीं निकलता। लोग उन्हें आदर या डर के कारण दादा भी कहते हैं। अपने जमाने में वे रसिक रहे। और आज भी नौकरी देने के बहाने या नौकरी परमानेंट करने के बहाने कमसिन कन्याओं का शिकार करने में से नहीं चूकते, ऐसा लोग कहते हैं। बंदर बुड्ढा भी हो जाए तो छलांग लगाना थोड़े ही भूल जाता है।

कॉलेज के प्रोफेसरों को वे लोन, प्रमोशन, क्वार्टर्स का अंकुश लगा-लगा कर नियंत्रित करते हैं। कोई उनके नियंत्रण में नहीं आता तो वे अन्य हथकंडे अपनाते हैं। मसलन किसी छात्र नेता से किसी प्रोफेसर को गालियां दिलवा देते हैं। किसी के विरुद्ध शिकायत करवा देते। किसी की इज्जत का जनाजा निकलवा देते।

इन कार्यों के लिए सुरिंदर उनका प्रिय पट्ठा माना जाता था। थुल थुला शरीर। दाढ़ी। फुले-फुले गालों के कारण सिमटी-सिकुडी सी आंखें उसे थोड़ा सा क्रुर बना देती थी। उसमें हिम्मत,जोश है। बुद्धि तो उसकी वैसी ही मोटी है जैसा उसका शरीर। यह तो आप समझ ही गए होंगे।

सुरिंदर तो बस नाम का ही छात्र है। कालेज में तो बस वह घूमने फिरने आता है। अपने दो नंबर के धंधे से उसे फुर्सत मिले तो कक्षा में बैठे। पास होने की उसकी कभी तमन्ना नहीं रही। पास होने पर कॉलेज से बाहर होना पड़ता और बाहर रहकर छात्रों पर पकड़ नहीं बनाई जा सकती।

सही समझा आपने।नंबर दो के धंधे से मेरा तात्पर्य चरस, गांजा, अफीम, शराब और अन्य नशीले पदार्थों से ही है। वह इन पदार्थों की केवल सप्लाई करता हैं। उसे आप खुदरा व्यापारी कह सकते हैं। उसे यह सब पदार्थ बाबूजी के द्वारा मिलते हैं। बाबूजी का वरद हस्त उसकी पीठ पर हैं। नहीं तो 20-22 वर्ष का लौंडा यह सब काम कर ले! पुलिस के सामने बाबूजी का नाम कवच का काम करता है।

स्वाभाविक है आपके मन में प्रश्न उठे कि बाबूजी बला क्या है? बाबूजी, सफ़ेदपोश राजनेता है।'जिधर दम, उधर हम' वाली पॉलिसी पर विश्वास रखते हैं। देश के दूसरे दर्जे के राजनीतिज्ञों की तरह वह कभी विधायक बन जाते हैं, तो कभी मंत्री, कभी किसी निगम के अध्यक्ष, तो कभी सड़क पर आ जाते। सरकारी अफसरों से उनके अच्छे संबंध हैं। आखिर हो क्यों नहीं, वे उनका ट्रांसफर करवाने में; उनके विरुद्ध जांच करवाने में सक्षम जो है। प्रदेश सचिवालय में उनकी अच्छी पकड़ है। वे बिचौलिए का काम भी करते हैं और इस काम में अच्छा-खासा कमा लेते हैं। हथकंडे अपनाने में बाबूजी कम नहीं। एक बार तो चुनाव के समय सत्ताधारी पार्टी की इमेज गिराने के लिए उन्होंने सुरिंदर का सहारा लेकर शहर के कॉलेजों में लंबी हड़ताल करवा दी थी। बाबूजी की कारण तब दादा और सुरिंदर पहली बार टकराए थे। दादा ने तभी महसूस किया था लड़का गया हाथ से।

उस चुनाव में सत्ताधारी पार्टी में बाबूजी आ गए थे। इस कारण सुरिंदर का प्रभाव भी बढ़ गया था।दादा उस वक्त उसका सर कुचलने में असमर्थ थे।

बाबूजी के राजनीतिक प्रभाव के कारण तस्करी का धंधा जोरों पर था। सुरिंदर भी उसी में व्यस्त हो गया। आप तो जानते ही हैं कि कोई भी गैरकानूनी धंधा पुलिस जैसी संगठित शक्ति के सहयोग यह बिना नहीं हो सकता। बाबूजी भी इस काम में उनका सहयोग लेते थे। ऊपर से लेकर नीचे तक सभी को उनकी औकात अनुसार लिफाफे भिजवा देते थे। सब कुछ ठीक चल रहा था कि थोड़ी परेशानी आ गई। इलाके में आए नए इंस्पेक्टर का पेट कुछ ज्यादा बड़ा था। बाबूजी उसे ज्यादा खिला सकते थे, मगर इससे अन्य लोगों की आदत बिगड़ने का डर था। सही भी है 'बुढ़िया के मरने का दुख किसे होता है, दुख तो इस बात का होता है कि मौत ने घर देख लिया'। बाबूजी ने 'कुछ' करने का निर्णय लिया।

और वे कुछ करने के लिए ऊपर जाकर चर्चाएं करने लगे। इंस्पेक्टर को भी समाचार मिलते रहे। समझाईशे भी। कहीं ऐसी जगह ट्रांसफर कर दिए जाओगे जहां खाने को कुछ नहीं मिलेगा।जितना मिलता है उतने में संतोष करो। मगर अडियल रहा। उल्टे उसने एक दो छोटे छापे मारकर बाबूजी को चेतावनी भी दे दी कि अभी भी समय है वर्ना बड़ा नुकसान हो जाएगा।

बाबूजी तो ठहरे राजनेता। कूटनीति खेली। ऊपर से शांत दिखलाई पड़ने लगे। मानो हार मान ली हो। भारी लिफाफा भिजवा कर समझौता कर लिया। ऐसा लगने लगा कि स्थिति सामान्य हो गई हो परंतु ऐसा था नहीं। तूफान आया। इंस्पेक्टर रंगे हाथों रिश्वत लेते हुए पकड़ा गया। उसे नौकरी से बर्खास्त कर दिया गया। उसे रिश्वत कौन दे रहा था? सुरिंदर! रिश्वत देने का कारण बतलाए गया छात्रों के आपस के झगड़े में सुरिंदर के विरुद्ध रिपोर्ट न लिखना। सांप भी मर गया था और बाबू जी की लाठी भी सलामत रही।

दादा से सुरिंदर के संबंध बिगड़ने लगे थे। ऊपर से इस्पेक्टर भी दुश्मन बन गया था। जाते-जाते सुरेंद्र को धमकी दे गया था एक बार फिर यहां आऊंगा चाहे, लाख रुपए खर्च हो फिर देख लूंगा तुझे! इस कांड के बाद से बाबूजी के सितारे भी ज्यादा दिनों तक चमकते नहीं रह पाए। दलीय राजनीति में उठापटक हुई। बाबूजी का गणित गड़बड़ा गया। वह जिसे मजबूत गढ़ समझ रहे थे वह ढह गया। मुख्यमंत्री हाईकमान के आदेश से सत्ताच्युत हो गए। बाबू जी को भी आदेश, चेतावनी मिल गई कि शवासन लगा ले। कहीं भी किसी भी मामले में सक्रियता दिखलाई तो उनके विरुद्ध जांच आरंभ करवा दी जाएगी। बाबूजी का सारा प्रभामंडल इस धमकी के कारण सिमट सा गया। बेचारे सुरिंदर की क्या औकात! ना समझी की उम्र में सुरिंदर अपने खोल में न घुसा।

बाबूजी का प्रभाव घटते ही पुराना इंस्पेक्टर वापस इलाके में आ गया। मछली के फसने का इंतजार करने लगा। दादा ने बोये तो बबूल ही थे तो उन्हें कांटे ही मिलना थे। एक दिन होम साइंस विंग के पास लड़कियों के सामने सुरिंदर ने दादा को गालियां दी। उनके चरित्र को उघाड़ कर रख दिया। लड़कियां हंसती रही। समाचार जानकर प्रोफेसर भी खुश हुए। चलो जैसे को तैसा मिला। दादा उस वक्त खून के आंसू पीकर रह गए।

प्राइवेट कालेज की मैनेजमेंट का सर्वे सर्वा तो देश के प्रधानमंत्री से भी बड़ा होता है। घायल शेर खतरनाक हो उठा। प्राचार्य को आदेश मिल गया कि सुरिंदर अब कालेज में नहीं रहेगा। उसे निष्कासित किया जाए और उसके विरुद्ध कार्रवाई की जाए। दादा पुलिस इंस्पेक्टर से भी मिल चुके थे।चाय पानी का आश्वासन भी दे चुके थे। जिसकी वैसे कोई आवश्यकता नहीं थी। इंस्पेक्टर तो वैसे भी खार खाए बैठा था। कब सुरिंदर फंसे और उसे मजा चखाये। दादा तो काम पक्का चाहते थे।

द्रोणाचार्य के वंशज प्राचार्य अपनी परंपरा को छोड़ना नहीं चाहते थे। उन्होंने दांवपेच खेलना शुरू किया। एक पुराने केस को पुनः खोला। पुराना दंड न भरने के कारण दो छात्रों को निष्कासित कर दिया गया। उन्होंने जैसा अनुमान लगाया था, सब कुछ वैसा ही हुआ। कॉलेज में हड़ताल हो गई। हड़ताल करवाने में सुरिंदर कुछ ज्यादा ही सक्रिय रहा। रूटीन के मुताबिक प्राचार्य ने स्टाफ मीटिंग बुलवाई। मीटिंग के दौरान वे स्थिति बतलाते रहे। एक बार भी उन्होंने सुरिंदर का नाम नहीं लिया। उनके दाएं-बाएं ने सुझाव दिया कि हड़ताल सुरिंदर के कारण है इसलिए कार्रवाई करना है तो सुरिंदर के विरुद्ध की जाए। न की छूट भईया नेताओं के। उनका यह प्रस्ताव सर्वसम्मति से स्वीकार कर लिया गया। दोनों छात्रों का निष्कासन रद्द कर दिया गया। प्राचार्य की कूटनीति काम कर गई।

उसी शाम, जब मैं घूमने निकला तो पान की दुकान पर मुझे बताया गया कि सुरिंदर को पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया। हथकड़ियां पहना कर उसे कस्बे में घुमाया गया। चौराहों पर डंडे मारे गए। गिरफ्तारी का कारण प्राचार्य और प्रशासन की पुलिस में की गई रिपोर्ट थी जिसमें उन्होंने उस पर कॉलेज में तोड़ फोड़, दादा गिरी और होस्टल में चोरी का आरोप लगाया था।

इस रिपोर्ट के कारण तो दंड संहिता की रोजमर्रा की सामान्य धाराएं लगती है। फिर भी उसे हथकड़ी पहनाई गई। उसका भाग्य अच्छा था जो उसे गधे पर नहीं बिठाया गया, मुंह काला नहीं किया गया। यह सब भी संभव था क्योंकि उसके पीछे द्रोणाचार्य के वंशज प्राचार्य की कूट नीति, पैसे वाले प्रशासक का रोष और अमानवीय इंस्पेक्टर का द्वेष काम कर रहा था। सत्ता का साया उठ गया था। इस कारण यह सब भी आराम से हो सकता था।

इंस्पेक्टर का रोष- द्वेष इतना करने से भी शांत नहीं हुआ। दूसरे दिन जब कॉलेज शुरू होते, जिंदगी में हलचल होती तब तक सुरिंदर को हथकड़ी पहनाकर पुलिस ने थाने के बाहर खड़ा कर दिया गया। समीप ही पुलिस वाला डंडा लेकर खड़ा था। इंस्पेक्टर कुर्सी पर बैठा था। सुरिंदर दंड बैठक लगा रहा था। स्वतंत्र भारत का सूरज उस दिन कुछ धुंधलापन लिए था। उससे ज्यादा चमक तो इंस्पेक्टर के चेहरे पर थी, जिसे कभी रिश्वतखोरी के आरोप में सुरिंदर ने फँसाया था। इस घटना के बारे में जानते हुए भी बाबूजी अपने खोल में दुबके हुए थे। उनके लिए निश्चित रूप से सुरेंद्र से ज्यादा महत्व आलाकमान की धमकी का था।

एक बार तो मेरी इच्छा हुई कि बड़ी मछलियों के मुंह से छोटी मछली को बचाने का प्रयास करुं। मगर यह विचार अधिक समय तक जहन में टिक नहीं पाया। लगा जिन्हें मैं बड़ी मछलियां समझ रहा हूं वे तो मगरमच्छ है। कहीं सुरिंदर के साथ मुझ जैसे कीड़े मकोड़े को भी न निगल जाए!

शायद यही विचार पूरे कस्बे वालों का था। छात्रों का था,पत्रकारों का था। इस घटना का विरोध किसी ने भी नहीं किया।

मगरमच्छ सम्मिलित शक्ति से भी ज्यादा शक्तिशाली होते हैं। शायद यही विचार आपके भी है अन्यथा…...-0-
पता:
विवेक मेहता
आदिपुर कच्छ गुजरात

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