(लघुकथा)
चौथी बार फोन की घंटी सुनकर मालती का पारा सातवें आसमान पर पहुंच चुका था। उसने समझ लिया कि इस बार भी उसके बेटे रोहित का ही फोन होगा, जो बार-बार बीमार दादी को देखने और उनकी सेवा के लिए आने की जिद किए जा रहा था। ”क्यों, तुम्हें चैन नहीं है? न पढ़ाई की फिक्र है, न करियर की चिंता। बाप की मेहनत की कमाई किराए-भाड़ों में बर्बाद कर देना, क्या करोगे दादी को देखकर? सेवा के लिए हम सब हैं तो यहां...।” दूसरी तरफ की आवाज सुने बिना ही मालती ने अपने बेटे रोहित का फोन समझकर सारा गुस्सा उतार दिया।
अरे दीदी! मैं रोहित नहीं, माधव बोल रहा हूं। उधर से आवाज आई। ”अरे भइया! वह रोहित का बच्चा न...। खैर, सब ठीक तो है न? मम्मी की तबीयत कैसी है?” मालती की त्योरी काफी हद तक डाउन हो चुकी थी। ”दरअसल दीदी! मम्मी की तबीयत बहुत ज्यादा खराब है। आपको याद कर रही हैं। उनका तो बस भगवान...”
अपने भाई की बात को बीच में ही काटते हुए मालती बोल पड़ी- ”नहीं भैया ऐसा कुछ नहीं बोलो, मम्मी को कुछ नहीं होगा, हम उन्हें इस हालत में नहीं देख सकते। मैं आज ही आती हूं और उधर से रोहित आ जाएगा, वह बाहर-भीतर का काम देख लेगा, आप अपना ऑफिस देखना, आखिर परिवार भी तो चलाना है और हम सब किस दिन काम आएंगे।” अपने सगे खून के रिश्ते के लिए मालती खुद को समर्पित कर चुकी थी।
अरे दीदी! मैं रोहित नहीं, माधव बोल रहा हूं। उधर से आवाज आई। ”अरे भइया! वह रोहित का बच्चा न...। खैर, सब ठीक तो है न? मम्मी की तबीयत कैसी है?” मालती की त्योरी काफी हद तक डाउन हो चुकी थी। ”दरअसल दीदी! मम्मी की तबीयत बहुत ज्यादा खराब है। आपको याद कर रही हैं। उनका तो बस भगवान...”
अपने भाई की बात को बीच में ही काटते हुए मालती बोल पड़ी- ”नहीं भैया ऐसा कुछ नहीं बोलो, मम्मी को कुछ नहीं होगा, हम उन्हें इस हालत में नहीं देख सकते। मैं आज ही आती हूं और उधर से रोहित आ जाएगा, वह बाहर-भीतर का काम देख लेगा, आप अपना ऑफिस देखना, आखिर परिवार भी तो चलाना है और हम सब किस दिन काम आएंगे।” अपने सगे खून के रिश्ते के लिए मालती खुद को समर्पित कर चुकी थी।
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पता:
अरशद रसूल
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