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Monday, 20 July 2020

हो कर मायूस (ग़ज़ल) - सत्यम भारती

हो कर मायूस
(गजल)
हो कर मायूस सब बेजार बैठे हैं,
ले डिग्री की गठरी बेकार बैठे हैं ।

रोजगार समाया सत्ता की आगोश में,
सिर्फ मैं नहीं मेरे कितने यार बैठे हैं।

बदलना होगा समाज की सोच अब,
जंग तो छेड़ो हम तैयार बैठे हैं ।

निकले किस गली से घर की बहू बेटियां,
हर तरफ जिस्म के खरीदार बैठे हैं ।

कर्म करो ऐसा की फक्र हो तुझ पर,
तुम पर हंसने को तेरे रिश्तेदार बैठे हैं ।

एक तरफा प्यार वैसा ही होता जैसे-
नाव इस तरफ मांझी उस पार बैठे हैं ।

जिस से हाथ मिलाना जरा परखना सत्यम
इंसानों के अंदर कितने किरदार बैठे हैं ।
-०-
पता-
सत्यम भारती
नई दिल्ली
-०-

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अधूरी रही (कविता) - रेशमा त्रिपाठी

अधूरी रही
(कविता)
“हर युग में बस मैं अधूरी रही
राजमहलों से निकली तो मीरा बनी
अल्हड़पन में रही जब दीवानी बनी
जब राधा बनी तो अकेली रहीं
हर युग में बस मैं अधूरी रही

राजरानी बनी जब हरण हुआ
नींद शैंया पर पूरा वनवास जिया
इंद्रदेव से छली गई जब
युगों– युगों तक पाषाण रही
हर युग में मैं बस अधूरी रही

माॅ॑ देवकी तो बनी पर अधूरी रही
अग्निपरीक्षा भी दी फिर भी पाकीजा न हुई
माॅ॑ कुन्ती के वचनों से ,पांच हिस्सों में बांटी गई
पत्नी बनी जब बुद्धदेव की ,महलों में थी पर अधूरी रही
हर युग में मैं बस अधूरी रही ।

पिया प्रेम में यम से लड़ी, कुछ वर्षों तक सती हुई
अग्निपुत्री रही, केश खोली प्रतिज्ञा भी ली
त्रिपुरारी ने छला तो तुलसी बनी
कभी लक्ष्मी बनी, कभी लक्ष्मीबाई बनी
जब– जब नारी बनी बस अधूरी रही ।
हर युग में मैं बस अधूरी रही ।।"
-०-
रेशमा त्रिपाठी
प्रतापगढ़ (उत्तर प्रदेश)

-०-

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शिक्षा (कविता) - प्रशान्त कुमार 'पी.के.'

शिक्षा

(कविता) 
*1*
अक्षर अक्षर दीप जले,
चांद सितारों सा चमके।
शिक्षालय की सुमन वाटिका,
दिन पर दिन क्षण क्षण महके।।
कच्चे घड़े से शिष्यों को हम,
प्यार की थोड़ी थपकी दे।
क ख ग से वेद पुराणों,
तक गढ़ गढ़ हम सब भर दे।।
जग मग चमके, तन मन महके,
ज्यों दामिनि तड़ तड़ तड़के।।


*2*

दीप शिक्षा का,
जग में जलाते चलो।
मन में अशिक्षा के,
तम को मिटाते चलो।।

शिष्यों के फूल से,
ये सुमन वाटिका।
खुशबू से भर उठे,
ये सुमन वाटिका।।
दीप जगमग हर इक,
जगमगाते चलो।

तार वीणा की,
झंकार मां शारदे।
सृष्टि के कंठ में,
माँ तू अवतार ले।।
चाँद तारों में,
सबको चमकाते चलो।

शिष्य गुरु का है,
रिश्ता जगत में बड़ा।
सृष्टि का नाता न,
कोई इससे बड़ा।।
वेद पुराणों की,
महिमा बताते चलो।

-०-
पता -
प्रशान्त कुमार 'पी.के.'
हरदोई (उत्तर प्रदेश)
-०-

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खून के रिश्ते (लघुकथा) - अरशद रसूल

खून के रिश्ते
(लघुकथा)
चौथी बार फोन की घंटी सुनकर मालती का पारा सातवें आसमान पर पहुंच चुका था। उसने समझ लिया कि इस बार भी उसके बेटे रोहित का ही फोन होगा, जो बार-बार बीमार दादी को देखने और उनकी सेवा के लिए आने की जिद किए जा रहा था। ”क्यों, तुम्हें चैन नहीं है? न पढ़ाई की फिक्र है, न करियर की चिंता। बाप की मेहनत की कमाई किराए-भाड़ों में बर्बाद कर देना, क्या करोगे दादी को देखकर? सेवा के लिए हम सब हैं तो यहां...।” दूसरी तरफ की आवाज सुने बिना ही मालती ने अपने बेटे रोहित का फोन समझकर सारा गुस्सा उतार दिया।
   अरे दीदी! मैं रोहित नहीं, माधव बोल रहा हूं। उधर से आवाज आई। ”अरे भइया! वह रोहित का बच्चा न...। खैर, सब ठीक तो है न? मम्मी की तबीयत कैसी है?” मालती की त्योरी काफी हद तक डाउन हो चुकी थी। ”दरअसल दीदी! मम्मी की तबीयत बहुत ज्यादा खराब है। आपको याद कर रही हैं। उनका तो बस भगवान...”
   अपने भाई की बात को बीच में ही काटते हुए मालती बोल पड़ी- ”नहीं भैया ऐसा कुछ नहीं बोलो, मम्मी को कुछ नहीं होगा, हम उन्हें इस हालत में नहीं देख सकते। मैं आज ही आती हूं और उधर से रोहित आ जाएगा, वह बाहर-भीतर का काम देख लेगा, आप अपना ऑफिस देखना, आखिर परिवार भी तो चलाना है और हम सब किस दिन काम आएंगे।” अपने सगे खून के रिश्ते के लिए मालती खुद को समर्पित कर चुकी थी।
-०-
पता:
अरशद रसूल
बदायूँ (उत्तरप्रदेश)

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