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Sunday, 12 January 2020

■ युवा देश के जाग रहे हैं ■ (कविता) - अलका 'सोनी'

■ युवा देश के जाग रहे हैं ■
(कविता)
प्रगति का ध्वज
हाथों में लेकर
धरती से अम्बर की
दूरी माप रहे हैं
युवा देश के
जाग रहे हैं
जोश से इनके
डरकर
दुर्दिन देश के
भाग रहे हैं।
चुनौतियां हो
कितनी भी
कब घबरा कर
वो भाग रहे हैं।
तकनीक को
उंगलियों पर नचाते
नई सोच से देश
सजाते
जननी का न
दूध लजाते
भाग देश के इनसे
जाग रहे हैं।
नए सन्धानों
की खोज में तत्पर
कितनी रातों से
जाग रहे हैं।
उम्मीदें है
कितनी इनसे ये
सब कुछ अब
जान रहे हैं
दर्शन में विज्ञान
मिलाकर नए
प्रयोग को
जांच रहे हैं
युवा देश के
जाग रहे हैं।
-०-
अलका 'सोनी'
बर्नपुर- मधुपुर (झारखंड)

-०-

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तिरंगा (कविता) - शिल्पी कुमारी

तिरंगा
(कविता)
तड़प- तड़प के दिल से
आह मेरी निकलती है
जब कोई हवा यहां
तेरी छुअन सी लगती है
तेरी हिफाजत को श्वास मेरी
रूक - रूक कर चलती है
मेरे दिल की गाड़ी,
छूक- छूक तेरी ओर करती है।
मीत जब तू हँसती है,
पवन संग उड़ती है,
तब तीन रंगों में क्या खूब लगती है।
काल सी तेरे माथे की बिंदिया
चौबीस है जिसमें तीलियाँ
यह जन्म, वह जन्म,
मेरा हर जन्म,
तुझ पर कुर्बान है।
तू ही तो मेरे
ताबूत की पहचान है।
-०-
पता- 
शिल्पी कुमारी
उदयपुर (राजस्थान)
-०-

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नशा मुक्ति (लघुकथा) - बजरंगी लाल यादव

नशा मुक्ति
(लघुकथा)
घर पर सेठ लक्ष्मीनारायण जी को मदिरापान करते देख आठ वर्षीय शुभम ने कहा -' पापा! मैं भी शराब पीना चाहता हूं?' 
' नहीं..! नहीं...!! यह बहुत बुरी और घातक चीज है इससे लीवर को काफी नुकसान होता है, और बेटे..! इसकी लत ऐसी होती है कि यह बड़े-बड़े राजाओं को भी रंक बना देती है...' लक्ष्मीनारायण जी ने बेटे को गोद में लेते हुए बड़े प्यार से कहा।
' तो पापा, फिर यह बेवकूफी क्यों? जब आपको पता है कि यह स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है। और यह आपको भिखारी तक बना सकता है, तो इस तेजाब का त्याग क्यों नहीं कर देतें?' शुभम ने बड़ी बेबाकी से कहा। अपने आप को हारता देख लक्ष्मीनारायण जी ने कहा- 'ठीक है बेटे! कल पहली जनवरी से मैं शराब को हाथ भी नहीं लगाऊंगा...'
' पापा, कल किसने देखा है? यह शुभ कार्य आज ही क्यों नहीं कर देते हैं?' इस बार शुभम ने पापा को अपनी बातों में फंसा लिया था। सेठ लक्ष्मीनारायण जी ने शराब को फर्श पर बिखेरते हुए शुभम के माथे को चूम लिया और सभी प्रकार के व्यसनों को तिलांजलि देते हुए आजीवन संकल्प लिया कि कभी नशा नहीं करूंगा।

-०-
पता:
बजरंगी लाल यादव
बक्सर (बिहार)
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ये औरतें (कविता) - जगदीश 'गुप्त'


ये औरतें
(कविता)
गोबर के कंडे थाप रहीं
गांव की औरतें
जंगल से लकड़ी काटकर
चूल्हा सुलगाती गांव की औरतें
अपने सुख को दरकिनार कर
गृहस्थी चला रही ये औरतें

एक रु. किलो गेंहू
दो रु. किलो चांवल की
सौगात पाकर
दारू गांजा पीकर मदहोश मुखिया
इनके मर्द होने का रौब सहती औरतें

घर - घर बरतन मांजती
शहर की अनपढ़ औरतें
नौनिहालों को छाती से लगाये
लोरी गाकर सुलाती फिर
चूना - गारे के काम पर लग जाती
शहर की अनपढ़ औरतें

खेतों में खलिहानों में
कल - कारखानों में
कोयले की खदानों में
पत्थर तोड़ती क्रेशर मशीनों पर
काम करती अनपढ़ औरतें
स्नेह की परिभाषा जानती हैं
परिवार को सँवारने का
अपना शरीर होम करने का
हुनर जानती हैं

जमीन बिछौना आसमान ओढ़ना
प्रकृति के साथ तालमेल कर
खुश रहना जानती हैं
बेटा - बेटी दोनों को प्यार से सहेजकर
स्कूल पहुँचाना जानती हैं
ये अनपढ़ औरतें !

-०-
जगदीश 'गुप्त'
कटनी (मध्यप्रदेश)

-०-


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ज्ञान (कविता) - सुमति श्रीवास्तव


ज्ञान
(कविता - सरसी छंद में )

जीवन नाव बहे संग वारि ,
आयी है मझधार ।
पार करो प्रभु नाव हमारी,
कर दो बेडा़ पार।
दिखे नही है राह कहीं पर ,
सुनो विनय भगवान ।
द्वार खडे़ तेरे हम मूरख ,
दे दो विद्या दान।
मंगल गान करे नर नारी ,
दीप जलाये ज्ञान।
साक्षरता जब ज्योति बने ,
मिटे सभी अज्ञान ।
बिना ज्ञान के मानव लगता ,
एक पशु समान।
ज्ञान मिले तब मानव बनता ,
पाता है सम्मान
-०-
सुमति श्रीवास्तव 
जौनपुर (उत्तरप्रदेश)



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वक्त (कविता) - पता: गीतांजली वार्ष्णेय

वक्त
(कविता)
एक सत्य है,एक भेद है,
पर वक्क्त का भेद अभेद है,
आज बुरा कल भला वक्क्त है।
न रुका है,न रुकेगा,वक्क्त का खेल बड़ा सख्त है।।
वक्क्त ने पलट दिए सम्राटों के तख्त हैं।
न उड़ाओ हँसी वक्क्त की बुरा वक्त है।
हँसी उड़ाई द्रोपदी ने वक्क्त की,
महाभारत रच दी करनी वक्क्त की।
अहंकार न कर अच्छे वक्क्त पर,
कल क्या पता वक्क्त क्या दिखायेगा।
रावण ने किया अहंकार वक्क्त का,
न रहा रावण,जल गई लंका स्वर्ण की।
"एक लाख पुत्र सवा लाख नाती, त रावण घर दिया न वाती"कहावत बन गयी वक्क्त की।
धन दौलत सब पड़ा रह जायेगा,अंत समय जब आएगा,न पूछेगा ,न बताएगा जब वक्क्त तेरा आएगा।।
-०-
पता:
गीतांजली वार्ष्णेय
बरेली (उत्तर प्रदेश)
-०-
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