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Saturday 3 October 2020

तेरा आना जाना हुआ (गीत) - राघवेंद्र सिंह 'रघुवंशी'


तेरा आना जाना हुआ 
(गीत)
दिल में जब से तेरा आना जाना हुआ,
मैं तभी से तो पागल दीवाना हुआ।
था हकीकत मैं पहले जहां में सुनो,
अब महज़ मैं तो बस एक फसाना हुआ।
बनके धड़कन तुम दिल की धड़कती हो पर,
हर घड़ी फिर मुझे तुम सताती हो क्यों?
अच्छी लगती हैं तुमको जो ये दूरियां,
फिर मेरे ख्वाबों में आती जाती हो क्यों??
प्यार में तेरे मैं इस कदर खो गया,
अब तो खुद से मिले एक जमाना हुआ।
था हकीकत मैं पहले जहां में सुनो,
अब महज़ मैं तो बस एक फसाना हुआ।।
दिल में जब से तेरा आना जाना हुआ,
मैं तभी से तो पागल दीवाना हुआ..
जब तूने छोड़ा हमको मेरे हमसफर,
टूटकर सीसे सा मैं बिखरने लगा।
जख़्म तुमने मेरे दिल को इतने दिए,
मैं तेरा दर्द सहकर निखरने लगा।।
जब से गीतों में मैं तुमको लिखने लगा,
पास गीतों का मेरे खजाना हुआ।।
था हकीकत मैं पहले जहां में सुनो,
अब महज़ मैं तो बस एक फसाना हुआ।।
दिल में जब से तेरा आना जाना हुआ,
मैं तभी से तो पागल दीवाना हुआ..
-०-
पता- 
राघवेंद्र सिंह 'रघुवंशी'
हमीरपुर (उत्तर प्रदेश)

-०-

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पिंजरा (कहानी) - प्रिया वाच्छानी

पिंजरा
(कहानी)
उफ्फ्फ ...खाना बनाते-बनाते बड़ी देर हो गई आज तो। स्नेहा खुद से ही बड़बड़ाने लगी।
सिद्धि..... सिद्धि बच्चे खाना ले लो आकर मैं रोटी उतार रही हूँ। मगर सिद्धि तो कान में इयरफोन लगा कोई सीरीज देखने में व्यस्त थी। यह बच्चे भी ना कुछ नहीं सुनते, सब चीजें इनको हाथ में चाहिए 
कहते हुए खाने की प्लेट स्नेहा खुद ही ले आई।
"कितनी बार आवाज दी है तुम्हें सुनाई नहीं देता!"  सिद्धि के कान से एयरफोन निकालते हुए स्नेहा ने कहा।
"क्या हुआ !  ले लेती न मैं खुद ही खाना, जानती हो कितनी इंटरेस्टिंग सीरीज देख रही हूं।"
"तुम और तुम्हारी यह सीरीज,  भगवान ही बचाए इनसे। कभी यह नहीं होता कि मां की मदद ही कर दो।"
"यू आर वेरी स्वीट मम्मा", सिद्धि मस्का लगाते हुए मां के गले लग गई।
"ठीक है.. ठीक है ..मस्का लगाने की जरूरत नहीं, चलो खाना खा लो।"
इतने में स्नेहा के मोबाइल पर मैसेज ब्लिंक हुआ।
"क्या बन रहा है?" 
 सामने प्रणय का मैसेज देख स्नेहा की आंखों और चेहरे पर हल्की स्माइल आ गई। उस एक मैसेज के आते ही जैसे काम का सारा स्ट्रेस ही खत्म हो गया था उसके चेहरे से। स्नेहा ने मोबाइल उठा पहले जवाब टाइप किया। 'कुछ खास नहीं, बस दाल फ्राई और आलू गोभी की सब्जी'
'आलू गोभी की सब्जी !!! वाओ ...मेरी फेवरेट है।'
'तो आ जाओ खाने'
'सच !! आ जाऊं ?'
'हां, आ जाओ कह तो रही हूं।'
'अच्छा जी!!  यह जानते हुए भी कि नहीं आ सकता, मेरी जान जलाई जा रही है।'  स्नेहा मुस्कुराती हुई स्माइली भेजती है 
'ठीक है ... पूरा बदला लिया जाएगा एक साथ। ओके ...तो शाम को मिलते हैं, ठीक पांच बजे।'
'सुनो ... आज थोड़ा जल्दी नहीं हो सकता ?'
'जल्दी क्यों ? कितने बजे तक ?'
 'चार बजे तक‌।'
 'ओके तो चार बजे मिलते हैं ।'
'पर जल्दी निकल पाओगे न ? कोई दिक्कत तो नहीं होगी?'
'कोई दिक्कत नहीं होगी। मैं मैनेज कर लूंगा। एनीथिंग फॉर यू', 
और आंख मारने वाला इमोजी भेज प्रणय ऑफलाइन हो गया।
     सवा चार बजने को थे। स्नेहा बेताबी से इंतजार कर रही थी। साथ ही उसके मन में उधेड़बुन भी चल रही थी।
क्या जरूरत थी मुझे ऐसा कहने की?  मैं भी ना गधी हूं गधी .. चुप भी नहीं रह सकती.. पता नहीं प्रणय निकल पाएगा भी कि नहीं?  बेकार उसे तकलीफ दी,  चार की जगह पांच बजे निकलता तो कौन-सा पहाड़ टूट पड़ता?  पर मैं भी क्या करूं, दिल के हाथों मजबूर हो गई !! सोचा यह भी थोड़ा एक्स्ट्रा टाइम मिल जाएगा साथ बिताने के लिए।  वैसे भी हम और चाहते भी क्या हैं एक दूसरे से थोड़े से समय के अलावा !!! मगर अब तक प्रणय निकला क्यों नहीं है ? शायद कोई काम आ गया होगा। मगर ऐसा भी क्या काम ? एक दिन के लिए काम को पोस्टपोंड नहीं कर सकता क्या ? बस इतनी कदर है मेरी एक दिन एक घंटा मैनेज नहीं कर सकता ? पर वैसे बेचारा करता तो है !! जब भी जैसे भी समय मिलता है याद जरूर करता है।  खुद से ही सवाल पूछ खुद ही जवाब देने में उलझी स्नेहा बार-बार मोबाइल की तरफ देखती। इतने में मोबाइल की घंटी बजी स्क्रीन पर प्रणय का नाम देखें मन को सुकून मिला।  बिना एक पल भी गंवाए उसने झट से कॉल रिसीव की। 
स्नेहा के हेल्लो कहते ही प्रणय बोला, "सॉरी यार निकलते-निकलते बॉस ने कुछ काम दे दिया। और देर हो गई ।"
प्रणय की आवाज सुनते ही इतनी देर का गुस्सा स्नेहा भूल गयी, "कोई बात नहीं हो जाता है। मैं भी बस अभी फ्री हुई थी।"
"अच्छा जी!!! मतलब मुझे मिस न किया गया ? बेकार गया देर से निकलना... मुझे लग रहा था थोड़ी देर से जाऊंगा तो हमारा बेसब्री से इंतजार हो रहा होगा।" प्रणय ने चुटकी ली।
"अच्छा जी!! तो इसीलिए जनाब ने देर की !! ताकि उनका इंतजार किया जाए ?" स्नेहा ने भी इसी अंदाज में कहा तो दोनों हंस पड़े
 "स्नेहा, तुमसे बात करते हुए कैसे समय बीत जाता है पता ही नहीं चलता। कुछ देर के लिए सारी उलझनें, सारी परेशानियां जैसे भूल जाता हूं मैं। एक अलग ही जहान में खो जाता हूं।"
"मैं भी तो यही महसूस करती हूं ना प्रणय !! कुछ देर के लिए अपनी मर्जी से जी लेती हूं, जो चाहे कह सकती हूं तुम्हें । वह सारी बातें जो शायद दुनिया में किसी से भी नहीं बांट सकती, वह बातें तुमसे बिना हिचक के बांट लेती हूं। न जाने कैसा रिश्ता है अपना !! कोई बंधन नहीं फिर भी बंधे हुए हैं।"
 प्रणय ने गाड़ी किनारे रोक ली थी
 "मगर प्रणय ..क्या दुनिया कभी हमारे रिश्ते को समझ पाएगी ?" 
"ना समझे स्नेहा !! हमें किसी को समझाना भी नहीं। हम दोनों जानते हैं हम गलत नहीं हम दोनों समझते हैं बस इतना काफी है। तो अब इजाजत है.. चलूं मैं ?"
"जैसे मेरे कहने से रुक जाओगे !! स्नेहा ने बनावटी गुस्से से कहा 
शायद रुक भी जाऊं !!"
"अच्छा जी!! अभी जाने दो, फिर किसी दिन देखूंगी, रुकते हो या नहीं 
ओके ..बाय"
"बाय ...!" के साथ ही फोन डिस्कनेक्ट हो गया 
प्रणय गाड़ी में ही बैठा सोचता रहा
 क्या है हम दोनों का रिश्ता !! क्या दुनिया या हमारे घर वाले कभी इस रिश्ते को समझ पाएंगे ? शायद नहीं !! तभी उसका ध्यान गाड़ी में चल रहे गाने के बोलो पर गया ।
मैनू पता है दुनिया नू ..ऐ गवारा नहीं हो सकदा.... पर झूठ कह दे ने सारे कि प्यार दोबारा नहीं हो सकता..... मैं किसी और का हूं फिलहाल ....गाने के संग गुनगुनाते हुए वह आगे बढ़ गया
        रात के साढ़े ग्यारह बजने आए थे। घर के काम निपटा स्नेहा ने नींद के इंतज़ार में जब तक मोबाइल उठाया। थोड़ी देर में ही सामने प्रणय का मैसेज ब्लिंक हुआ।
सीरियल चल रहा है ? स्नेहा ने चुपके से पति की ओर देखा। उन्हें गहरी नींद में देख स्नेहा ने चैन की सांस ली। जवाब दिया, 'नहीं... सीरियल तो नहीं चल रहा .. पर क्या सीरीज भी नहीं चल रही ?'
 प्रणय ने स्माइली के साथ... सीरीज भी नहीं चल रही का मैसेज भेजा और दोनों साथ हंस पड़े।
"अब तक जाग रही हो !! सुबह जल्दी नहीं उठना क्या ?"
"बस सोने ही जा रही थी। पर आज न जाने क्यों आंखों से नींद गायब है।"
"किसने उड़ाई नींद ? जरा नाम तो बताना ?"
"क्यों किसी का नाम लेकर उसे रुसवा करूँ ? तुम क्यों नहीं सोए अब तक ?"
 मगर प्रणय अचानक ऑफलाइन हो गया। स्नेहा ने मैसेज का थोड़ी देर इंतजार किया मगर कोई मैसेज ना आया तो वह भी मोबइल बंद कर सो गई। सुबह प्रणय का सिर्फ एक मैसेज आया।
"जब तक मैं ना करूं तब तक किसी तरह से कांटेक्ट मत करना।"
 यह पढ़ स्नेहा थोड़ा सकते में आ गई। कितने सवाल एक साथ ज़हन में कौंधने लगे।
क्या हुआ होगा ? कहीं उसकी पत्नी ने तो न देख लिया मुझसे बात करते हुए ? पर उसने तो कहा था वह सो रही है। कहीं उसकी तबीयत तो खराब नहीं हो गयी ? कहीं कोई और बात तो नहीं हो गई ? हे ईश्वर !! घर में सब ठीक रखना, कोई दिक्कत न हो। इसी सोच में पूरा दिन बीत गया। पर न प्रणय का मैसेज आया ना ही कॉल। स्नेहा इंतजार के अलावा कुछ और कर भी न सकती थी। तीसरे दिन एक अनजान नंबर से फोन आता है। सामने प्रणय की आवाज सुन स्नेहा ने सवालों की बौछार लगा दी। 
"क्या बात है ? सब ठीक तो है ? क्या हो गया अचानक? तुम कहां गायब हो गए हो दो दिनों से? सोच सोच कर मैं तो परेशान हो गई । घर में सब ठीक तो है ना ?" 
आज प्रणय की आवाज में ठहराव सा था ।
"सब ठीक है स्नेहा , और कुछ भी ठीक नहीं।" 
"हुआ क्या !! यह तो बताओ ।"
"उस रात को तुम से बात करते वक्त पीछे न जाने कब मेरा बेटा आ गया । और मुझे पता ही नहीं चला। उसने मुझे तुमसे बात करते हुए देख लिया। और उसने हमारी सारी चैट देख ली। वो बहुत गुस्से में आ गया और मुझसे सवाल- जवाब करने लगा । उसकी आवाज सुन मेरी पत्नी भी जाग गई । और बहुत तमाशा हुआ।"
"फिर... फिर क्या हुआ ? स्नेहा अंदर तक सिहर गई।"
"होना क्या था !!! दोनों ने मिलकर मुझे खूब खरी-खोटी सुनाई.... मुझे मेरी उम्र का एहसास दिलाया... साथ ही यह भी याद दिलाया कि अब मैं एक पति हूं, बाप हूं इसलिए मुझे अपनी जिंदगी जीने का अधिकार नहीं है। न ही खुश होने का न ही किसी से दोस्ती तक करने का।"
प्रणय एक एक शब्द जैसे चबाते हुए बोलता जा रहा था। स्नेहा बिल्कुल ब्लैंक हो चुकी थी। उसकी आंखों से आँसूं रुकने का नाम ले रहे थे। प्रणय बोलता रहा।
"जानती हो स्नेहा!!  यही है हमारा समाज ..यही है हमारे समाज की सोच... यहाँ हर कोई जो खुद करे वह सही पर सामने वाला जो करे वह गलत करार कर दिया जाता है।  जैसे हम तालाब की मछलियां बन गए हैं...हमें हर हाल में इस तालाब में ही रहना है। चाहे इस तालाब में हमारा दम ही क्यों न घुट जाए ...हम सांस लेने तक बाहर नहीं आ सकते।"
 "हां प्रणय !!!  हम मां-बाप हैं। हम किसी के पति/ पत्नी हैं... हम इस समाज रूपी तालाब की मछलियां ही हैं । या यूं समझ लो पिंजरे में बंद कोई पक्षी ... जिसके पिंजरे को बालकनी में तो लटकाया जा सकता है मगर उस पर अगर कोई आजाद परिंदा आकर बैठे तो उसे उड़ा दिया जाता है। क्योंकि कहीं वो उस परिंदे को उड़ने के सपने न दिखाए ....उस कैद पंछी का तो सपने देखने का भी अधिकार नहीं रहता....
दोनों तरफ कभी न खत्म होने वाला सन्नाटा पसर गया...शायद फोन पर भी और जिंदगी में भी।"
-०-
पता:
प्रिया वाच्छानी
उल्हासनगर, मुंबई (महाराष्ट्र)

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नदी (कविता) - शिवशंकर लोध राजपूत

नदी
(कविता)
हिमालय पर्वत से निकलकर कल कल, 
निरंतर बहने वाली निर्मल मन से !
पर्वत मेरे माता-पिता,यही मेरी उत्पत्ति
बड़े लाड प्यार से पाला मुझको!!
बड़ी हुई तो बाबुल का आंगन छोडी
मानव,जीव जंतु की प्यास बुझाने निकली!
अनेक कष्टों को सहकर, बाधाओं को पार करती
निरंतर अपने पथ पर आगे बढ़ती!!
धन-अनाज उगाकर सबका पेट हूँ भरती 
सर्वत्र हरियाली ही हरियाली फैलाती!
मनुष्य ने ना समझा मेरा महत्व
मनुष्य ने छीना मेरा अस्तित्व!!
गंगा-जमुना बनकर, सबका उद्धार हूं करती
स्वच्छ की जगह दूषित किया मेरा मन!
मनुष्य, जीव-जंतु,वनस्पति,
रहते मुझ पर आश्रित!!
कूड़े कचरे से पट जाऊंगी
तो तुम्हें जीवन कैसे दे पाऊंगी!
स्वार्थ भाव से देखोगे मुझको
हरियाली धरा पर कहां पाओगे!!
-०-
पता:
शिवशंकर लोध राजपूत
दिल्ली

 
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