विडम्बना
(कहानी)
“हैलो पापा जी, कैसे हैं आप? आपकी तबियत तो ठीक है न?” कमल ने कनाडा से दिल्ली मे रह रहे अपने पिता को फोन करके पूछा।
“हाँ बेटा मैं ठीक हूँ, तुम कैसे हो? ठीक से खा-पी तो रहे हो न? देखो, खाने-पीने में कमी बिल्कुल मत करना, वरना बीमार पड़ जाओगे।” सुरेश ने पुत्र का हालचाल पूछते हुए हिदायत दी।
“जी पापा जी, मेरी चिंता आप बिल्कुल मत करिये, यहाँ सब ठीक है।” कमल ने बताया
“कहीं तुम्हारी नौकरी लगी या नहीं?” सुरेश ने पूछा।
“अच्छा पापा जी, मैं आपको बाद में फोन करता हूँ।” कमल ने कहते हुए फोन काट दिया।
असल में कमल को कनाडा आए छह माह होने जा रहे हैं। वह अपने स्वप्न साकार करने के लिए कनाडा आया था, पर असलियत कनाडा पहुँचने के उपरांत ही उसकी समझ में आई कि दूर के ढोल सुहाने लगते हैं। आने से पूर्व उसका अनुमान था कि उसे कनाडा पहुँचते ही कम्पनियाँ हाथों हाथ ले लेंगी, पर हुआ इसके बिल्कुल विपरीत। वह जहाँ भी आवेदन देता, उसके हाथ निराशा ही आती। यहाँ तक कि घर से लाए उसके सारे रुपये रहने तथा खाने के प्रबन्ध में ही समाप्त हो गये। अब वह पूरे-पूरे दिन भूखा एक दफ्तर से दूसरे दफ्तर नौकरी की तलाश में भटकता रहता और शाम को थक कर अपने बिस्तर में आ पड़ता। जब उसके पिता ने उससे उसकी नौकरी के विषय में पूछा तो उससे कोई जवाब देते न बना। उसकी आँखें भर आईं और गला रुंध गया, इसीलिए उसने फोन काट दिया। वह फोन एक ओर रखकर अपने अतीत में उतरता चला गया। उसे रह-रहकर अपना घर, शहर और देश याद आने लगा।
कमल के पिता सुरेश सरकारी दफ्तर में क्लर्क के पद पर कार्य करते थे। उनकी पत्नी रमा पढ़ी-लिखी एवं सुशील महिला थी। यदि वे चाहती तो नौकरी भी कर सकती थीं, परन्तु उन्होंने घर सम्भालना अधिक उचित समझा। इससे सुरेश भी प्रसन्न हुए। उनकी सीमित आय थी, पर वे दोनों संतुष्ट थे।
उनके दो बच्चे हुए। बड़ी बेटी रश्मी और छोटा बेटा कमल। रश्मी पढ़-लिखकर अध्यापिका हो चुकी थी। उसने अपनी पसंद के लड़के से विवाह कर लिया था। यद्यपि यह बात सुरेश तथा रमा को रत्ती भर भी पसंद नहीं आई थी, पर रश्मी की धमकी, “यदि विकास से मेरा विवाह न हुआ तो मैं आत्म हत्या कर लूंगी”, के समक्ष उन्होंने घुटने टेक दिये। वर पक्ष की हर जायज़ और नाजायज़ शर्त मानकर उन्होंने उसका विवाह कर दिया।
रमा पुत्री के इस व्यवहार को सह न सकी और अंदर ही अंदर घुलती चली गयी। उन्होंने खाना-पीना त्याग दिया। न किसी से कुछ कहती और न किसी की सुनती, मुख पर जैसे ताला ही जड़ गया था। वह प्रायः बीमार रहने लगी। सुरेश उन्हें एक अस्पताल से दूसरे अस्पताल दिखाते फिरते, पर कोई रोग होता तो ठीक होता न! रोग तो कोई था ही नहीं, उन्हें तो गहरा आघात लगा था और वह भी स्वयं की पुत्री के व्यवहार से। अतः उनका शरीर सूखता ही चला गया। आखिर उन्होंने इस फरेबी संसार को अलविदा कह दिया।
जिस समय रमा की मृत्यु हुई थी, उस समय कमल ने बारहवीं किया था। सारी गृहस्थी बिखर गयी। सुरेश अपना खयाल रखते अथवा कमल का। वे भी पत्नी की आकस्मिक मौत से अंदर तक टूट गये थे। वही तो थी जो सुरेश का एक मात्र सहारा थी। लेकिन वह सहारा हमेशा-हमेशा के लिए छिन गया था। सुरेश नितांत अकेले रह गये थे। उनकी भी स्थिति अब पत्नी वाली हो गयी थी। लोग समझाते कि भाई, “मरने वाले के साथ मरा थोड़े ही जाता है! तुम्हारा एक बेटा भी तो है, यदि तुम्हें कुछ हो गया तो उसका क्या होगा?” अतः किसी तरह उन्होंने स्वयं को सम्भाला और कमल पर ध्यान केन्द्रित कर दिया और उसे आगे पढ़ने के लिए उन्होंने कॉलेज में प्रवेश हेतु आवेदनपत्र भरवा दिये, पर कमल का प्रवेश किसी प्रकार भी न हो सका। प्रत्येक कॉलेज की कट ऑफ इतनी ऊँची गयी कि उसका नाम किसी कॉलेज की लिस्ट में न आ पाया। इसलिए उसने कितने ही प्रकार के डिपलोमा कर डाले।
इस बीच एक और विशेष बात यह हुई कि सुरेश सेवा निवृत्त हो गये।
एक रात जब वे नींद की गोली खाकर सो चुके थे, उसके पश्चात् विकास का फोन आया, वह घबराहट भरे स्वर में बोला,
“पापा जी, रश्मी लेबर रूम में है। डॉक्टर कहते हैं कि बच्चा बहुत कमज़ोर है, इसलिए जच्चा-बच्चा दोनों की जान को खतरा है। कोई बड़ा ऑपरेशन करना पड़ेगा। इसके लिए तुरंत रुपये जमा कराने पड़ेंगे। मेरे पास अभी हैं नहीं और मम्मी-पापा दे नहीं रहे। इसलिए मैं आपसे रिक्वेस्ट कर रहा था कि आप पाँच लाख मेरे अकाउन्ट में ट्रांस्फर कर दीजिये। मेरे पास जैसे ही रुपये आएंगे, वैसे ही आपको लौटा दूंगा।”
भोलेभाले सुरेश दामाद की चालाकी न समझ सके और बोले,
“रश्मी मेरी भी बेटी है, यदि उसे कुछ हो गया तो मेरे रुपये किस काम के। विकास, मैं अभी कमल से रुपये ट्रांस्फर करवाता हूँ। तुम बिल्कुल चिंता मत करो, डॉक्टर्स से बोलो कि इलाज में कोई कमी न छोड़ें। मेरी बेटी और उसके बच्चे को कुछ नहीं होना चाहिये। मैं भी अभी पहुँचता हूँ।”
“अरे नहीं पापा जी, आपके आने की कोई ज़रूरत नहीं है, डॉक्टर्स अपना काम कर रहे हैं, आप तो बस रुपये भेज दीजिये।” विकास ने कहा और फोन काट दिया।
सुरेश ने पुत्र को उठाया और विकास के अकाउंट में पाँच लाख रुपये स्थानांतरण करवा दिये। जब वे अस्पताल पहुँचे तो ज्ञात हुआ कि ऑपरेशन तो हुआ ही नहीं। इस प्रकार सुरेश की सेवा निवृत्ति पर मिली रकम बेटी-दामाद ने हड़प ली। भविष्य निधि तो वे रश्मी के विवाह पर ही खर्च कर चुके थे। अब वे खाली हाथ रह गये। अब एक मात्र महीने की बीस हज़ार पेंशन रह गयी, जिससे घर का खर्च चलता था।
इधर दूसरी ओर कमल को डिपलोमा के आधार पर कहीं कोई अच्छी नौकरी नहीं मिल पा रही थी। यदि कोई मिल भी जाती तो मात्र आठ-दस हज़ार की, जिसे वह ठुकरा देता। उसके स्वप्न बहुत बड़े थे। उन्हीं दिनों उसके मित्र ने उसे बताया,
“तुम्हारे जैसे टैलेंटेड आदमी के लिए यहाँ इंडिया में क्या रखा है, यदि तुम्हें इसी लाइन में काम करना है तो तुम कनाडा चले जाओ, वहीं इस लाइन का सर्वाधिक काम होता है।”
मित्र की बात कमल को अपील कर गयी। चुनाँचे, कमल ने अपने पिता से इस विषय में बात की। बेटे की बात सुनकर पहले पहल सुरेश भड़क उठे और बोले,
“हाँ भाई, तुम भी अपनी मर्ज़ी चलाओ, एक ने अपनी मर्ज़ी चलाकर अपनी माँ को मार डाला, अब क्या मुझे भी ....!”
“यदि आपकी यही इच्छा है कि मैं आठ-दस हज़ार की नौकरी में स्वयं को जीवन भर घिसता रहूँ तो, ठीक है, मैं नहीं जाता।” कमल ने आँखों में आँसू भर कर कहा।
उसके बाद वह उठकर अपने कमरे में चला गया। जब वह शाम को भी उनके साथ खाने न बैठा तो उन्होंने पुत्र को अपने पास बुलाया और बोले,
“कमल, मैं कुछ स्वार्थी हो गया था। मैं अपने विषय में सोचने लगा था कि तुम्हारे जाने के पश्चात् मैं नितांत अकेला हो जाऊंगा, इसीलिए मैंने तुम से सुबह ऐसा कहा था। मैंने भी इस विषय में बहुत सोचा है और इस निर्णय पर पहुँचा हूँ कि तुम्हें अपने स्वप्न साकार करने का पूरा अधिकार है, वह तो मैं ही....। परन्तु पंद्रह लाख का इंतज़ाम कैसे होगा!”
एक दिन वे बैठे इसी प्रश्न पर सिर धुन रहे थे कि कमल को विदेश कैसे भेजें। उन्हें स्वयं पर ही झल्लाहट होने लगी कि यदि उन्होंने कोई बचत योजना ले ली होती तो आज ये दिन न देखना पड़ता। वे बैठे अपने अतीत में हो गयी भूलों पर इसी प्रकार पछता रहे थे कि कमल आ गया। कमल आज बड़ा खुश लग रहा था। आते ही चहकते हुए बोला,
“पापा जी, आप तनिक भी परेशान न हों। रुपयों का इंतज़ाम हो गया है।”
बेटे की बात सुनकर सुरेश प्रसन्न भी हुए और आश्चर्यचकित भी। अतः बोले,
“वो कैसे? ज़रा मुझे भी तो बताओ कि ऐसा कौन भला आदमी है, जो इतने रुपये तुम्हें देने को तैयार हो गया?”
“पापा जी, मैंने अपनी परेशानी जीजा जी को बताई थी। उन्होंने कहा कि मैं जाने की तैयारी करूँ, रुपये का इंतज़ाम वे स्वयं कर देंगे।” कमल ने बताया।
सुनकर सुरेश प्रसन्न हुए कि चलो अच्छा हुआ, विकास ने अपना कर्तव्य तो निभाया! पाँच लाख तो मेरे ही दिये हुए हैं, शेष कमल वहाँ कमा कर भिजवा देगा। तैयारियाँ होने लगीं। कमल का पासपोर्ट बना और वीज़ा के लिए आवेदन हो गया। आखिर वह दिन भी आ गया कि कमल का वीज़ा स्वीकृत हो गया। सुरेश और कमल दोनों बहुत प्रसन्न हुए, पर सबसे अधिक प्रसन्न हुआ विकास।
उसी दिन विकास और रश्मी मिलने आ गये। रात्रि भोजन के उपरांत विकास ने कोर्ट का एक पेपर निकाला और सुरेश के सामने रखते हुए बोला,
“पापा जी, यहाँ एक साइन कर दीजिये। वैसे तो घर की ही बात है, पर पापा जी कहते हैं कि लिखा-पढ़ी करने में कोई बुराई नहीं है, मात्र औपचारिकता ही तो है।”
“हाँ-हाँ, क्यों नहीं! इसमें कोई हर्ज़ नहीं है, रुपयों का मामला है, लिखा-पढ़ी होनी ही चाहिये।” कहते हुए उन्होंने पेपर पर साइन कर दिये।
कमल अपनी मंज़िल की तलाश में कनाडा के लिए रवाना हो गया था। घर में अब अकेले सुरेश ही तो रह गये थे। अब उनका दिन कटता था न रात, वे खुद को बहुत अकेले महसूस कर रहे थे। किसी प्रकार दो माह गुज़र गये। एक दिन उन्हें डाक से लीगल नोटिस प्राप्त हुआ, जिसमें लिखा था,
“आप निर्धारित एक माह में मेरे मुवक्किल के रुपये पंद्रह लाख नहीं लौटा पाए हैं, इसलिए समझौते के मुताबिक आपका मकान उनका होता है, अतः आप इस नोटिस की प्राप्ति के एक माह के अंदर मकान खाली कर, मेरे मुवक्किल को हैंड-ओवर कर दें।”
वे नोटिस पढ़ने के उपरांत पहले तो कुछ समझ ही नहीं सके। परन्तु फिर उन्हें कोर्ट के पेपर साइन करने की बात स्मरण हो आई। इसका अर्थ यह हुआ कि मेरे अपने ही दामाद ने मेरे साथ दगा किया है। वे क्या करें, अपने दुर्भाग्य पर रोएं अथवा हँसें। उनकी कनपटियाँ फटने को हुईं। उन्होंने अपने दोनों हाथों से अपना सिर पकड़ लिया। न जानें उस रात वे कितनी बार अपनी पत्नी को स्मरण करके रोते रहे।
अगले दिन वे रश्मी के ससुराल पहुँचे। उनसे किसी ने सीधे मुँह बात भी नहीं की। रश्मी एक बार आई और सामने पानी का गिलास रखकर चली गयी। वे और भी अधिक व्यथित हुए। माना कि ये लोग तो पराए हैं, पर क्या मेरी बेटी भी पराई हो गयी। वे वहाँ से चुपचाप उठ आए और अपने पड़ोस में एक कमरे का फ्लैट किराए पर ले लिया। उसके बाद घर का अधिकांश सामान बेच दिया। जितना आवश्यक था, उतना ही रखा। उसके उपरांत चाभियाँ रश्मी के ससुराल भिजवा दीं। मगर उन्होंने पुत्र को कुछ न बताया कि उसके जाने के पश्चात् उनके साथ कितना बड़ा धोखा हुआ है। बताते भी क्या कि उसी के दीदी-जीजा जी ने उसका पचास लाख का मकान किस प्रकार षडयंत्र करके हथिया लिया।
उधर दूसरी ओर कनाडा में कमल को काम न मिला। मकान मालिक ने किराया न दे पाने की स्थिति में उसे जेल भिजवा दिया। कमल ने आखिर मजबूर होकर अपने पिता को वास्तविक स्थिति एक पत्र की शक्ल में लिख भेजी।
पिता तो पिता ठहरे, वे संतान के लिए कुछ भी कर गुज़रने को तत्पर हो जाते हैं। उन्हें अपने घनिष्ठ मित्र अली का खयाल आया और वे तुरंत उनसे मिलने जा पहुँचे। अली ही एक मात्र तो सुरेश के बचपन के मित्र थे। सुरेश सरकारी नौकरी में चले गये और अली ने अपना व्यापार प्रारम्भ कर दिया। कुशल-क्षेम के पश्चात् उन्होंने अपने साथ हुई तमाम घटनाएं सिलसिलेवार बताईं, जिन्हें सुनकर अली बहुत दुखी हुए। अंत में बोले,
“सुरेश, तुम बताओ कि मैं तुम्हारी क्या सहायता कर सकता हूँ?”
“अली, मुझे सबसे पहले अपने बेटे को इंडिया लाना है। इसके लिए मुझे तीन लाख रुपयों की जरूरत है। यदि तुम मुझे ये रकम उधार दे दो तो मुझ पर तुम्हारा बड़ा एहसान होगा। मैं तुम्हारी पाई-पाई चुका दूंगा।” कहते-कहते उनकी आँखें भर आईं।
अली ने उसके नाम का चैक काटा और उन्हें देते हुए बोले,
सुरेश, जैसा तुम्हारा बेटा, वैसा ही मेरा, पहले तुम उसे वापस लाने का इंतज़ाम करो, रुपयों के लिए परेशान होने की जरूरत नहीं है। अरे ठहरो, किस शहर में है वह?”
“टोरेंटो।” किसी प्रकार सुरेश ने गला साफ करते हुए उत्तर दिया।
“तो समझो तुम्हारा काम हो गया। मेरा एक रिश्तेदार वहीं रहता है। तुम मुझे उसकी पूरी तप्सील लिख कर दो, मैं उनसे आज ही बात करता हूँ।”
सुरेश ने कमल द्वारा लिखा पत्र उसके हाथ पर रख दिया। उन्होंने पत्र पर सरसरी नज़र डाली और रख लिया। उसके पश्चात् बोले,
“सुरेश, तुम अब परेशान मत हो, खुदा ने चाहा तो कमल जल्दी ही इंडिया लौट आएगा। मैं आज ही बात करूगा।”
“भगवान तुम्हारा भला करे। अच्छा अब मैं चलता हूँ।” कहते हुए सुरेश उठ खड़े हुए।
“अरे नहीं यार, आज खाना खाकर जाना।” अली ने सुरेश को बैठने का इशारा करते हुए कहा।
“नहीं अली, पहले कमल लौट आए, फिर हम दोनों आएंगे। अच्छा तुम ज़रा उनसे बात करके देखो!” कहते हुए सुरेश ने अली से हाथ मिलाया और बाहर निकल गये।
अगले ही दिन अली के रिश्तेदार ने कमल का जुर्माना भरकर छुड़वा लिया। उसके पश्चात् उसकी टिकिट करवा कर वापस इंडिया भेज दिया।
जब कमल एअरपोर्ट से बाहर निकला तो उसने देखा, सामने उसके पापा खड़े हैं और उनकी बेचैन नज़र शायद उसी को ढूढ़ रही है। वह दौड़कर अपने पिता से उसी प्रकार लिपट गया, जिस प्रकार वह बचपन मे विद्यालय से वापस लौटकर लिपट जाया करता था।
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संपर्क
एस.जी.एस. सिसोदिया (श्रीगोपाल सिंह सिसोदिया)
पता - फ्लैट न. 1654, टाईप-4, दिल्ली सरकार आवासीय परिसर, गुलाबी बाग, दिल्ली – 110007
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