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Tuesday, 19 November 2019

अनहोनी (लघुकथा) - श्रीमती सरिता सुराणा

अनहोनी
(लघुकथा)
" मम्मी - मम्मी ! इस बार तो हमारे यहाँ राजा भैया ही आएगा ना । मैं उसके साथ खूब खेलूंगी ।" झूमते हुए नन्ही शालू ने अपनी मम्मी के गले में अपनी सुकोमल बांहें डाल दी ।
"आपसे ये किसने कहा बेटे ? " मम्मी ने पूछा ।"
" वो सुबह दादी मां पापा से कह रही थी कि इस बार बहू के राजा बेटा ही होना चाहिए ।अगर फिर लङकी हुई तो उसका एबॉर्शन करवा देंगे ।मम्मी - मम्मी ये एबॉर्शन क्या होता है ? "
" कुछ नहीं बेटा " - कहकर प्रिया ने शालू को कसकर अपनी छाती से चिपका लिया ।एक बार फिर किसी अनहोनी की आशंका से वह अन्दर तक कांप गई ।
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श्रीमती सरिता सुराणा
हैदराबाद (तेलंगाना)
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पाप का भागी (लघुकथा) - डॉ. प्रदीप कुमार शर्मा

पाप का भागी
(लघुकथा)
"राम-राम पंडित जी।"
"राम-राम सरपंच जी।"
"पंडित जी, रहने दीजिए। आप क्यों झाड़ू लगा रहे है। मैं स्वीपर बुलाया हूँ। वह कल सुबह आकर सफाई कर देगा। आप यूँ सफाई करेंगे, तो हमें पाप चढ़ेगा।"
"सरपंच जी, स्वीपर अपने टाइम पर आएगा सफाई करने। आज के रथ यात्रा में लगे मेले के कारण यहाँ बिखरे पड़े ये प्लास्टिक के बॉटल, कैरी बैग्स और पेपर-प्लेट्स, जिनमें खाने-पीने की चीजें लगी हैं, तुरंत न हटाएँ, तो निरीह जानवर इन्हें खाकर बीमार पड़ सकते हैं। मर भी सकते हैं। उसका पाप नहीं लगेगा हमें ?"
"ओह, हाँ, ये तो मैंने सोचा ही नहीं। रुकिए, मैं भी एक झाड़ू लेकर आता हूँ।"
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पता: 
डॉ. प्रदीप कुमार शर्मा
रायपुर (छत्तीसगढ़)

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बच्चे हैं भविष्य (गीत) - अख्तर अली शाह 'अनन्त'

बच्चे हैं भविष्य
(गीत)
बच्चे हैं भविष्य अनदेखी ,कभी न उनकी पीर रहे।
स्वर्णिम भारत की नजरों में सुंदर सी तस्वीर रहे ।।

बच्चे ही कल युवा बनेंगे ,युवा देश निर्माता हैं ।
अच्छे बच्चे ही तो अच्छे देश के जीवनदाता हैं ।।
संस्कारित बच्चों का होना इसलिए आवश्यक है
पढ़ना लिखना पोषण पाना बच्चों का लोगों हक है ।।
गलत राह पर चले ना जाएं अच्छी हर तासीर रहे।
स्वर्णिम भारत की नजरों में सुन्दर सी तस्वीर रहे ।।

जीवन जीने का हक उनका पहला हक कहलाता है।
बच्चे ही हैं नींव समझ क्यों हमें नहीं ये आता है ।।
इनका पोषण लालन पालन देश की जिम्मेदारी है।
पूर्व जन्म के इन्हें मारना बहुत बड़ी गद्दारी है ।।
ये होंगे तो भारत होगा कायम ये जागीर रहे ।
स्वर्णिम भारत की नजरों में सुंदर सी तस्वीर रहे।।

है विवाद संरक्षण के हित मात पिता में दुखदाई ।
कौन रिक्तता भर पाएगा कौन कहो पाटे खाई ।।
बच्चों के कल्याण के खातिर त्याग जरूरी करें।
सभी बच्चों को हानि न पहुंचे परम पिता से डरे सभी ।।
पुख्ता बच्चों के खातिर नित रक्षा की प्राचीर रहे ।
स्वर्णिम भारत की नजरों में सुन्दर सी तस्वीर रहे।।

है मौलिक अधिकार पढ़ाई भूल गए दुःख पाएंगे।
पैरोकार अंधेरों के जो ,सूरज कहाँ उगाएंगे ।।
"अनंत" शिक्षा से कतरा कर लोगों सफल नहीं होंगे ।
होगी कहां तरक्की बोलो क्या हम विकल नहीं होंगे।।
काट अंधेरा देता सूरज बनकर जब शमशीर रहे ।
स्वर्णिम भारत की नजरों में सुन्दर सी तस्वीर रहे ।।
-0-
अख्तर अली शाह 'अनन्त'
नीमच (मध्यप्रदेश)
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माँ का मर्म (लघु कथा) - आकांक्षा यादव

माँ का मर्म
(लघु कथा)
”बधाई हो! घर में लक्ष्मी आई है!” कहते हुए नन्हीं सी बिटिया को दादी की गोद में देते हुए नर्स बोली। 
”हुँह..... क्या खाक बधाई! पहली ही बहू के पहली संतान...... वो भी लड़की हुई और वो भी सिजेरियन।” कहते हुए उन्होंने मुँह फेर लिया और उस नन्हीं सी जान पर स्नेह की एक बूँद भी बरसाने की जरूरत नहीं समझी प्रीती की सासू माँ ने। जल्द ही अपनी गोद हल्की करते हुए बच्ची को बढ़ा दिया अपने बेटे की गोद में।
रवि को तो जैसे सारा जहांँ मिल गया अपने अंश को अपने सामने पाकर। पिछले नौ महीने कितनी कल्पनाओं के साथ एक-एक पल रोमांच के साथ बिताया था प्रीती और रवि ने। खुशी के आँसू के साथ दो बूँदें टपक पड़ी नन्हीं सी बिटिया पर।
कुछ दिनों के अंतराल पर अस्पताल से डिस्चार्ज होने के बाद जब घर जाने की तैयारी हुई तो प्रीती फूले न समा रही थी। पिछले नौ महीनों से जिस घड़ी का इंतजार वह कर रही थी, आज आ ही गई। अपनी गोद भरी हुई पाकर जब प्रीति ने घर में प्रवेश किया तो मारे खुशी के उसके आँसू बहने लगे। वह इस खुशी के पल को संँभालने की कोशिश करने लगी। 
हँसते-खेलते ग्यारह दिन कैसे बीत गये, पता ही नहीं चला। लेकिन सासू माँ का मुँह टेढ़ा ही बना रहा। प्रीति चाहती थी कि दादी का प्यार उस नन्हीं सी जान को मिले, लेकिन उसकी ऐसी किस्मत कहाँ ? जब बारहवें दिन बरही-रस्म की बात आयी तो सासू माँ को जैसे सब कुछ सुनाने का अवसर मिल गया और इतने दिन का गुबार उन्होंने एक पल में ही निकाल लिया।
”......कैसी बरही, किसकी बरही, बिटिया ही तो जन्मी है। हमारे यहाँ बिटिया के जन्म पर कोई रस्म-रिवाज नहीं होता.... कौन सी खुशी है जो मैं ढोल बजाऊँ, सबको मिठाई खिलाऊँ.... कितनी बार कहा था जाँच करा लो, लेकिन नहीं माने तुम सब। लो अब भुगतो, मुझे नहीं मनाना कोई रस्मोरिवाज......।”
सासू माँ की ऐसी बात सुनकर प्रीति का दिल भर आया। रूँधे हुए गले से बोली, ”सासू माँ! आज अगर यह बेटी मेरी गोद में नहीं होती तो कुछ दिन बाद आप ही मुझे बांँझ कहती और हो सकता तो अपने बेटे को दूसरी शादी के लिए भी कहतीं जो शायद आपको दादी बना सके, लेकिन आज इसी लड़की की वजह से मैं माँ बन सकी हूँ। यह शब्द एक लड़की के जीवन में क्या मायने रखता हैं, यह आप भी अच्छी तरह जानती हैं। आप उस बांँझ के या उस औरत के दर्द को नहीं समझ सकेंगी, जिसका बच्चा या बच्ची पैदा होते ही मर जाते हैं। ये तो ईश्वर की दया है सासू माँ, कि मुझे वह दिन नहीं देखना पड़ा। आपको तो खुश होना चाहिए कि आप दादी बन चुकी हैं, फिर चाहे वह एक लड़की की ही। आप तो खुद ही एक नारी हैं और लड़की के जन्म होने पर ऐसे बोल रही हैं। कम से कम आपके मुँह से ऐसे शब्द शोभा नहीं देते सासू माँ।” इतना कहते ही इतनी देर से रोके हुए आँसुओं को और नहीं रोक सकी प्रीती।
प्रीती की बातों ने सासू माँ को नयी दृष्टि दी और उन्हें अपनी बातों का मर्म समझ में आ गया था। उन्होंने तुरन्त ही बहू प्रीती की गोद से उस नन्हीं सी बच्ची को गोद में ले लिया और अपनी सम्पूर्ण ममता उस पर न्यौछावर कर उसको आलिंगन में भर लिया। 
शायद उन्होंने इस सत्य को स्वीकार लिया कि लड़की भी तो ईश्वर की ही सृष्टि है। जहाँ पर नवरात्र के पर्व पर कुंवारी कन्याओं को खिलाने की लोग तमन्ना पालते हैं, जहाँ दुर्गा, लक्ष्मी, काली इत्यादि देवियों की पूजा होती है, वहाँ हम मनुष्य ये निर्धारण करने वाले कौन होते हैं कि हमें सिर्फ लड़का चाहिए, लड़की नहीं। 
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आकांक्षा यादव
लखनऊ (उत्तरप्रदेश)
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चाचा नेहरू (कविता) - प्रज्ञा गुप्ता


चाचा नेहरू 
(कविता)
14 नवंबर का दिन है आया,
चाचा नेहरू की यादें लाया,
बच्चों का यह दिवस प्यारा,
लाल गुलाबों की यादें लाया,
फूलों का कहलाता राजा,
चाचा नेहरू के मन अति भाया,
कांटों की सेज पर है खिलता,
फिर क्यों कर यह खूब महकता?
बच्चों कभी ना तुमने पूछा,
तुमसे हमसे यह है कहता-
‘कठिनाइयों से कभी न डरना,
संघर्षों की सरिता तरना,
जग में बनो सबसे न्यारा,
तुमको अपना देश बनाना,
चाचा के सपनों का भारत,
तुमको है साकार बनाना।’
-०-
प्रज्ञा गुप्ता
बाँसवाड़ा, (राज.)

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