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Tuesday 3 December 2019

कर्म स्थली (कविता) - ओम प्रकाश कताला

कर्म स्थली
(कविता) 
देख बियाबान जंगल को, सब मुस्कुराए।
कानाफूसी करते, सब नजर आए।
बात करे ना मन की, नजर में नजर मिलाए ।
फंस गया भाई हमारा, कैसे निजात दिलाए ।
देख हाल स्थली का, पसीना सबके आए।
दुखी मन भर आया, ऊपरी मन मुस्कुराए ।
देख 'कताला' उनको, सबका हौसला बढ़ाए ।
जंगल में मंगल कर दे, यही उम्मीद सब लगाए।
देख बियाबान जंगल को, सब मुस्कुराए।
-०-
ओम प्रकाश कताला
सिरसा (हरियाणा)
-०-

***
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क्यों और कब (कविता) - दिनेश चंद्र प्रसाद 'दिनेश'

क्यों और कब
(कविता)
अपने लिए जो करोड़ों अरबों कमाते हैं
वह पदम श्री पद्म विभूषण भारत रत्न पाते हैं
जो सबके लिए अन्न उगाता है
वह मौत का तोहफा पाता है
उसकी चर्चा दो दिन बाद बंद हो जाती है
जो सीमा पर लड़ अपनी जान गवाते हैं
पर जो देशद्रोह के बारे में नारे रोज लगाते हैं
वो टीवी पर सुर्खियों में छाए रहता है
रखता है जो स्वक्ष समाज को
वो दलित असभ्य कहलाता है
फैलाते हैं जो समाज में वैमनस्य की गंदगी
वो इज्जत दार सभ्य कहलाते हैं
अगर कोई दरिंदा किसी मासूम की
अस्मत से करता है खिलवाड़
मीडिया वालों की फ़्लैश बार-बार चमकते हैं
मगर कोई किसान फसल नष्ट होने से
या भूख से दम तोड़ता है तो
उनका फ्लैश नहीं चमकता है
महीनों हप्तों बाद कोई खबर अति है
कि कोई आत्महत्या किया है
कोई दशरथ मांझी जा छेनी हथौड़े से
पहाड़ काटकर राह है बनाता है
तो उसके छेनी हथौड़ी की आवाज
न मीडिया को सुनाई देती है ना किसी सरकार को लेकिन अगर किसी नेता अभिनेता खिलाड़ी
को जरा सी भी छींक आती है तो
मीडिया वाले तुरंत पहुंच जाते हैं
ये पता लगाने की छींक कैसे आई
सर्दी लगने से या गर्मी लगने से
छोटी सी तू-तू मैं -मैं को
ये दो समुदायों के बीच
मारपीट का नाम देकर
लोगों को बहकाते हैं
पर दो समुदाय मिलकर
कोई अच्छा काम करते हैं
तब उनकी नजर उधर नहीं जाती है
कोहरा छा जाता है
उन्हें तो टीआरपी बढ़ाने वाली
खबर चाहिए
टी. आर.पी . बढ़ाना है
जनता को उल्लू बनाना है
आखिर क्यों और कब तक
ऐसा चलता रहेगा
ऐसा चलता रहेगा

-०-पता: 
दिनेश चंद्र प्रसाद 'दिनेश'
कलकत्ता (पश्चिम बंगाल)
-०-


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बूढ़ी आँखें (कविता) - शिखा सिंह

बूढ़ी आँखें
(कविता) 
जब बूढी आँखे
खोजने लगें सहारा
किसी कोने का
तो समझ लो
कोई उनका
दूर चला गया
जब माँथे पर लकीरें
देनें लगे उनके
कोई संदेश
तो समझो
कोई दर्द उभरने लगा
जब आने लगे
उनके बिस्तरों में
कोई गंध
तो समझ लो
अपाहिज हो रहीं हैं
उनकी हडिडयाँ
जब उनका पेट
अन्दर धसने लगे
तो जानो उनका भूख तो है
मगर आवाज
बिक्लागं हो रही है
सपने तो उसी के होते है
बस पलते है बच्चों की आँखो में
वो माता पिता ही हो सकते है
जो वह चह कर भी
कोई शिकायत नही करते
नही है उसके पास कोई फिर क्यों
शिकायतों में जीते है
मन उन बच्चों के
जिसने सारे जीवन ढोया है वो
बोझ तुझे बडा करने में
बिगड गई उसकी सारी आस्था
जब तू नन्ना था 
-०-

-०-
पता 
शिखा सिंह 
फतेहगढ़- फर्रुखाबाद (उत्तर प्रदेश)

-०-

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दिल में बसा आशियाना (ग़ज़ल) - सुमन अग्रवाल "सागरिका"

दिल में बसा आशियाना
(ग़ज़ल)

एक अजनबी से पहली मुलाकात हुई।
धीरे-धीरे हमारे प्यार की शुरुआत हुई।

दहलीज पर जैसे ही कदम रखा उसने,
तभी रिमझिम फुहारों की बरसात हुई।

मत पूंछिये जनाब हम पर तब क्या गुजरी,
तभी हमारी खुशियों की सारी सौगात हुई।

रचाई थी मेंहदी मैने सजना के नाम की,
जैसे मेरी जिन्दगी तारों की बारात हुई।

हर गलत बात पर टोका है किसी ने मुझको,
जिन्दगी मेरी नजरों से मेरी ही सवालात हुई।

मैने तो कुछ कहा भी नहीं तुमसे फिर भी,
ऐसे रूठने की वजह भला ये क्या बात हुई।

कोई समझ न सका जमाने में मेरे दिल को,
फिर क्यों मेरे साथ अज़ब खुराफ़ात हुई।

जो भी सजाये थे हमने तराने अपने प्यार के,
दिल में बसा आशियाना, कैसी कायनात हुई।

“सुमन” के लफ्ज बहुत खामोश है आजकल,
खामोश सुरों की अजब, गज़ब वारदात हुई।
-०-
सुमन अग्रवाल "सागरिका" 
आगरा (उत्तर प्रदेश)
-०-



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कहाँ गया सच्चा प्रतिरोध (नवगीत) - बासुदेव अग्रवाल 'नमन'

कहाँ गया सच्चा प्रतिरोध
(नवगीत)
सुन ओ भारतवासी अबोध,
कहाँ गया सच्चा प्रतिरोध?

आये दिन करता हड़ताल,
ट्रेनें फूँके हो विकराल,
धरने दे कर रोके चाल,
सड़कों पर लाता भूचाल,
करे देश को तू बदहाल,
और बजाता झूठे गाल,
क्या यही तेरा है आत्म-बोध,
कहाँ गया सच्चा प्रतिरोध?

क्या व्यर्थ व्यवस्था के ये तंत्र,
चाहे रोये लोकतंत्र,
पड़े रहे क्या बंद यंत्र,
मौन रहें क्या जीवन-मंत्र,
औरों के हित तो केवल व्यर्थ
उनके दुख का भला क्या अर्थ,
कर स्व जाति, धर्म, दल कृतार्थ,
पूरे करता अपने ही स्वार्थ,
क्या बस तेरा यही प्रबोध,
कहाँ गया सच्चा प्रतिरोध?

चाहे बच्चे ढूंढ़ें कचरे में जीविका,
झुग्गी, झोंपड़ झेलें विभीषिका,
नारी होती रहे घर्षिता,
सिसके नैतिकता, मानवता,
पर तेरी आँखें रहेंगी बंद,
बुद्धि तेरी पड़ जाती कुंद,
भूल गया क्या सब अवरोध,
कहाँ गया सच्चा प्रतिरोध?

हक़ की क्या है यही लड़ाई,
या लोकतंत्र की है तरुणाई,
या तेरी अबतक की कमाई,
क्या स्वतंत्रता यही विचार की,
या पराकाष्ठा अधिकार की,
क्या यही सीख है संस्कार की,
या अति है उदण्ड व्यवहार की,
क्या यही तेरी अबतक की शोध,
कहाँ गया सच्चा प्रतिरोध?-०-
बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया (असम)
-०-

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चुनाव (लघुकथा) - नीलम नारंग

चुनाव
(लघुकथा)
मतदान का दिन होने के कारण आज पुरे परिवार की छुट्टी है। सबकी छुट्टी एकसाथ हो ऐसा बहुत कम ही होता है। दिहाडीदार मजदूर होने के कारण उनहे छुट्टी करना बहुत मंहगा पड़ता है। मीता बड़ी बेचैनी से घर के सारे काम कर रही है उसके आस पास वाली सारी औरतों का ही यही हाल है । सबके मर्द बाहर गली में ताश खेलने में मशगूल होने का दिखावा कर रहे है। असल मे वे सब इतंजार कर रहे है कौन सी पार्टी ज़्यादा पैसा देगी और उन सब के वोट एक ही व्यक्ति को जाएँगें । औरतें बेचैन है वोट भी आदमी की मर्ज़ी से डालना पड़ेगा पैसे से खूब दारू पीयेगें और औरतों पर हाथ आजमाएगें। बाहर देबां की आवाज़ आई जो ललकार कर कह रही थी इस बार हम अपनी करेगी कुछ और औरतें भी उसके साथ थी । मीता सिहर उठी कि जो आज रात होगा वो लोकतन्त्र की हत्या के साथ साथ उनहे अगले पाँच साल के लिए सड़क पर रहने के लिए भी मजबूर कर देगा ।
-०-
नीलम नारंग
हिसार (हरियाणा)


-०-


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