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Sunday 8 December 2019

आशना मिलाता नहीं (ग़ज़ल) - क़ासिम बीकानेरी

आशना मिलाता नहीं
(ग़ज़ल)

मेरे जैसा कोई मुझको ग़मज़दा मिलता नहीं,
अपने दर्दो-ग़म से कोई आशना मिलता नहीं,,

शहर में आकर तो सारे गुमशुदा से हो गए,
शख़्स इनमें मुझको कोई गांव का मिलता नहीं,,

कहने को तो सब हैं अपने इस ज़माने में मगर,
पूरी दुनिया में क्यूं कोई आप सा मिलता नहीं,,

काश मेरी आंखें रोती दूसरों के ग़म में भी,
मेरे अंदर ग़म का फिर ये सिलसिला मिलता नहीं,,

लाख सजदे कर लिए ख़ौफ़े-ख़ुदा दिल में नही,
ऐसे आमिल को किसी सूरत ख़ुदा मिलता नहीं,,

क्या हुआ है आदमी को इस जहां में देखिए,
कोई भी इन्सान मुझको बावफ़ा मिलता नहीं,,

एक तू ही तो है मेरे दर्द का बस चारासाज,
तेरे जैसा तो मसीहा दूसरा मिलता नहीं,,

मुश्किलों में साथ देगा कौन 'क़ासिम' अब तेरा,
लाख ढूंढो इस जहां में रहनुमा मिलता नहीं,,
-०-
पता :
क़ासिम बीकानेरी
बीकानेर(राजस्थान)

***
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मजदुर या मजबूर (कविता) - दुर्गेश कुमार मेघवाल 'अजस्र'

मजदुर या मजबूर
(कविता)
बैठा है इंतजार में
कृपा की तुम्हारे ।
भूखी आशा से
हर आने-जाने वाले को
निहारे ।

हाथ में पकड़े हैं
कपड़े में बंधी
दो मोटी-मोटी रोटियां
और प्याज ।
मन में है कई चिंताएं
बढ़ रहा है महाजन का
चौगुनी गति से ब्याज ।

बच्चों की मां ने
कहा था बांधते हुए,
"घर में नहीं रहा राशन
आते हुए ले आना ।"
पुत्री भी
रोते हुए आई थी ,
"पिताजी किताबें भी लाना।"

दुहाई भी किसको दे ?
वह अपनी दूरवस्था की।
सोच सभी घूम रही है
अपनी दीन अवस्था की।
परंतु तीन दिन से
मिलती भी नहीं मजदूरी है।
हां साहब ! मजदूर की
यही तो मजबूरी है।

फिर भी लगातार
इसी क्रम मैं बैठ जाता है
चौराहे पर ।
हर दिन , हर वार
आकर किसी के इंतजार में।
कि आज नहीं मिली ,
तो कल तो मिल ही जाएगी ।
किस्मत भी कभी ना कभी तो
मेरी दीनता पर तरस खाएगी।
रोटी भी देखकर
उसकी अवस्था गाफिल है।
मेरे लिए ही तो है इसका जीना ,
और मरना तिल-तिल है।

मिले मजदूरी तो
दो दिन जीना आसान हो जाए,
नहीं तो मुहाल तो
सदा बना रहता है।
चूल्हा भी न जाने क्यों
बरसात से या हालात से
रह-रहकर ही सुलगता है ।
और भी कई बैठे हैं
इसी इंतजार में।
नाव उनकी भी अटकी है
जैसे मझधार में।

सबकी अपनी अपनी मजबूरी
और दास्ताने हैं।
कोई भले ही उम्र में कच्चा है,
परंतु निकला कमाने हैं ।
मन में ख्वाहिशें हैं
पढ़ने और जमाने में
आगे बढ़ने की।
परंतु बांधती दीनता है
और रोक रखती है,
न कुछ कहने की।

एक बाला हाथ पीले कर
अभी-अभी ससुराल आई है।
मेहंदी ने भी रंग न छोड़ा
पर क्या करें रुसवाई है।
पति के साथ
जो जीवन मिला
वह सुधारना तो है।
विवाह का जो
कर्ज चढ़ा पति पर,
वह भी मिलकर
उतारना तो है।

एक अति वरिष्ठजन
शरीर पर
झुर्रियों की भरमार लिए
दे रहा दुहाई है ।
जमाने का बोझ
अभी भी है उसके कंधों पर
और मजबूरी यह
कि करनी पेट भराई है।

एक किशोरी
जीवन के सुहाने सपनों को
घर पर ही छोड़ आई है।
पिता की आत्मा में भी ,
स्वर्ग से देखकर,
फूटे रूलाई है ।
सपने हैं अधूरे
और केवल हुई
अभी सगाई है ।
मां के साथ निकली है
वह भी
करने अपनी भरपाई है ।

एक के तो
स्वाभिमान को भी,
इतना ऊपर पाता हूं।
मेरे सब अंग होते हुए भी,
उसके समक्ष
कमतर हो जाता हूं।
अंग की कमी है,
पर हिम्मत मर्द सी बंधी है।
आत्मा में है परवाज,
परंतु शरीर में पाबंदी है।
अंग तो दिव्य है,
परन्तु
भूख की दिव्यता ज्यादा है ।
संसार की शतरंज में
वह भी तो
एक मजबूर प्यादा है।

एक जिंदगी की राह में
आधे में ही साथ छोड़ गया।
वंश निशानी गर्भ छोड़कर
सात वचनों को तोड़ गया।
दो जीवो का भार लिए
किस्मत को कोसती जाती है।
हाय अभागन सी बनी जिंदगी
फिर भी सांस क्यों आती है।
इंतजार में वह भी तो
मजदूरी की आस लगाती है।
मजबूर भले ही कितनी ही वो
पर मजदूरी कहां मिल पाती है।

एक की तो ,दो साल से
फसल खराब होती जा रही है ।
कर्जा वह भी
और पत्नी की बीमारी भी
कर्जा बढ़ा रही है ।
सोच और कहानियां कई है।
पर उस पर भी तो,
सब को नियमित मजदूरी भी,
नहीं मिल पा रही है ।

दुनिया इक्कीसवीं वी सदी
और अर्थव्यवस्था
ट्रिलियनों पार जाने को है।
परंतु मजदूर की मजबूरी,
गलफांस सी,
ना तो उगले और न निगले,
जाने को है।
दो जून कट जाए,
बस यही तमन्ना रखते हैं।
जीवन कट जाए पेट भर ,
नहीं तो खाली पेट मरते हैं।
ना रहे कोई शिकवा,
और सरकारों,
तुम्हारा भी नाम हो जाए ।
मिले हर पेट को रोटी,
और हर हाथ को काम,
कुछ ऐसा इंतजाम हो जाए।
-०-
पता:
दुर्गेश कुमार मेघवाल 'अजस्र' 
बूंदी (राजस्थान)

-०-

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शहर में (ग़ज़ल) - गोविंद भारद्वाज

शहर में
(ग़ज़ल)

चली नफरतों की हवा फिर शहर में
उठा आफतों का धुआँ फिर शहर में।

जलाया कभी जो चरागे मुहब्बत
वही तो बुझा सा दिखा फिर शहर में।

भुला कर दिलो से पुरानी कहानी
उठाया नया फलसफा फिर शहर में।

किसी को नहीं है किसी से शिकायत
भला यूँ उठा जलजला फिर शहर में।

बढी़ दूरियां दरम्यां आज उन से
हुआ आमना- सामना फिर शहर में।

किया तो किसी ने दगा यार बन के
कोई तो हुआ बेवफा फिर शहर में।

चला है मुफलिसी मिटाने हमारी
मसीहा बना है नया फिर शहर में।

फिजां में घुला है नशा आशिकी का
खुला है नया मयकदा फिर शहर में।

मिली है हमें तो खुदा की इनायत
बढा है तभी रूतबा फिर शहर में।
-0-
पता:
गोविंद भारद्वाज
अजमेर राजस्थान


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जल संरक्षण (कविता) - अख्तर अली शाह 'अनन्त'

जल संरक्षण
(कविता)

बहती हुई सरिताओं की कलकल बचाएंगे।
हम जल बचाएं जल बचाएं जल बचायेंगे ।।

अपने वनों की कोई क्षति हम न सहेंगे।
करना है सुरक्षित जो जमीं करके रहेंगे ।।
जंगल हो या पहाड वृक्ष लहलहाएंगे ।
शहरों में भी हर सिम्त पेड़ सिर उठाएंगे।।
कटती हुई जमीन का हम तल बचाएंगे ।
हम जल बचाएं जल बचाएं जल जाएंगे।।

हमने ही तो जमीन को छलनी बना दिया ।
कर कर रूराख सीने में पानी सुखा दिया ।।
प्यासी धरा तड़प रही पानी के वास्ते ।
नदियां तरस गई है जवानी के वास्ते ।।
गहराई में जमीन की हलचल बचाएंगे।
हम जल बचाएं जल बचाएं जल बचायेंगे।।

जिन्दा रहे ना घाट ही कुए भी अब कहाँ ।
जल चारसौ फिट नीचे बह रहा है अब यहां।।
हर गांव में आओ नए पोखर बनाया हम ।
तालाब करें जिंदा कमल फिर खिलाए हम ।।
खुशियों के जिंदगी में शेष पल बचाएंगे ।
हम जल बचाएं जल बचाएं जल बचायेंगे।।

बढ़ती हुई ये गर्मी जमीं को जला रही ।
पानी नहीं रहा तो सेहत तिलमिला रही।।
गुम सारे हो गए हैं देखो ताल तलैया ।
बेरोजगार हो गए नावों के खिवैया ।।
हल इसका एक ही है कि जंगल बचाएंगे।
हम जल बचाएं जल बचाएं जल बचाएंगे ।।

बरसात का जल व्यर्थ ही जाने न ये पाए ।
जलती धरा को और जलाने न ये पाए ।।
जब घर का रहे घर में खेत का हो खेत में।
खोजेगे निकल आएगा जल लोगों रेत में ।।
जीना है वर्तमान में पर कल बचाएंगे ।
हम जल बचाएं जल बचाएं जल बचाएंगे।।

दो बाल्टी की जगह एक से नहाएं हम ।
धोने में गंदे कपड़े नही जल बहाएं हम ।।
रिसता हुआ बहता हुआ जल व्यर्थ न जाए ।
कतरा हरेक पानी का जीवन को बचाए ।।
हम बूंद बूंद जल की मुसलसल बचाएंगे ।
हम जल बचाएं जल बचाएं जल बचायेंगे ।।

पानी के लिए भीख का बर्तन लिए खड़े ।
ऐसा न हो के आए नजर छोटे और बड़े ।।
दुत्कारे जाएं एक भिखारी की तरह हम ।
दंगे हों जल के वास्ते ढ़ाते रहें सितम ।।
दस्तार नर की नारी का आँचल बचाएंगे ।
हम जल बचाएं जल बचाएं जल बचाएंगे ।।
-0-
अख्तर अली शाह "अनन्त"
नीमच (मध्यप्रदेश)
-०-

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मावठा (कहानी) - विवेक मेहता


मावठा
(कहानी)
इस बार ऐसा लग रहा था कि वर्षों के बाद सपने साकार होंगे। खेत में मूंग,बाजरा,मूंगफली की फसल लहरा रही थी। खेत इस बार सोना उगलेगे ऐसा तय सा था।
रण में एक तो वैसे भी बारिश कम, ऊपर से हर दूसरे तीसरे साल सूखा। 'यहां अब बचा ही क्या है?'- कह कर बच्चे घर छोड़कर शहर चले गए थे। गांव में बचे थे तो बस पति- पत्नी। दीपावली की, गर्मियों की छुट्टियों में वह बच्चों को न्योता देते घर आने का और काम का बहाना बनाकर वह टाल देते थे। मंदी की मार शहर में उनसे भी सहन नहीं हो रही थी। बच्चे अब चाहते थे कि मां-बाप घर खेत बेचकर पैसे उनके हवाले कर शहर में बस जाएं। पर पति पत्नी खेत खलिहान गांव छोड़कर जाने को राजी न थे।
इस बार दीपावली पर बच्चे घर आए, मां की इच्छा थी। बाप ने फोन लगाया बच्चों ने बहाने बनाएं। आग्रह बढा तो बच्चे बोले- 'धंधा चल नहीं रहा, मंदी बहुत है आप दीपावली पर कुछ नेग दे रहे हो तो आ जाते हैं।'
बाप मान गया आखिर में तो सब बच्चों का ही तो है! बच्चे आ गए दीपावली मन गई। मां-बाप के चरण छूकर लाख-लाख रुपए लेने का वादा भी ले लिया बाप से। बाप भी निश्चिंत था। धरती से सोना जो उगलने वाला था।
कुछ ही दिनों में कटाई का समय भी आ गया लाखों की मजदूरी और अन्य खर्चों के बाद कटाई हो गई। सोना खेतों में पडा ही था कि मावठे की बारिश हो गई। सारा सोना मिट्टी में बदल गया। सारे सपने पानी में बह गए।
मगर वादा तो वादा था बाप ने पत्नी के गहने गिरवी रख कर बच्चों को पैसे भी दे दिये। मन ही मन बोला- 'इससे तो सूखा ही अच्छा था भगवान, ना कटाई के पैसे जेब से जाते न गहने गिरवी रखना पडते।
-0-
पता:
विवेक मेहता
आदिपुर कच्छ गुजरात

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