नदी
(कविता)
हिमालय पर्वत से निकलकर कल कल,
निरंतर बहने वाली निर्मल मन से !
पर्वत मेरे माता-पिता,यही मेरी उत्पत्ति
बड़े लाड प्यार से पाला मुझको!!
बड़ी हुई तो बाबुल का आंगन छोडी
मानव,जीव जंतु की प्यास बुझाने निकली!
अनेक कष्टों को सहकर, बाधाओं को पार करती
निरंतर अपने पथ पर आगे बढ़ती!!
धन-अनाज उगाकर सबका पेट हूँ भरती
सर्वत्र हरियाली ही हरियाली फैलाती!
मनुष्य ने ना समझा मेरा महत्व
मनुष्य ने छीना मेरा अस्तित्व!!
गंगा-जमुना बनकर, सबका उद्धार हूं करती
स्वच्छ की जगह दूषित किया मेरा मन!
मनुष्य, जीव-जंतु,वनस्पति,
रहते मुझ पर आश्रित!!
कूड़े कचरे से पट जाऊंगी
तो तुम्हें जीवन कैसे दे पाऊंगी!
स्वार्थ भाव से देखोगे मुझको
हरियाली धरा पर कहां पाओगे!!
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