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Wednesday, 6 May 2020

ठीक नहीं है (ग़ज़ल) - राघवेंद्र सिंह 'रघुवंशी'

ठीक नहीं है
(ग़ज़ल)
हर वक्त तेरा दुनिया में झुकना ठीक नहीं है,
ठोकर खाकर फिर ठोकर खाना ठीक नहीं है।

औकात उन्हें उनकी बतला दो अब रघुवंशी,
हरदम नफरत पे प्यार जताना ठीक नहीं है।।

जो वक्त बदलते बदल जाए वह ठीक नहीं है,
ऐसे लोगों से दिल का लगाना ठीक नहीं है।

दौलत खातिर जो मंदिर सा दिल तोड़ जाए,
इंसान जहां में रघुवंशी वो ठीक नहीं है।।
ऐसे लोगों को लिख जाना भी ठीक नहीं है,
इन लोगों के घर आना जाना भी ठीक नहीं है।

इतने भोले मत रहो जहां से सीखो कुछ तुम,
क्योंकि ये जमाना रघुवंशी अब ठीक नहीं है।।
-०-
कवि 
राघवेंद्र सिंह 'रघुवंशी'
-०-

***
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दिल के अल्फ़ाज़ (कविता) - दीपिका कटरे

दिल के अल्फ़ाज़
(कविता)
मेरी हर सुबह मैं वो हैं,
मेरी हर श्याम मैं वो हैं,
तुम्हें कैसें बताऊँ मैं,
मेरी हर रात मैं वो हैं।

मेरे दिल की हैं धड़कन वो ,
मेरे साँसों की तड़पन वो,
तुम्हें कैसें दिखाऊँ मैं,
मेरे चेहरे का दर्पण वो।

मेरे ख़्वाबों का राजा वो,
मेरे मन का नवाँजा वो,
तुम्हें कैसें बताऊँ मैं,
मेरे मंदिर का ख़्वाजा वो,

मेरे होठों की लाली वो,
मेरे कानों की बाली वो,
तुम्हें कैसें दिखाऊँ मैं,
मेरे बगियाँ का माली वो।

मेरे आँखो का पानी वो,
मेरी बहकी जवानी वो,
तुम्हें कैसें बताऊँ मैं,
मेरे दिल की कहानी वो।
-०-
पता:
दीपिका कटरे 
पुणे (महाराष्ट्र)

-०-

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रोजगार (कविता ) -डॉ . भावना नानजीभाई सावलिया


रोजगार
(कविता )
मेरा रोजगार है विभिन्न भावों का ।
जो हरते हैं जीवन के अभावों को ।।
नहीं है इसमें किसी भी प्रकार का सौदा !
बस पनपते हैं सिर्फ अपनेपन का पौधा !!
यहां पर प्रेम का बाजार नहीं लगता !
इसे नहीं दामों से खरीदा जा सकता !!
नहीं उसे नापा तोला जा सकता है !
इसे तो सिर्फ दिल से पाया जाता है ।
पूरे विनय , विवेक और आदर्श से
प्रेम भरते हैं हृदय में रंगीन भावों से ।
विभिन्न खट्टे मीठे रसों का भी रोजगार है ।
निस्वार्थ स्नेह से मधुरापान का कारोबार है ।
सभी धर्म जाति को पीने का अधिकार है ।
यहां धोखा, ईर्ष्या, द्वेष भाव को धिक्कार है ।।
एक बार आकर देखो और मेहसूस कीजिए।
कोई शुल्क नहीं है सिर्फ सिर झुका के लीजिए ।।
खिल जायेगा सारा जीवन ।
महक जायेगा सारे आलम का दामन ।।
मेरा रोजगार है विभिन्न भावों का।
जो हरते हैं जीवन के अभावों को ।।
-०-
पता:
डॉ . भावना नानजीभाई सावलिया
सौराष्ट्र (गुजरात)

-०-

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*मजदूर या मजबूर* (ग़ज़ल) - प्रशान्त कुमार 'पी.के.'

*मजदूर या मजबूर*

(ग़ज़ल) 

पसीने की कमाई से वो अपना घर बनाता है।
धनी कोई न जाने क्यों हंसी उसकी उड़ाता है।

हथौड़े, फाबड़े, से यन्त्रों का उससे अजब रिश्ता,
वो रातोदिन सदा जगकर पसीना खूँ बहाता है।।

सँजोता दिल में अरमाँ वो सुबह से शाम तक लगकर,
मकां खुद का न बना पाए मगर सबका बनाता है।।

करे औलाद की खातिर कठिन श्रम जाँ लगाकर वो,
ठिठुरता स्वयं पर उनको रजाई में सुलाता है।।

रुलाती जिंदगी की कशमकश "पी.के." उसे हर पल ।
स्वजन की खुशियों की खातिर वो निज आँसू छिपाता है।।
-०-
पता -
प्रशान्त कुमार 'पी.के.'
हरदोई (उत्तर प्रदेश)
-०-

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