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Saturday 26 October 2019

एक ग़ज़ल देश की मुहब्बत के नाम (ग़ज़ल) - श्रीमती पूनम शिंदे



एक ग़ज़ल देश की मुहब्बत के नाम
(ग़ज़ल)


करो तुम मुहब्बत वतन के लिए
जाँ भी देंगे कभी तो वतन के लिए
हो जरूरत अगर देश को यदि तेरी
पेश कर दे तू सर को वतन के लिये

इसकी अस्मत से खेले कभी गर कोई
इसकी रक्षा में हरदम रहो लैश तुम

मेरा पैग़ाम हर हिन्दू मुसलमा से है
आगे डटकर रहो देश की खातिर तुम

मशवरा एक है नौजवानों मेरा
तुम मुहब्बत करो देश पर तुम मरो

कर्ज़ सारा है हम पर पड़ा देश का
तुम उतारो इसे फ़र्ज़ पूरा करो

इसकी आँचल में पलकर हुए हो बड़े
आबरू का भी जिम्मा तुम्हीं पर ही है

दुश्मनों से बचाना है इस मुल्क को
देशभक्ति का जिम्मा तुम्हीं पर ही है

जब तलक है जवानी करेंगे वफ़ा
अब तिरंगे को लेकर बढ़ेंगे सदा

देश का है ये जन्नत सदा काश्मीर
इसकी वांदी में लहरे तिरंगा
-०-
श्रीमती पूनम दीपक शिंदे
मुंबई (महाराष्ट्र)

-०-

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सेहतमाना (कविता) - डा. नीना छिब्बर


सेहतमाना
(कविता)
हर किताब, हर धर्म, हर सुविचार
हर काल का यह अक्षुण सत्य है
स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मस्तिष्क होता है "
जीवन का सकरात्मक पहलू,हर काल का सच
परखा ,जाना ,माना जीवन में सबने।
रोगहीन रहने के लिए ,समय बचाते हैं कामों से
सुबह अगर ड़ेस्क वर्क में उलझा है तो
तब संध्या को दौड़ की पौशाक पहन कर
कानों में मधुर संगीत की स्वरलहरी लगा
तेज चलते,दौड़ते, व्यायाम करते
दिखते हैं हर आयु, वर्ग एवं क्षेत्र के लोग ।।
अपनी काया को चुस्त -दुरुस्त रखने को
निभाते हैं हर कीमत पर खुद से किया वायदा
नहीं दिखेंगे यहाँ बेड़ोल पेट,थुलथुल बाँहें, पैर
आकार ,सौंदर्य, एवं शक्ति की त्रिवेणी
दिखता है चारों ओर नजरभर यही दृश्य
जानते हैं सब स्वास्थ्य ही जीवन है।
जी तोड़ मेहनत के लिए ,जी तोड़ हाड़ चाहिए
शुद्ध हवा-पानी, हरियाली शरीर की चाहत है।
हर धर्म,, हर किताब ,हर सुविचार जो कहता है
यह शहर उसे अपने खून में बसाता है ।
शरीरी मशीन को गति से चलाने के लिए
भीतरी सौंदर्य को तन पर लाने के लिए
प्रकृति का सानिध्य जरूरी है।
अपनों के बीच हसने हसाने के लिए
औषधियों से दुश्मनी निभाने के लिए
"सेहतनामा" को धर्म समझ अपनाता है शहर ।
-०-
डा. नीना छिब्बर
17/653, चौपासनी हाउसिंग बोर्ड़, जोधपुर 342008

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सफेद मोजा (बाल कहानी) - डॉ.विमला भंडारी

सफेद मोजा
(बाल कहानी)
इदम ने जिद्द पकड़ ली थी। उसे तो बस वही सफेद मोजा चाहिए था। महावीर को भी आदत थी स्कूल से आकर जूत मोजे इधर उधर खोलकर कर रख देना। तब उसकी अम्मा तत्काल ही जूते में मोजे को ठूँस कर ऊपर अलमारी में रख कर बंद कर देती। भरपूर कोशिश की बाद कक्कू कबूतर अपने बेटे इदम के लिए वह मोजा उठाकर नहीं दे पा रही थी।

1 दिन की बात है। महावीर के यहां मेहमान आए हुए थे। माँ रसोई में लगी हुई थी। अपनी आदत के अनुसार जूते मोजे निकालकर महावीर ने इधर-उधर पटक दिए।

इदम की नजर तो इस मौके की तलाश में ही थी। उसने मां कक्कू कबूतरी से उस सफेद मोजे की फिर से मांग की और कहा- “वह देखो मां सफेद मोजा, वह बिल्कुल हमारे नीचे ही रखा हुआ है। लाकर मुझे दे दो ना!”

कक्कू कबूतरी ने गर्दन निकालकर झुककर देखा एक सफेद मोजा ठीक रोशनदान के नीचे गिरा हुआ है नजर आया। वह फर्र से उडी़ और अपनी चोंच में दबाकर मोजा उठा लायी।

खुश होते इदम ने मोजे को अपनी चोंच में सहलाया। अपने नरम पंख उस पर घुमाया। उसका आनंद लिया और फिर घोंसले में बिछा दिया। घोंसले के तिनकों पर बिछाकर इदम खुश हो गया।

रात मजे से गुजरी। सुबह जब इदम सो कर उठा तो घर में शोर शराबा हो रहा था। सफेद मोजे को ढूंढा जा रहा था।

“तुमसे कितनी बार कहा, अपनी चीज संभाल कर रखा करो पर तुम सुनते नहीं। तुम्हारी आदत ही खराब है। स्कूल से आते ही सब फैलाकर इधर-उधर पटक देते हो।“

“अम्मा देर हो रही है।“ रूआंसा होता महावीर कह रहा था।

अम्मा इधर उधर एक सफेद मोजा हाथ में लिए दूसरे जोडीदार को ढूंढ रही थी। इधर इदम आराम से मौजे पर लेटा हुआ सुस्ता रहा था।

कक्कू कबूतर ने दया दिखाते हुए कहा- “लाओ बेटा! अब यह मोजा फिर से महावीर को दे देते हैं। उसके स्कूल की देर हो रही है। उसे स्कूल में डांट पडेगी।“

“नहीं मां, अब यह मोजा मेरा है। मैं नहीं दूंगा।“ कहता हुआ इदम ठुनक गया। अब तो कभी पेंसिल, कभी कोई खिलौना, कभी कुछ, कभी कुछ आंगन में बिखरी हुई चीजों को अपनी मां को कह कर मंगवा लेता और उन्हें अपने घोंसले के आस पास रख लेता। वह महावीर की चीजों से खेलने लगा।

इधर महावीर की अम्मा इस बात को लेकर परेशान होती रही कि वह सब चीजें संभाल कर रखती हैं फिर भी महावीर की चीजें समय से मिलती नहीं। महावीर कई चीजें ढूंढ रहा था- उसकी खिलौने वाली चकरी भी नहीं मिल रही थी। वह मां से पूछता। मां यही कहती, “बेटे तुम खेलने के बाद अपनी चीजें उठाकर वापिस उसकी जगह क्यों नहीं रखते हो? देखो तुम्हारे खिलौने भरने के लिए मैंने तुम्हें पूरी टोकरी दे रखी है। तुम जिस खिलोने से जहां खेलते हो उसे वहीं छोड़ देते हो। होमवर्क करते ही किताब कॉपी तो उठा कर ले लेते हो पर पेंसिल, रबर वही आंगन में या टेबिल पर छोड़ देते हो।“

“हमारे घर में ही तो पडी थी। कोई बाहर तो नहीं डाल कर आया। फिर वह घर से कैसे गुम हो जाती है?” एक दिन तो हद ही हो गई महावीर की सबसे पसंद की लाल रंग की पैनड्राइव गुम हो गई। पेनड्राइव में लाल रंग का धागा लगा हुआ था। सुनहरा चमकीला धागा और सुंदर सी पेनड्राइव इदम को बहुत पसंद आई। अब तो उसके बिना कहे उसकी कक्कू मां उसे खेल खिलौने लाकर देने लगी।

चीजें कहां चली जाती है, किसी को समझ में नहीं आ रहा था। इधर इदम के भी पंख थोडे बडे हो गए थे। पंख फड़फड़ाने लगा और कुछ-कुछ उड़ना सीखने लगा। कभी ऊपर तो कभी नीचे खेलने में उसका मन लगने लगा। अब वह मां कबूतरी से महावीर की चीजों को लाने की जिद भी नहीं करता। महावीर ने भी अपनी आदतें सुधार ली थी। वह अपनी कई प्यारी चीजें खो चुका था। लाल रंग की पैनड्राइव खोने के बाद तो उसने अपनी चीजों को इधर-उधर रखना बिल्कुल ही छोड़ दिया था क्योंकि वैसी लाल रंग की पैंनड्राइव तो अब दुबारा बाजार में भी उसे नहीं मिली।

एक दिन इदम अपनी मां के साथ घौंसले को छोड़कर हमेशा के लिए उड़ गया। जब घर की सफाई होने लगी तो रोशनदान के खाली हुए कबूतर की घौंसले को हटाया जाने लगा। घौंसले के साथ महावीर की पुरानी गुम चीजें सब मिल गई। जिसे देखकर महावीर खुश हो गया।

“अब समझ आया मेरी चीजें कहां जाती थी। यह रहा मेरा एक मोजा। आहा! लाल चकरी। न मालूम कितनी सारी चीजें मुझे वापस मिल रही है….. और यह रही मेरी प्यारी पेनड्राइव। यह भी मुझे मिल गई। इन कबूतरों के घौंसले में तो मुझे अपना खोया हुआ खजाना दुबारा मिल गया। अब जो आए कबूतर तो मैं इन्हें देख लूंगा। अब मुझे पता चल गया है कि मेरी चीजें कबूतर ने हीं चुराई थी।“

“तुम्हारी लापरवाही के कारण गायब हुई थी तुम्हारी चीजें। अब दुबारा भी आ जाए तो तुम सुधर चुके हो। तुम अपनी सभी चीज व्यवस्थित रखोगे तो कुछ नहीं गुम होगा।“

कहते हुए अम्मा हँस पडी तो महावीर भी मुस्कुराने लगा।
-०-
डॉ. विमला भंडारी
भंडारी सदन, पैलेस रोड,
सलूंबर जि. उदयपुर  313027
(राजस्थान)




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मुखौटे (लघुकथा) - डॉ० भावना कुँअर (ऑस्ट्रेलिया)

मुखौटे
(लघुकथा)
आज मकान मालिक के घर में पूजा थी ठीक पिछले साल की तरह।किरायेदार मालती को लगा की चाची कल कहना भूल गई होंगी आज ही बुला लेगीं दरवाजे पर खड़ी आने-जाने वाली औरतों के पैर छूने मशगूल थी... छोटी जो थी सबसे।कॉलोनी की सभी औरतें पहचानती जो थी मालती को और प्यार भी बहुत करती थीं।सभी औरतें 

तकरीबन अन्दर आ चुकीं थी; पर मालती को किसी ने अन्दर आने को नहीं कहा।मालती समझ नहीं पाई की क्या बात है?तभी उसके कानों में पूजा के शुरु होने के स्वर गूँजे। वो मन में हजारों सवाल लिए अपने कमरे में चली गई,जाने कैसे दिल पर लगी थी कि अगले दिन भी मालती बाहर नहीं निकली। तभी दरवाजे पर किसी ने दस्तक दी।जाकर दरवाज़ा खोला तो सामने चाचीजी खड़ी थी।मालती ने उनके पैर छूए;पर कोई हाथ आशीर्वाद में न उठा न ही कोई शब्द कानों में पड़ा। जो सुना वह ये था-"मालती तुम्हें लगा तो होगा कि कल की पूजा में मैंने तुम्हें नहीं बुलाया, जबकि पिछले साल बुलाया था। मैंने तुम्हें जानबूझकर नहीं बुलाया; क्योंकि पिछले साल तुम पति के साथ थीं ।अभी मैंने किसी से सुना है कि तुमने पति से अलग होने की अर्ज़ी दे रखी है। हाँ, मैंने ही तुम्हें बताया था कि तुम्हारे पीछे तुम्हारा पति किसी लड़की के साथ यहाँ पूरे दो हफ्ते रहा है। मैं जानती हूँ कि वो चरित्रहीन है,पर ये समाज है ना, चरित्रहीन पुरुष को तो स्वीकारता है; पर औरत सच्ची और सही भी हो तो दोषी उसे ही बताता है।कॉलोनी में तुम्हारे बारे में लोग भला-बुरा कह रहें हैं।मैं जानती हूँ- तुम बहुत अच्छी हो; पर मैं मज़बूर थी। ये पूजा सुहागनों की थी और अब तो तुम सुहागन नहीं हो ना बेटा !" 

सारी बातें मालती के कानों में पिघलें शीशे-सी चुभ रही थीं पर चेहरे पर एक अजीब सी कसैली मुस्कान थी,यही सोचकर कि चलो देर से ही सही पर पता तो चला कि लोग किस-किस तरह से क्या-क्या सोचते हैं। कितनी आसानी से लोग दो-दो मुखौटे पहनकर घूमते हैं।

डॉ० भावना कुँअर 
ऑस्ट्रेलिया (सिडनी)

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भारत–नेपाल बीच सांस्कृतिक सम्बन्ध का आयाम (आलेख) - संगीता ठाकुर


भारत–नेपाल बीच सांस्कृतिक सम्बन्ध का आयाम
(आलेख)
संस्कृति– संस्कृति को सहज अर्थ में समझा या कहा जाए तो संस्कृति का शाब्दिक अर्थ संस्कार होता है । संस्कृति एक अपने आप में व्यापक एवं अर्थपूर्ण शब्द है । जिसमें मानव जन्म से लेकर मरणोपरान्त का विस्तार है । खान–पान, शिल–स्वभाव, मानव चरित्र, पूजा–पाठ, श्राद्धकर्म से लेकर समस्त वैदिक संस्कृति, नदी–झड़ना, वन–पर्वत, सूर्य–चन्द्र इत्यादि सभी समूहो को समेटते हुए सम्पूर्ण प्रकृति का वर्णन इस संस्कृति में समाहित है । जिसमें भारत–नेपाल के बीच सदियों से लेकर आज तक के संस्कृति सम्बन्धाें को प्रगाढ़ वर्णनों को दर्शाया गया है ।
संस्कृति अर्थात् जो समूहो के द्वारा प्रदर्शन किया जाता है । यानी कि संपूर्ण समाज मिलकर जिस क्रिया–कलाप में सामिल होते हैैं । या फिर समूहों में मनाते हैं जैसे — दीवाली, होली, नवरात्रि, पहिरन, साज–सज्जा इत्यादि ऐसे विभिन्न त्योहार हैैं जिसे हम सम्पूर्ण राष्ट्रवासी मिलकर मनाते हैैं। तो यह हमारी संस्कृति कहलाती है और जिस संस्कृति को मनाते–मनाते हमारा एक संस्कार बन जाता है । अर्थात् संस्कृति से हीं संस्कार की उत्पति होती है । संस्कार को हम संक्षिप्त अर्थ में मानव व्यवहार भी कह सकते हैं । संस्कृति अर्थात् समूह के साथ किये जाने वाले और संस्कार किसी व्यक्ति विशेष के द्वारा किये जाने वाले स्वभाव से अवगत कराता है ।

भारत–नेपाल में एक पौराणिक किंवदन्ति भी कहा गया है कि अतिथि देवो भव: अर्थात् अतिथि देवता के समान होते हैं । जिस कारण उन्हे देवता की तरह आदर सत्कार किया जाता है । तो एक दृष्टिकोण से अगर कहा जाए तो मानव को सम्मान करना, यह नेपाली एवं भारतीयों के संस्कार में हीं निहित हैैं ।

अगर एक भारतीय दूसरे नेपाली से प्रेम करते हैं । दोनों एक साथ मिलकर त्योहार मनाते हैं । एक आपस में अपनत्व का भाव बोध कराता है । विपदा के समय में एक दूसरे को सुरक्षा, सहयोग प्रदान करते हैंं । भूखे को खाना खिलातें हैं । समस्त नारियाँ मिल कर एक साथ तीज ब्रत मनाती हैं । शिवशंकर की कथा श्रवण करती हैं और रंग–बिरंगी साडि़या, साज–सज्जा एवं सुन्दर आभूषणों से सजती हैैं तो यह नेपाली–भारतीयों के संस्कार में हीं गुण व्याप्त है । यह उनकी सभ्यता कहलाती है । उनके संस्कार में ही आत्मीयता का बोध है । जिस कारण भारत–नेपाल दो अलग–अलग सीमांकित राष्ट्र होते हुए भी दोनों का अंतःकरण एक हीं है । एक शरीर का काम करता है तो दूसरी आत्मा की । जिसे सहज अर्थ में हम समानता, एकता या फिर सहजता भी कह सकते हैं । ऐतिहासिक्ता में दोनों देशों का एक हीं नामाकरण भारतवर्ष होने से हमारी संस्कृति भी मिलती–जुलती है और संस्कृति के मेल मिलाप से हमारा स्वभाव, संस्कार भी एक हीं है । यहाँ हम यह भी कह सकते हैैं कि भारत–नेपाल दोनों देशों में एक ही प्रकार के साज–सज्जा, कपड़े, यहाँ तक की हमारी सोच भी समान है और नारियाँ साड़ी भी बड़ी सौक से दोनो देशों में पहनती है, तो साड़ी हमारी हम दोनों देशों की सभ्यता कहलाती है और पहने की प्रक्रिया संस्कृति । साड़ी एक हीं प्रकार की होती है किन्तु उसे लगाने की शैली अलग–अलग होती हैं । जैसे– नेपाल के विभिन्न समूहों में फरक–फरक तरीके से नारियंाँ साड़ी पहनती हैं । तराई–पहाड़ में पहनने की अलग शैली है और हिमाल में अलग शैली है । उसी प्रकार भारत के विभिन्न राज्यों में साड़ी पहनने की शैली अलग–अलग है जैसे — नारियाँ कहीं घूँघट वाली साड़ी पहनती है तो कही ढेका बाँध कर पहनती हैैं । तो यह पहने की जो क्रिया–कलाप है वही संस्कृति कहलाती है । जो कि अलग–अलग स्थानों पर समूहों में मिलकर काम करने या किसी त्योहार को मनाने की अपनी–अपनी शैली होती है । उसी को हम संस्कृति कहते हैं ।

संस्कृति अर्थात् जो समूहाें को, समाजों को एकता बद्ध करती है । किसी राष्ट्र के मौलिकता को दर्शाती है । संस्कृति हर राष्ट्र की अपनी– अपनी होती है । जैसे हम किसी को देख कर बता सकते हैं कि यह तो पाश्चात्य लोगों की संस्कृति लगती है या फिर यह बौद्धिज्म की संस्कृति है या फिर हिन्दूओं की लगती है । यानी कि मानव के जीवन जीने की जो कला है, वस्त्र पहनने की जो शैली, मानव के जो आव भाव होते हैं तो वह भी हमें विभिन्न स्थानों के संस्कृति के बारे में परिचय कराती है । संस्कृति और संस्कार के बारे में विस्तृत चर्चा परिचर्चा करते–करते इसी बीच सभ्यता की भी बात आती है । यहाँ यह प्रश्न उठ सकता है कि आखिर यह सभ्यता शब्द कहाँ से आई है ? तो यहाँ हम संक्षिप्त रूप में कह सकते है कि सभ्यता की उत्पत्ति सभा से हुई है और सभा संस्कृति से आई है । संस्कृति समूह को एक वद्ध करती है, समूह सभा गठन करती है और सभा सभ्यता को जन्म देती है । सभा में जो लोग सामिल होते हैं । अर्थात् किसी कार्य को एकजूट होकर मिल–जुल कर कार्य करना । जहाँ एकताबद्ध होकर काम किया जाता है । वहाँ एकता का प्रतीक माना जाता है । किसी सभा में एकत्रित हुए मानवों को सभ्य कहा जाता है क्योंकि उनके अन्दर एकता का भाव होता है । जैसे सरकार अपने राष्ट्र के निर्माता माने जाते हैं । वे संपूर्ण राष्ट्र के हित में कार्य करते हैं । इसीलिए उन्हे सभ्य होना अनिवार्य है और जो सभ्य होते है वे आर्य कहलाते हैं । यहाँ एक फिर दूसरा सवाल उठता है कि आखिर यह आर्य शब्द कहाँ से आया ? आर्य के बारे में संक्षिप्त चर्चा ऊपर की पंक्ति में हो चुकी है । फिर भी यहाँ और कुछ बातें हैं जिन्हे हम यहाँ चर्चा करना चाहेंगे ।

आर्य को यहाँ ईश्वर पुत्र कहा गया है । आर्यः ईश्वर पुत्रः । अर्थात् आर्य सभ्य व्यक्ति से तालुक रखता है और जो ईश्वर के असली संतति होते हैं वह निःसंदेह सभ्य होते हैं । जो सभ्य होते हैं वे आर्य कहलाते हैं और आर्य से सभ्यता आती है । सभ्यता का जन्म सबसे पहले भारत में हुआ और भारत नें ही समस्त दुनियाँ को सभ्यता का पाठ सिखाया । खान–पान, बात–विचार, रख–रखाव, चाल–चलन इत्यादि । जब धरती पर सबसे पहले मानव पुत्र जन्म लिए यानि कि “मनु” तो उन्होने हीं मानव जीवन के लिए सुन्दर चरित्र का वर्णन किये और धरती पर अन्य समस्त मानवों को चरित्र की शिक्षा दी । अर्थात् हम यह भी कह सकते है कि मनु के द्वारा हीं चरित्र का निर्माण हुआ । जैसे कि बुद्धिज्म दर्शन में कहा गया है कि ष्खिभ बलम भित ष्खिभ। आप भी जिये और दूसरों को भी जीने दिजीए अर्थात् दूसरों के जीवन जीने में बाधक न बनिये और वहीं भारतीय सभ्यता है, भारतीय दार्शनिक चिन्तन है, तो उनका कहना है कि ष्खिभ बलम जभउि यतजभचक तय ष्खिभ की आप स्वंयम भी जीये और जो जीने वाले हैं उन्हे जीवन जीने में आप मद्दत कीजिए । अर्थात् संक्षिप्त में हम यह कह सकते हैं कि विश्व में सभ्यता का मूल केन्द्र भारत हीं है ।

चरित्रवान लोग जो होते है वे सभ्य होते हैं और जो सभ्य होते हैं वे संस्कारी होते है । अर्थात् चरित्र से संस्कार, संस्कार से सभ्यता, सभ्यता से सभा, सभा से एक बद्धता, और एक बद्धता से संस्कृति की जन्म हुई । माना जाए तो ये सब एक दूसरे के पूरक है । सांस्कृति का अर्थ किसी संदेश को नृत्य के द्वारा दर्शाया जाता है । उसे सांस्कृतिक कार्य–क्रम कहते है यानी कि सांस्कृतिक क्रिया–कलाप भी उसी संस्कृति अन्तर्गत आती है । सहज अर्थ में हम यहाँ कह सकते हैं कि किसी धर्म को, किसी पर्व या फिर कर्मकाण्ड हीं क्यों न हो समूह में मिल कर करने से, वह वहाँ की परम्परा बन जाती है और वही परम्परा वहाँ की संस्कृति बन जाती है । इसीलिए अगर धर्म–शास्त्र को अध्ययन किया जाए तो पहले भारत–नेपाल में कोई सीमा नही थी और इस संपूर्ण भूखण्ड को एक ही नाम से पुकारा जाता था । वह नाम था भारतवर्ष । जिसका जीता जागता प्रमाण अभी भी विभिन्न शास्त्र पुराणों में वर्णित है । इसलिए आज भारत–नेपाल सीमांकित होत हुए भी इन दोनों राष्ट्रों में मिलती–जुलती संस्कृति है । जिसका साक्षात प्रमाण हम यहाँ देख सकते हैं

हिन्दू धर्म एवं आर्य संस्कृति अनुसार कर्म करते समय अभी भी नेपाली हिन्दू समाज में संस्कृत के मन्त्रोंचारण के समय कहा जाता है कि “भारत वर्षे भरत खण्डे आर्यावर्तान्तर्गत हिमवत्खण्डे नैपालैकदेशे इह पुण्य भूमौ ।” कह कर संकल्प लेने की परम्परा विद्यमान है ।

विष्णु पुराण में भारत वर्ष के सीमारेखा को इस प्रकार से उल्लेख किया गया है —
उत्तरंयत् समुद्रस्य हिमादेश्चैव दक्षिणम् ।
वर्ष तद् भारतं नाम भारतीय यत्र सन्ततिः ।।

अर्थात् समुद्र से उत्तर एवं हिमालय पर्वत से भी दक्षिण का जो वर्ष भूभाग है, वह भारत वर्ष है । यहाँ भारती अर्थात सरस्वती निवास करती हैं ।

इसी प्रकार अमर कोश में विन्ध्याचल और हिमालय के बीच के भूभाग को आर्यावर्त का संज्ञा दिया गया है ।
आर्यावर्तः पुण्यभूमि मध्यंविन्ध्यहिमालयो ।

विन्ध्याचल एवं हिमालय के बीच के पुण्यभूमि आर्यावर्त है । आर्यावर्त में भी गङ्गा और यमुना के बीच के अत्यन्त उर्वर भूमि है । हिमालय के पाँचखण्ड में एक खण्ड नेपाल है । हिमवत्खण्ड नेपाल में श्वेतधारा यानी सेतीगण्डकी और कृष्णधारा यानी कालीगण्डकी के बीच के भूभाग अन्तरवेदी हैं ।

भारतवर्ष के भूबनावट अधो त्रिकोणत्मक है । तन्त्रशास्त्र में अधो त्रिकोण को योनि का प्रतीक माना जाता है । योनि सृष्टि एवं प्रजनन का प्रतीक है । भारतवर्ष का यह अधो त्रिकोणात्मक भूगोल को तीन प्रमुख शक्तिपीठों ने अधो त्रिकोण का रूप दिया है । जैसे— ईशानकोण में आसाम का कामाख्या पीठ, दक्षिण में पूर्णगिरि पीठ और वायव्यकोण में काश्मीर के श्रीपीठ हैं । इस त्रिकोण के बैन्धवचक्र में केन्द्रबिन्दु के रूप में बिन्ध्याचल के बिन्ध्यवासिनी पीठ हैं । जिस कारण अखिल भारतवर्ष के केन्द्रबिन्दु बिन्ध्यवासिनी पीठ है ।

जिसका अनुवाद भी नेपाली से हिन्दी में किया गया है । बिन्ध्याचल पर्वत से आकर नेपाल के पोखरा शहर में बास करने से उनका पहला नाम बिन्ध्यवासिनी माता है औ दूसरी बात माता हम सबके भीतर विन्दुस्वरूप आत्मा के रूप में सदैव वास करती है । इसलिए उन्हे भक्तजन विन्दुवासिनी माता कहकर भी पुकारते हैं । उस किताब के अनुवाद कार्य अन्तर्गत अध्ययनोपरान्त भारत वर्ष की विशेषता के बारे में पता करने पर वहाँ उस किताब में विस्तृत वर्णन भी दिया गया है ।

नेपाल की राजधानी काठमांडो है । फिर भी पूर्व–पश्चिम में फैला हुआ नेपाल के केन्द्र बिन्दु का मतलब गण्डकी अञ्चल तनहुँ जिला है । जिस कारण भारत में अखिल भारतवर्ष के केन्द्र बिन्दु के रूप में गङ्गा के किनारे बिन्ध्याचल पर्वत में बिन्ध्यवासिनी पीठ है तो नेपाल में माछापुछ«े हिमाल के उपत्यका यानी घाटी और शुक्लधारा –सेतीगण्डकी ने अभिसिञ्चित अन्तरवेदी पोखरा में नेपाल के एक मात्र बिन्ध्यवासिनी माता का मन्दिर है ।

नर–नारायण दो तपस्वी थे । वे अपने तपस्या के प्रभाव से नर–नारायण दो देवता तुल्य बन गयें । भारत में बदरिकाश्रम (बद्री) में नर–नारायण नामक दो पर्वत हैं ।

तो नेपाल में भी माछापुछ हिमाल के दो सबसे ऊपरी नुकिले भागों को नर–नारायण का प्रतीक माना जाता है ।

संस्कृत के महाकवि कालिदास के कुमार सम्भव महाकाव्य के अनुसार कलियुग में देवता सब भारत वर्ष के उत्तर में हिमालय पर्वत के स्वरूप में हैं ।

संसार के सबसे पवित्र हिमालय कैलाशपर्वत एवं पुण्यदायिनी मानसरोवर चीन के स्वशासित क्षेत्र तिब्बत में अवस्थित है । इसी प्रकार संसार के दूसरे पवित्र हिमाल गौरीशंकर एवं पुण्यदायिनी सरोवर छोरोल्पा नेपाल में अवस्थित है । विश्व के सर्वोच्च शिखर सगरमाथा नेपाल में अवस्थित है । इसीलिए कहा जाता है कि सगरमाथा के ऊँचाई पर जब सूर्य की पहली किरण आती है तो संसार की सृष्टि का शुभारम्भ होता है । इसीलिए एक किवदन्ति यह भी है कि सृष्टि का शुभारम्भ नेपाल से होता है । यानी कि सूर्य एवं चन्द्र भी अपना कार्य दोनों देशो में कुछ मिनट के अन्तराल में समान रूप से रात–दिन करते हैं । इसके अतिरिक्ति नेपाल में धौलागिरि, नीलगिरि, अन्नपूर्ण, गणेश, कुम्भकर्ण, महालङ्गुर, कञ्चनजङ्घा इत्यादि पवित्र हिमालय हैं ।

संसार के सुप्रसिद्ध योनिपीठ असाम के कामरूप कामाख्या पीठ है । संसार के दूसरा प्रसिद्ध योनि पीठ नेपाल के गुहेश्वरी पीठ हैं । गुहेश्वरी पीठ के उपस्थिति से पूरे नेपाल को हीं एक शक्ति पीठ के रूप में माना गया है । भारत वर्ष के चार प्रमुख शक्ति पीठों की पूजा करते समय अधोत्रिकोण में यह चारों पीठों की पूजा करते समय केन्द्र में बाराणसी पीठ की पूजा की जाती है । मोहड़ा के तरफ कोण में कामाख्या पीठ, दाहिने कोण में नेपाल पीठ और बायाँ तरफ कोण में पौण्ड्रवद्र्धन पीठ (बंगाल में) की पूजा करने का विधान है ।

पवित्र मानसरोवर से बहती हुई कर्णाली नदी भारत में रामजन्म भूमि अयोध्या से होती हुई सरयु नाम से बहती है एवं गंगा में मिश्रित हो जाती है । सप्तगण्डकी और गंगा के संङ्गम हरिहरक्षेत्र नाम से प्रसिद्ध है ।

दक्षिण भारत में सरस्वती नदी बहती है तो नेपाल में सरस्वती स्वरूपिणी वागमती नदी बहती है । नेपाल एवं भारत दोनों देशों में गोदावरी तीर्थ हैं । उन दोनों तीर्थ स्थानों पर विशाल मेला लगता है । दक्षिण भारत में कृष्ण और कावेरी उपत्यका में अमरावती कलाशैली का विकाश हुआ है । नेपाल में कालीगण्डकी के किनारे में अनेको वैष्णव तीर्थाें की स्थापना हुई है । भारत को चीन के सिल्क रोड में जोड़ने के लिए सब से नीचा और छोटा दूरी वाला रास्ता नेपाल के कालीगण्डकी करिडोर हीं है ।

नेपाल एक सार्वभौम देश है । फिर भी नेपाल–भारत दोनो देशों में एक ऐसी भाईचारा है जो की अन्य कहीं नहीं है । इन दोनों राष्ट्रों के बीच वास्तव में यह अनमोल संम्बन्ध है । जिस प्रकार से भारत और नेपाल में सांस्कृतिक और धार्मिक सम्बन्ध है । वैसा मानो तो दुनियाँ के सायद अन्य किसी मुल्क के साथ नही है । करीब २,५०,००० –दो सौ पचास हजार) नदियाँ नेपाल के सुन्दर मनमोहक हिमालय की आँचल से बहकर गुजरती हुई भारत तक पहुँचती है । भारत के नसों में नेपाल का पानी है । इसीलिए तो भारत और नेपाल के बीच इतनी आत्मीयता है, प्रगाढ सम्बन्ध है । यह हम नही कहते, यह तो नेपाल–भारत के धार्मिक, सांस्कृतिक, ऐतिहासिक बातें और यहाँ तक की नदियाँ, झड़ना सम्पूर्ण प्रकृति बोलती है । जिसके अनेकों प्रमाण ऊपर एवं नीचे की पंक्तियों में वर्णित है ।

नेपाल में पवित्र शालग्राम काली गण्डकी के गर्भ में शिव स्वरूप शिवनाभ एवं विष्णु स्वरूप चक्रनाभ शालीग्राम पाएं जाते हैं । वर्णन तो सीमित स्थान एवं नाता सम्बन्धों का किया जाता है । किन्तु जो अगाध हो, जो असीमित हो, जिसकी कोई सीमा नही, ऐसे प्रेम को क्या हम वर्णन कर सकते हैं ? यहाँ तो हम कहाँ से शुरू करें और कहाँ जाकर खत्म करें । यह पता लगाना हम मानवों के लिए असंभव सा लगता है । यहाँ तो प्राकृतिक, सांस्कृतिक, धार्मिक, लौकिक की तो बात हीं नही है । यहाँ तक की देवी–देवता, नदियाँ सब इधर के ऊधर और ऊधर के इधर है । सब एक आपस में समाहित है, मानो जैसे— शरीर और आत्मा की अवस्था होती है । बाह ! क्या समागम है इन दोनों राष्ट्रों के बीच ।

विश्व के रक्षक विश्वनाथ काशी में विराजित हैं । उसी अनुसार यहाँ नेपाल में भक्तपुर के भैरवनाथ मन्दिर में काशी विश्वनाथ के शिर स्थापना किया गया है । नेपाल के राष्ट्रदेव ! पशुपतिनाथ हिमवन्त प्रदेश में विराजित केदारनाथ के शिर है । इसीलिए पशुपतिनाथ में केरल पद्धति अनुसार से वैदिक विधियों से पूजा करने का विधान है । नौ नाथ—चौरासी सिद्धों के चर्चा से तो नेपाल और भारत के सांस्कृतिक सम्बन्धों को और भी प्रगाढ बनाया है । भारतीय विद्वानों ने और उनके तिब्बती शिष्यों ने भारतीय गूढ़विद्या के आधार पर तिब्बती लामा बौद्धधर्म का विकास किये थे ।

दक्षिण भारत के रामेश्वरम में पाए जाने वाले शङ्ख नेपाल के हिमाली क्षेत्र के गुम्बाओं में बजाए जाते हैं । दक्षिण दिशा से शंङ्खनाद हो रहा है और उत्तर दिशा हिमालय से नदियाँ के जल की धारा ने शंख के कान में ऐसा मन्त्र फूँका है कि शंख ने हर्षित होकर अपने तन के मध्य से मीठी धारा को प्रवाहित होने के लिए रास्ता दे दिया है । भारत–नेपाल के बीच ऐसे कितने अनन्य सांस्कृति, धार्मिक सभ्यता है जिससे हम मानव अभी तक अनभिज्ञ हीं माने जाते है । कितने ऐसे स्थान, पर्वत, गुफा, मठ–मन्दिर, नदियाँ एवं वनप्रदेश है जो कि रहस्यमय है । इसी प्रकार भारत के मठ–मन्दिरों में पूजित देवी–देवताओं के ललाट पर नेपाल के हिमाली क्षेत्र के सुगन्धित कस्तूरी का लेप लगा कर मूर्ति को सजाया जाता है और आरती के समय में नेपाल के सफेद “चंवर” डुलाये जाते हैं ।

भारत के योगियों ने नेपाल के हिमाली कन्दराओं में आकर तपस्या किया करते थे और अपने द्वारा पाये गए ज्ञान से, भारत में जाकर ज्ञान का प्रचार–प्रसार करते थे । यहाँ तक कि साक्षात ईश्वर भी ध्याननिष्ठ होने के लिए हिमालय का आश्रय लेते थे । क्योंकि भारत में अधिक उष्णता के कारण उनका ध्यान भंग होने की संभावना रहती थी । जब अमृत मंथन के समय हलाहल विष निकला, तो दुनिया में हलचल मच गइर्, तब शंकर ने दुनिया के कल्याणार्थ हलाहल विष पान कर अपने कण्ठ में धारण करलिया, तत्पश्चात जब उनके गले में जलन होने लगा तो वे हिमालय की ओर भागे और त्रिशूली ताल यानी कि गोंसाइकुण्ड में समाधिस्थ हो शांति का अनुभव किये । वहाँ जाने वाले तीर्थयात्रियों को उस ताल में समाधि मे लीन शिवशंकर स्वरूप का दर्शन श्रद्धालु भक्तजनों को आज भी होता है । ऐसा तीर्थयात्रियों का कहना है । जिसका साक्षात् प्रमाण अभी भी गोंसाइकुण्ड है ।

नेपाल की बेटी जनकनन्दनी वैदेही सीता से अयोध्या के मर्यादा पुरूषोत्म श्रीराम ने विवाह किये थे । प्रकृति ने क्या सम्बन्ध जोड़ा है । क्या आत्मीयता है । भारत–नेपाल की सांस्कृति में, सच कहे तो विश्व में अनुपम मित्रता है । जिसका उदाहरण किसी अन्य देश के साथ कहीं भी नही है । नेपाल में जन्मे भगवान शाक्यमुनि बुद्ध ! जिन्होने भारत के बुद्धगया में बोधिज्ञान प्राप्त करके विश्व में शान्ति का संदेश फैलाएं थे । वर्तमान में १. काठमाण्डौ और बनारस २. जनकपुर और अयोध्या तथा लुम्बिनी और बुद्धगया के बीच भगिनी नगर का सम्बन्ध स्थापित किया गया है । अगर संक्षिप्त अर्थ में कहा जाए तो नेपाल और भारत के बीच यही है सांस्कृतिक सम्बन्ध । यह तो लघु रूप में सांस्कृति एवं धार्मिक सम्बन्धाें के कुछ संपदाओ को समेट कर दर्शाया गया है । परन्तु ऐसे हजारों परिवार है जहाँ भारत की बेटियाँ नेपाल में और नेपाल की बेटियाँ भारत मे हैं, यहाँ तक की रोजगारी के सम्बन्ध में भी ईधर के ऊधर रहते हैं । जिन्होने इन दोनों देशों पर आँच आने देना नही चाहते हैं । एक दूसरे से इसके कमी–कमजोरियों के बारे में सुनना तक नहीं चाहते हैं । जिसके कारण अधिकतम घर में पति–पत्नी के बीच द्वन्द्व का सामना करना पड़ता है । अपने राष्ट्र के प्रति अगाध स्नेह के कारण संकटो के समय में प्राण न्योछावर करने के लिए भी तैयार रहते हैं । कृपया हमारी यही प्रार्थना है कि भारत–नेपाल के बीच यह अगाध सम्बन्ध एवं असिम स्नेह सदा बरकरार रहे ।

इन दोनो राष्ट्र की मिट्टी कोइ साधारण मिट्टी नहीं है । यह तो साक्षात देव भूमि है । इसके कहीं भी किसी प्रकार से कोई खण्ड होने का प्रमाण नही है और नही संभावना हीं है । इसीलिए पौराणिक ग्रन्थों में इसका एक ही नाम भारतवर्ष पाया जाता है । किन्तु आज के परिवेश में सीमा रेखा में परिवर्तित होते हुए भी, दोनों के नामाकरण अलग–अलग होते हुए भी आत्मा और शरीर का सम्बन्ध है । यही है भारत–नेपाल के बीच सांस्कृतिक सम्बन्धों का आयाम । जिसे वद्र्धन एवं रक्षा करना हमारा कर्तव्य है । मानव धर्म भी यही सिखाता है और हमारा दायित्व भी यही बनता है ।

बिछुड़ कर भी कुछ ले आये हैं, यादें अपने साथ ।
दूर होकर भी एक हैं हम सब, भारत और नेपाल ।।
ऊपर आसमा नीचे धरती, बीच में हम सब साथ ।
आपस में फिर क्या दोष हमारे, आओ हम सब जीलें आज ।।
अगर न होते हम सब संग में, कैसे कहलाता यह भारतवर्ष ।
सुन्दर सभ्यता से सजी संस्कृति, जिसका नाम है भारत–नेपाल ।।
कल–कल करती नदियाँ बहती, धर्मस्थल है यह दोनों राष्ट्र ।
आचार, विचार, आत्मीय भावना से, बना है यह भूभाग ।।

(१. संदर्भ पुस्तिका –डा. गजमान गुरूङ्ग ।)
इति शुभम ।।
-०-
संगीता ठाकुर
जिला–ललितपुर, नेपाल, नगरपालिका–महालक्ष्मी, वाड नं. – ७ (नरकटे, टिकाथली),  घर नं. ४१
ललितपुर (काठमांडू - नेपाल)



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दिवाली (मुक्तक कविता) - विकास पाटिल

दिवाली
(मुक्तक कविता)

जब दिवाली आती है
प्रेम, आत्मीयता, सद्भावना
उमंग, चेतना का
उत्सव लाती है
रिश्तेदार, दोस्तों में
मिठाइयाँ बाटना एक बहाना था
द्वेष, मत्सर को भूलकर
अपनों में प्रेम बढ़ाना था
एक भूचक्र
आँगन-आँगन घूमता
सभी के दिलों में
आनंद भरता
एक फूलछड़ी
चार बच्चे मिलकर सुलगाते
यह खेल देखने
सारे परिवार इकठ्ठा होते
एक फटाखे की माला को खोलकर
सभी एक-एक करके जलाते
जैसे ही फटाके फूट जाते
चेहरे पर हस्सी के फव्वारे फुटते
हाँ, फटाकों की संख्या
बहुत कम थी
खुशियों की तादात
कभी कम न थी
आँगन के दीपों का प्रकाश
भले ही अंधेरा मिटा ना सके
पर एक-दूसरे के दिल
रोशन ही रोशन थे
आँगन का एक दीया
मन के दीप जलाता था
जाति-धर्म, पंथ और रिश्तों की
दुरियाँ मिटाता था
आज भी दिवाली है
चारों ओर रोशनाई है
पर प्रकाशित संसार में
मन के दीप बूझे हुए हैं
आज भी भूचक्र जलता है
पर एक ही आँगन में घूमता है
बाँध लिया है, उसने अपने आपको
घूमता रहा अपनी सीमा में
आज भी फूलछड़ी सुलगती है
उससे ज्यादा लोग जलते हैं
आज भी मीठाइयाँ बाँटी जाती हैं
प्रेम, आत्मीयता की जगह
द्वेष, मत्सर पिरोती है
चलो, इस साल दिवाली में
आत्मीयता, प्रेम, सद्भावना का
सभी मिलकर, एक-एक दीप जलायें
दिवाली आँगन के दीपों से नहीं
मन के दीपों को जलाकर मनायें
-०-
विकास पाटील
आर्टस एंड कॉमर्स कॉलेज, आष्टा सांगली (महाराष्ट्र), भारत
-०-



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अच्छे दिन की आस (कविता) - राम नारायण साहू 'राज'


अच्छे दिन की आस
(कविता)

पहले खुद नियम का पालन करो ,
फिर दूसरे को सिखाओ
पहले खुद एक कदम बढ़ाओ
फिर औरो को बताओ
पहले आप खुद बदलो
फिर औरो को बदलो
अच्छे दिन की आस जल्द पूरी हो जायेगी ||

चाहे माँ या बेटी हो या हो कोई और
सबकी रक्षा खुद करो
फिर औरो से कहो
फैसला पहले खुद करो ,
फिर औरो को फैसला दो
अच्छे दिन की आस जल्द पूरी हो जायेगी ||

अन्याय होता देखकर
डरो और चुप न रहो
पहले खुद आवाज उठाओ फिर औरो से कहो
गलत रास्ते में चलने वाले को छोड़ो
पहले आप रस्ते पे आओ
फिर औरो से कहो
अच्छे दिन की आस जल्द पूरी हो जायेगी ||

फैली और पड़ी गंदगी को साफ करना है तो
पहले आप झाडू उठाओ
फिर औरो से कहो
नियमो का पालन बताने से क्या होगा
पहले खुद करो
फिर औरो से कहो
अच्छे दिन की आस जल्द पूरी हो जायेगी ||

संस्कार और व्यवहार सिखाने से पहले
आप खुद सीखो ,
फिर औरो को सिखाओ
हथियार छोड़ शांति से बात करना
पहले आप सीखो
शांति की बात फिर बताओ
अच्छे दिन की आस जल्द पूरी हो जायेगी ||
-०-
राम नारायण साहू 'राज'
रायपुर (छत्तीसगढ़)

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सब्ज़ी मेकर (लघुकथा) - डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

सब्ज़ी मेकर
(लघुकथा)
इस दीपावली वह पहली बार अकेली खाना बना रही थी। सब्ज़ी बिगड़ जाने के डर से मध्यम आंच पर कड़ाही में रखे तेल की गर्माहट के साथ उसके हृदय की गति भी बढ रही थी। उसी समय मिक्सर-ग्राइंडर जैसी आवाज़ निकालते हुए मिनी स्कूटर पर सवार उसके छोटे भाई ने रसोई में आकर उसकी तंद्रा भंग की। वह उसे देखकर नाक-मुंह सिकोड़कर चिल्लाया, “ममा… दीदी बना रही है… मैं नहीं खाऊंगा आज खाना!”
सुनते ही वह खीज गयी और तीखे स्वर में बोली, “चुप कर पोल्यूशन मेकर, शाम को पूरे घर में पटाखों का धुँआ करेगा…”
उसकी बात पूरी सुनने से पहले ही भाई स्कूटर दौड़ाता रसोई से बाहर चला गया और बाहर बैठी माँ का स्वर अंदर आया, “दीदी को परेशान मत कर, पापा आने वाले हैं, आते ही उन्हें खाना खिलाना है।”
लेकिन तब तक वही हो गया था जिसका उसे डर था, ध्यान बंटने से सब्ज़ी थोड़ी जल गयी थी। घबराहट के मारे उसके हाथ में पकड़ा हुई मिर्ची का डिब्बा भी सब्ज़ी में गिर गया। वह और घबरा गयी, उसकी आँखों से आँसूं बहते हुए एक के ऊपर एक अतिक्रमण करने लगे और वह सिर पर हाथ रखकर बैठ गयी।
उसी मुद्रा में कुछ देर बैठे रहने के बाद उसने देखा कि खिड़की के बाहर खड़ा उसका भाई उसे देखकर मुंह बना रहा था। वह उठी और खिड़की बंद करने लगी, लेकिन उसके भाई ने एक पैकेट उसके सामने कर दिया। उसने चौंक कर पूछा, “क्या है?”
भाई धीरे से बोला, “पनीर की सब्ज़ी है, सामने के होटल से लाया हूँ।”
उसने हैरानी से पूछा, “क्यूँ लाया? रूपये कहाँ से आये?”
भाई ने उत्तर दिया, “क्रैकर्स के रुपयों से… थोड़ा पोल्यूशन कम करूंगा… और क्यूँ लाया!”
अंतिम तीन शब्दों पर जोर देते हुए वह हँसने लगा।
-०-
डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी
डाक का पता: 3 प 46, प्रभात नगर, सेक्टर-5, हिरण मगरी, उदयपुर (राजस्थान) – 313 002


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विडम्बना (कहानी)- गोपाल सिंह सिसोदिया

विडम्बना
(कहानी)

“हैलो पापा जी, कैसे हैं आप? आपकी तबियत तो ठीक है न?” कमल ने कनाडा से दिल्ली मे रह रहे अपने पिता को फोन करके पूछा।

“हाँ बेटा मैं ठीक हूँ, तुम कैसे हो? ठीक से खा-पी तो रहे हो न? देखो, खाने-पीने में कमी बिल्कुल मत करना, वरना बीमार पड़ जाओगे।” सुरेश ने पुत्र का हालचाल पूछते हुए हिदायत दी।

“जी पापा जी, मेरी चिंता आप बिल्कुल मत करिये, यहाँ सब ठीक है।” कमल ने बताया

“कहीं तुम्हारी नौकरी लगी या नहीं?” सुरेश ने पूछा।

“अच्छा पापा जी, मैं आपको बाद में फोन करता हूँ।” कमल ने कहते हुए फोन काट दिया।

असल में कमल को कनाडा आए छह माह होने जा रहे हैं। वह अपने स्वप्न साकार करने के लिए कनाडा आया था, पर असलियत कनाडा पहुँचने के उपरांत ही उसकी समझ में आई कि दूर के ढोल सुहाने लगते हैं। आने से पूर्व उसका अनुमान था कि उसे कनाडा पहुँचते ही कम्पनियाँ हाथों हाथ ले लेंगी, पर हुआ इसके बिल्कुल विपरीत। वह जहाँ भी आवेदन देता, उसके हाथ निराशा ही आती। यहाँ तक कि घर से लाए उसके सारे रुपये रहने तथा खाने के प्रबन्ध में ही समाप्त हो गये। अब वह पूरे-पूरे दिन भूखा एक दफ्तर से दूसरे दफ्तर नौकरी की तलाश में भटकता रहता और शाम को थक कर अपने बिस्तर में आ पड़ता। जब उसके पिता ने उससे उसकी नौकरी के विषय में पूछा तो उससे कोई जवाब देते न बना। उसकी आँखें भर आईं और गला रुंध गया, इसीलिए उसने फोन काट दिया। वह फोन एक ओर रखकर अपने अतीत में उतरता चला गया। उसे रह-रहकर अपना घर, शहर और देश याद आने लगा।

कमल के पिता सुरेश सरकारी दफ्तर में क्लर्क के पद पर कार्य करते थे। उनकी पत्नी रमा पढ़ी-लिखी एवं सुशील महिला थी। यदि वे चाहती तो नौकरी भी कर सकती थीं, परन्तु उन्होंने घर सम्भालना अधिक उचित समझा। इससे सुरेश भी प्रसन्न हुए। उनकी सीमित आय थी, पर वे दोनों संतुष्ट थे।

उनके दो बच्चे हुए। बड़ी बेटी रश्मी और छोटा बेटा कमल। रश्मी पढ़-लिखकर अध्यापिका हो चुकी थी। उसने अपनी पसंद के लड़के से विवाह कर लिया था। यद्यपि यह बात सुरेश तथा रमा को रत्ती भर भी पसंद नहीं आई थी, पर रश्मी की धमकी, “यदि विकास से मेरा विवाह न हुआ तो मैं आत्म हत्या कर लूंगी”, के समक्ष उन्होंने घुटने टेक दिये। वर पक्ष की हर जायज़ और नाजायज़ शर्त मानकर उन्होंने उसका विवाह कर दिया।

रमा पुत्री के इस व्यवहार को सह न सकी और अंदर ही अंदर घुलती चली गयी। उन्होंने खाना-पीना त्याग दिया। न किसी से कुछ कहती और न किसी की सुनती, मुख पर जैसे ताला ही जड़ गया था। वह प्रायः बीमार रहने लगी। सुरेश उन्हें एक अस्पताल से दूसरे अस्पताल दिखाते फिरते, पर कोई रोग होता तो ठीक होता न! रोग तो कोई था ही नहीं, उन्हें तो गहरा आघात लगा था और वह भी स्वयं की पुत्री के व्यवहार से। अतः उनका शरीर सूखता ही चला गया। आखिर उन्होंने इस फरेबी संसार को अलविदा कह दिया।

जिस समय रमा की मृत्यु हुई थी, उस समय कमल ने बारहवीं किया था। सारी गृहस्थी बिखर गयी। सुरेश अपना खयाल रखते अथवा कमल का। वे भी पत्नी की आकस्मिक मौत से अंदर तक टूट गये थे। वही तो थी जो सुरेश का एक मात्र सहारा थी। लेकिन वह सहारा हमेशा-हमेशा के लिए छिन गया था। सुरेश नितांत अकेले रह गये थे। उनकी भी स्थिति अब पत्नी वाली हो गयी थी। लोग समझाते कि भाई, “मरने वाले के साथ मरा थोड़े ही जाता है! तुम्हारा एक बेटा भी तो है, यदि तुम्हें कुछ हो गया तो उसका क्या होगा?” अतः किसी तरह उन्होंने स्वयं को सम्भाला और कमल पर ध्यान केन्द्रित कर दिया और उसे आगे पढ़ने के लिए उन्होंने कॉलेज में प्रवेश हेतु आवेदनपत्र भरवा दिये, पर कमल का प्रवेश किसी प्रकार भी न हो सका। प्रत्येक कॉलेज की कट ऑफ इतनी ऊँची गयी कि उसका नाम किसी कॉलेज की लिस्ट में न आ पाया। इसलिए उसने कितने ही प्रकार के डिपलोमा कर डाले।

इस बीच एक और विशेष बात यह हुई कि सुरेश सेवा निवृत्त हो गये।

एक रात जब वे नींद की गोली खाकर सो चुके थे, उसके पश्चात् विकास का फोन आया, वह घबराहट भरे स्वर में बोला,

“पापा जी, रश्मी लेबर रूम में है। डॉक्टर कहते हैं कि बच्चा बहुत कमज़ोर है, इसलिए जच्चा-बच्चा दोनों की जान को खतरा है। कोई बड़ा ऑपरेशन करना पड़ेगा। इसके लिए तुरंत रुपये जमा कराने पड़ेंगे। मेरे पास अभी हैं नहीं और मम्मी-पापा दे नहीं रहे। इसलिए मैं आपसे रिक्वेस्ट कर रहा था कि आप पाँच लाख मेरे अकाउन्ट में ट्रांस्फर कर दीजिये। मेरे पास जैसे ही रुपये आएंगे, वैसे ही आपको लौटा दूंगा।”

भोलेभाले सुरेश दामाद की चालाकी न समझ सके और बोले,

“रश्मी मेरी भी बेटी है, यदि उसे कुछ हो गया तो मेरे रुपये किस काम के। विकास, मैं अभी कमल से रुपये ट्रांस्फर करवाता हूँ। तुम बिल्कुल चिंता मत करो, डॉक्टर्स से बोलो कि इलाज में कोई कमी न छोड़ें। मेरी बेटी और उसके बच्चे को कुछ नहीं होना चाहिये। मैं भी अभी पहुँचता हूँ।”

“अरे नहीं पापा जी, आपके आने की कोई ज़रूरत नहीं है, डॉक्टर्स अपना काम कर रहे हैं, आप तो बस रुपये भेज दीजिये।” विकास ने कहा और फोन काट दिया।

सुरेश ने पुत्र को उठाया और विकास के अकाउंट में पाँच लाख रुपये स्थानांतरण करवा दिये। जब वे अस्पताल पहुँचे तो ज्ञात हुआ कि ऑपरेशन तो हुआ ही नहीं। इस प्रकार सुरेश की सेवा निवृत्ति पर मिली रकम बेटी-दामाद ने हड़प ली। भविष्य निधि तो वे रश्मी के विवाह पर ही खर्च कर चुके थे। अब वे खाली हाथ रह गये। अब एक मात्र महीने की बीस हज़ार पेंशन रह गयी, जिससे घर का खर्च चलता था।

इधर दूसरी ओर कमल को डिपलोमा के आधार पर कहीं कोई अच्छी नौकरी नहीं मिल पा रही थी। यदि कोई मिल भी जाती तो मात्र आठ-दस हज़ार की, जिसे वह ठुकरा देता। उसके स्वप्न बहुत बड़े थे। उन्हीं दिनों उसके मित्र ने उसे बताया,

“तुम्हारे जैसे टैलेंटेड आदमी के लिए यहाँ इंडिया में क्या रखा है, यदि तुम्हें इसी लाइन में काम करना है तो तुम कनाडा चले जाओ, वहीं इस लाइन का सर्वाधिक काम होता है।”

मित्र की बात कमल को अपील कर गयी। चुनाँचे, कमल ने अपने पिता से इस विषय में बात की। बेटे की बात सुनकर पहले पहल सुरेश भड़क उठे और बोले,

“हाँ भाई, तुम भी अपनी मर्ज़ी चलाओ, एक ने अपनी मर्ज़ी चलाकर अपनी माँ को मार डाला, अब क्या मुझे भी ....!”

“यदि आपकी यही इच्छा है कि मैं आठ-दस हज़ार की नौकरी में स्वयं को जीवन भर घिसता रहूँ तो, ठीक है, मैं नहीं जाता।” कमल ने आँखों में आँसू भर कर कहा।

उसके बाद वह उठकर अपने कमरे में चला गया। जब वह शाम को भी उनके साथ खाने न बैठा तो उन्होंने पुत्र को अपने पास बुलाया और बोले,

“कमल, मैं कुछ स्वार्थी हो गया था। मैं अपने विषय में सोचने लगा था कि तुम्हारे जाने के पश्चात् मैं नितांत अकेला हो जाऊंगा, इसीलिए मैंने तुम से सुबह ऐसा कहा था। मैंने भी इस विषय में बहुत सोचा है और इस निर्णय पर पहुँचा हूँ कि तुम्हें अपने स्वप्न साकार करने का पूरा अधिकार है, वह तो मैं ही....। परन्तु पंद्रह लाख का इंतज़ाम कैसे होगा!”

एक दिन वे बैठे इसी प्रश्न पर सिर धुन रहे थे कि कमल को विदेश कैसे भेजें। उन्हें स्वयं पर ही झल्लाहट होने लगी कि यदि उन्होंने कोई बचत योजना ले ली होती तो आज ये दिन न देखना पड़ता। वे बैठे अपने अतीत में हो गयी भूलों पर इसी प्रकार पछता रहे थे कि कमल आ गया। कमल आज बड़ा खुश लग रहा था। आते ही चहकते हुए बोला,

“पापा जी, आप तनिक भी परेशान न हों। रुपयों का इंतज़ाम हो गया है।”

बेटे की बात सुनकर सुरेश प्रसन्न भी हुए और आश्चर्यचकित भी। अतः बोले,

“वो कैसे? ज़रा मुझे भी तो बताओ कि ऐसा कौन भला आदमी है, जो इतने रुपये तुम्हें देने को तैयार हो गया?”

“पापा जी, मैंने अपनी परेशानी जीजा जी को बताई थी। उन्होंने कहा कि मैं जाने की तैयारी करूँ, रुपये का इंतज़ाम वे स्वयं कर देंगे।” कमल ने बताया।

सुनकर सुरेश प्रसन्न हुए कि चलो अच्छा हुआ, विकास ने अपना कर्तव्य तो निभाया! पाँच लाख तो मेरे ही दिये हुए हैं, शेष कमल वहाँ कमा कर भिजवा देगा। तैयारियाँ होने लगीं। कमल का पासपोर्ट बना और वीज़ा के लिए आवेदन हो गया। आखिर वह दिन भी आ गया कि कमल का वीज़ा स्वीकृत हो गया। सुरेश और कमल दोनों बहुत प्रसन्न हुए, पर सबसे अधिक प्रसन्न हुआ विकास।

उसी दिन विकास और रश्मी मिलने आ गये। रात्रि भोजन के उपरांत विकास ने कोर्ट का एक पेपर निकाला और सुरेश के सामने रखते हुए बोला,

“पापा जी, यहाँ एक साइन कर दीजिये। वैसे तो घर की ही बात है, पर पापा जी कहते हैं कि लिखा-पढ़ी करने में कोई बुराई नहीं है, मात्र औपचारिकता ही तो है।”

“हाँ-हाँ, क्यों नहीं! इसमें कोई हर्ज़ नहीं है, रुपयों का मामला है, लिखा-पढ़ी होनी ही चाहिये।” कहते हुए उन्होंने पेपर पर साइन कर दिये।

कमल अपनी मंज़िल की तलाश में कनाडा के लिए रवाना हो गया था। घर में अब अकेले सुरेश ही तो रह गये थे। अब उनका दिन कटता था न रात, वे खुद को बहुत अकेले महसूस कर रहे थे। किसी प्रकार दो माह गुज़र गये। एक दिन उन्हें डाक से लीगल नोटिस प्राप्त हुआ, जिसमें लिखा था,

“आप निर्धारित एक माह में मेरे मुवक्किल के रुपये पंद्रह लाख नहीं लौटा पाए हैं, इसलिए समझौते के मुताबिक आपका मकान उनका होता है, अतः आप इस नोटिस की प्राप्ति के एक माह के अंदर मकान खाली कर, मेरे मुवक्किल को हैंड-ओवर कर दें।”

वे नोटिस पढ़ने के उपरांत पहले तो कुछ समझ ही नहीं सके। परन्तु फिर उन्हें कोर्ट के पेपर साइन करने की बात स्मरण हो आई। इसका अर्थ यह हुआ कि मेरे अपने ही दामाद ने मेरे साथ दगा किया है। वे क्या करें, अपने दुर्भाग्य पर रोएं अथवा हँसें। उनकी कनपटियाँ फटने को हुईं। उन्होंने अपने दोनों हाथों से अपना सिर पकड़ लिया। न जानें उस रात वे कितनी बार अपनी पत्नी को स्मरण करके रोते रहे।

अगले दिन वे रश्मी के ससुराल पहुँचे। उनसे किसी ने सीधे मुँह बात भी नहीं की। रश्मी एक बार आई और सामने पानी का गिलास रखकर चली गयी। वे और भी अधिक व्यथित हुए। माना कि ये लोग तो पराए हैं, पर क्या मेरी बेटी भी पराई हो गयी। वे वहाँ से चुपचाप उठ आए और अपने पड़ोस में एक कमरे का फ्लैट किराए पर ले लिया। उसके बाद घर का अधिकांश सामान बेच दिया। जितना आवश्यक था, उतना ही रखा। उसके उपरांत चाभियाँ रश्मी के ससुराल भिजवा दीं। मगर उन्होंने पुत्र को कुछ न बताया कि उसके जाने के पश्चात् उनके साथ कितना बड़ा धोखा हुआ है। बताते भी क्या कि उसी के दीदी-जीजा जी ने उसका पचास लाख का मकान किस प्रकार षडयंत्र करके हथिया लिया।

उधर दूसरी ओर कनाडा में कमल को काम न मिला। मकान मालिक ने किराया न दे पाने की स्थिति में उसे जेल भिजवा दिया। कमल ने आखिर मजबूर होकर अपने पिता को वास्तविक स्थिति एक पत्र की शक्ल में लिख भेजी।

पिता तो पिता ठहरे, वे संतान के लिए कुछ भी कर गुज़रने को तत्पर हो जाते हैं। उन्हें अपने घनिष्ठ मित्र अली का खयाल आया और वे तुरंत उनसे मिलने जा पहुँचे। अली ही एक मात्र तो सुरेश के बचपन के मित्र थे। सुरेश सरकारी नौकरी में चले गये और अली ने अपना व्यापार प्रारम्भ कर दिया। कुशल-क्षेम के पश्चात् उन्होंने अपने साथ हुई तमाम घटनाएं सिलसिलेवार बताईं, जिन्हें सुनकर अली बहुत दुखी हुए। अंत में बोले,

“सुरेश, तुम बताओ कि मैं तुम्हारी क्या सहायता कर सकता हूँ?”

“अली, मुझे सबसे पहले अपने बेटे को इंडिया लाना है। इसके लिए मुझे तीन लाख रुपयों की जरूरत है। यदि तुम मुझे ये रकम उधार दे दो तो मुझ पर तुम्हारा बड़ा एहसान होगा। मैं तुम्हारी पाई-पाई चुका दूंगा।” कहते-कहते उनकी आँखें भर आईं।

अली ने उसके नाम का चैक काटा और उन्हें देते हुए बोले,

सुरेश, जैसा तुम्हारा बेटा, वैसा ही मेरा, पहले तुम उसे वापस लाने का इंतज़ाम करो, रुपयों के लिए परेशान होने की जरूरत नहीं है। अरे ठहरो, किस शहर में है वह?”

“टोरेंटो।” किसी प्रकार सुरेश ने गला साफ करते हुए उत्तर दिया।

“तो समझो तुम्हारा काम हो गया। मेरा एक रिश्तेदार वहीं रहता है। तुम मुझे उसकी पूरी तप्सील लिख कर दो, मैं उनसे आज ही बात करता हूँ।”

सुरेश ने कमल द्वारा लिखा पत्र उसके हाथ पर रख दिया। उन्होंने पत्र पर सरसरी नज़र डाली और रख लिया। उसके पश्चात् बोले,

“सुरेश, तुम अब परेशान मत हो, खुदा ने चाहा तो कमल जल्दी ही इंडिया लौट आएगा। मैं आज ही बात करूगा।”

“भगवान तुम्हारा भला करे। अच्छा अब मैं चलता हूँ।” कहते हुए सुरेश उठ खड़े हुए।

“अरे नहीं यार, आज खाना खाकर जाना।” अली ने सुरेश को बैठने का इशारा करते हुए कहा।

“नहीं अली, पहले कमल लौट आए, फिर हम दोनों आएंगे। अच्छा तुम ज़रा उनसे बात करके देखो!” कहते हुए सुरेश ने अली से हाथ मिलाया और बाहर निकल गये।

अगले ही दिन अली के रिश्तेदार ने कमल का जुर्माना भरकर छुड़वा लिया। उसके पश्चात् उसकी टिकिट करवा कर वापस इंडिया भेज दिया।

जब कमल एअरपोर्ट से बाहर निकला तो उसने देखा, सामने उसके पापा खड़े हैं और उनकी बेचैन नज़र शायद उसी को ढूढ़ रही है। वह दौड़कर अपने पिता से उसी प्रकार लिपट गया, जिस प्रकार वह बचपन मे विद्यालय से वापस लौटकर लिपट जाया करता था।
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संपर्क
एस.जी.एस. सिसोदिया (श्रीगोपाल सिंह सिसोदिया)
पता - फ्लैट न. 1654, टाईप-4, दिल्ली सरकार आवासीय परिसर, गुलाबी बाग, दिल्ली – 110007 
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सादगी (आलेख) - बलजीत सिंह

सादगी
(आलेख)
सड़क में जितने ज्यादा मोड़ होंगे , उस पर चलने में उतनी ही ज्यादा परेशानी होगी । अगर उस सड़क को सीधा कर दिया जाए , उसकी दूरी भी कम होगी और पहुंचने में समय भी कम लगेगा । इसी प्रकार हमारे जीवन में अनेक उतार-चढ़ाव आते हैं । अगर हम उतार-चढ़ाव के समय थोड़ा -सा संभल कर चलें , हमारा जीवन पहले की अपेक्षा अच्छा हो सकता है । जीवन को अच्छी तरह से जीने के लिए मनुष्य में सादगी का होना बहुत जरूरी है ।

हमारी सोच एवं व्यवहार में किसी प्रकार के बाह्य दिखावे का न पाया जाना , सादगी या सादापन कहलाता है । जिस मनुष्य में सादगी होती है , उसका वैभव कभी कम नहीं होता ।

चेहरे पर मालिश करने से चमक आ जाती है , परंतु वह चमक कुछ समय बाद फीकी पड़ जाती है । उस चमक को बरकरार रखने के लिए , हमें सबसे पहले अपने शरीर को स्वस्थ रखना पड़ेगा । शरीर से पसीना बहाना पड़ेगा ।उसके बाद चेहरे पर जो चमक आएगी ,वह कभी फीकी नहीं पड़ेगी ।चमक को पैदा किया जा सकता है , उसके लिए किसी बाह्य पदार्थ को चेहरे पर लगाने की आवश्यकता नहीं होती ।

कच्छी ककड़ी को काटकर , उसे अच्छी तरह से साफ करके ,उस पर नमक लगाकर ,जब हम खाते हैं, वह उतनी स्वादिष्ट नहीं लगती , जितनी एक पक्की हुई ककड़ी लगती है । पक्की हुई ककड़ी खाने में स्वादिष्ट होती है , उस पर नमक लगाने की आवश्यकता नहीं होती ,क्योंकि उसकी सादगी में ही उसकी ताजगी होती है ।

अच्छे कपड़े पहनना अच्छी बात है ,परंतु ऐसा भी मत पहनो ,जिसमें अश्लीलता नजर आती हो । जिन वस्त्रों को पहनने से अश्लीलता नजर आती है , उनसे कभी सुंदरता नहीं बढ़ती । सुंदरता तो उन वस्त्रों से बढ़ती है , जो अच्छी तरह से पहने जाते हैं , अच्छी तरह से साफ- सुथरे होते हैं अर्थात् सुंदरता हमेशा सादगी से ही बढ़ती है ।

मकान की दीवारों पर सुंदर-सुंदर तस्वीरें तभी अच्छी लगती है , जब हम उस मकान में सफाई रखते हैं । उन तस्वीरों पर धूल जमने से , उस मकान को कोई सुंदर नहीं कहेगा । जिस मकान में सफाई होती है , उसे ही सुंदर मकान कहा जाता है । सफाई में वह सादगी होती है , जिसके सामने रंग-बिरंगी दीवारें भी फीकी दिखाई देने लगती हैं अर्थात् सादगी सर्वगुण संपन्न होती है ।

सोने के गिलास में पानी का स्वाद वैसा ही होता है , जैसा कांच के गिलास में होता है । यहां पर हमें पानी पीने की इच्छा होती है , गिलास की नहीं । ऐसे समय में हमें गिलास की गुणवत्ता को नहीं देखना , पानी की गुणवत्ता को देखना है । वह पानी कितना शुद्ध है , यह बात हमारे लिए महत्वपूर्ण है । पानी कौन से गिलास में पीते हैं , यह बात महत्वपूर्ण नहीं है ।

गर्मी के मौसम में , किसी छायादार वृक्ष के नीचे बैठने से जो आनंद प्राप्त होता है , वह आनंद किसी वातानुकूलित कमरे में प्राप्त नहीं होता । वृक्ष के नीचे हमेशा ठंडी हवा लगती है , उस हवा में शुद्धता भी होती है । शुद्ध हवा में ताजगी होती है , जो हमारे स्वास्थ्य के लिए लाभदायक होती है । इसलिए खुले वातावरण में हमें ताजगी का अनुभव होता है ।

हम जैसा भी हम खाते हैं , हमारा मन वैसा ही हो जाता है । बाजरा , मक्का आदि मोटा अन्न खाने से हमें ताकत मिलती है और नींद भी गहरी आती है । गेहूं , चावल , चना आदि इन सभी अन्नों में पौष्टिक गुण होते हैं । हमें मौसम के अनुकूल सभी अन्न खाने चाहिए । इसी प्रकार सादगी भी सर्वगुण संपन्न होती है , हमें इसके गुणों को अवश्य पहचाना चाहिए ।

भोजन पकाने के लिए ऊर्जा की आवश्यकता होती है । इसी प्रकार सादा जीवन व्यतीत करने के लिए , हमारे अंदर ऊर्जा का होना अति आवश्यक है । अतः सादगी ही वह ऊर्जा है ,जो हमारे जीवन को उभार सकती है ।
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बलजीत सिंह
हिसार ( हरियाणा )
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स्वप्न (गीत) - डॉ० धाराबल्लभ पांडेय 'आलोक'


स्वप्न
(गीत)
स्वप्न देखते हुए बढ़े चलो।
हौसले बुलंद कर चढ़े चलो।।

क्या हुआ जो, तुम सफल न हो सके?
क्या हुआ जो, सोचा तुम न पा सके?
देखो छोटी-छोटी, चींटियों को तुम।
फिसल-फिसल के, भी न जो पीछे हटे।
आज जो करना है, वो करते चलो।
हौसले बुलंद कर, चढ़े चलो ।।

बढ़े चलो, कर्तव्य पथ से मत हटो।
करते रहो, जो सोचा मन में मत रुको।
यह विचार दृढ़ हो, मन में धर सदा।
कर्म फल की आस, बिन नहीं रुको।
कर्म ही अधिकार है, किये चलो।
हौसले बुलंद कर, चढ़े चलो।।
-०-
डॉ० धाराबल्लभ पांडेय 'आलोक'
अध्यापक एवं लेखक
29, लक्ष्मी निवास, कर्नाटक पुरम, मकेड़ी, धारानौला चितई रोड, अल्मोड़ा, पिन- 263601,
उत्तराखंड, भारत।

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महावीर का निर्वाणोत्सव: ज्ञान का प्रतीक है प्रज्जवलित दीपक (आलेख) -संदीप सृजन

महावीर का निर्वाणोत्सव

ज्ञान का प्रतीक है प्रज्जवलित दीपक 
(आलेख)

दीपावली का पर्व भारतीय सनातन परम्परा का लौकिक और अलौकिक पर्व माना गया है। लौकिक स्वरूप में जहॉ खानपान, वैभव और उत्साह का वातावरण इस पर्व को प्रमाणिकता प्रदान करता है। वहीं अलौकिक रूप में यह पर्व आत्मोकर्ष का प्रमुख पर्व है। लौकिक और अलौकिक के बीच तंत्र साधकों के लिए परालौकिक स्वरूप भी इस पर्व का है। लेकिन जन सामान्य के लिए लौकिक और अलौकिक इन दो रूपों में ही इसकी महत्ता है। सनातन धर्म की वैष्णव परम्परा में भगवान राम का अयोध्या आगमन उत्सव लौकिकता तो श्रमण परम्परा (जैन धर्म) में भगवान महावीर का निर्वाण अलौकिकता का स्वरूप है। 

कार्तिक अमावस्या की रात्री में भगवान महावीर स्वामी को मोक्ष की प्राप्ति हुई थी। इस दिन महावीर का निर्वाणोत्सव मनाया जाता है।अपनी आयु के 72 वें वर्ष में जब महावीर पावापुरी नगरी के मनोहर उद्यान में चातुर्मास के लिए विराजमान थे। तब चतुर्थकाल पूरा होने में तीन वर्ष और आठ माह बाकी थे। तब कार्तिक अमावस्या के दिन सुबह स्वाति नक्षत्र के दौरान भगवान महावीर अपने औदारिक शरीर से मुक्त होकर मोक्षधाम को प्राप्त हो गए। उस समय इंद्रादि देवों ने आकर भगवान महावीर के शरीर की पूजा की और पूरी पावा नगरी को दीपकों से सजाकर प्रकाशयुक्त कर दिया। उसी समय से आज तक यही परंपरा जैन धर्म में चली आ रही है। प्रतिपदा के दिन भोर में महावीर के प्रथम शिष्य गौतम को कैवल्यज्ञान की प्राप्ति हुई थी। इससे दीपोत्सव का महत्व जैन धर्म में और बढ़ गया। 

भगवान महावीर अरिंहत है, और अरिहंत को संसार में गुरु के रूप में माना जाता है। भगवान महावीर के सिद्द गमन को तब विद्वजनों ने ज्ञान दीप का राज होना (बुझना) माना और मिट्टी के दीप प्रज्जवलित कर संसार को आलोकित करने का प्रयास किया था।भगवान महावीर ने दीपावली वाले दिन मोक्ष जाने से पहले आधी रात तक जगत के कल्याण के लिए आखिरी बार उपदेश दिया था, जिसे 'उत्तराध्यान सूत्र' के नाम से जाना जाता है। इस ग्रंथ में सर्वाधिक बार कोई वाक्य आया है तो वह है ‘समयं गोयम ! मा पमायए’गौतमस्वामी कोजो कि भगवान महावीर के प्रधान शिष्य थे, प्रधान गणधर थे, उनको संबोधित करते हुए यह प्रेरणा महावीरने दी कि आत्मकल्याण के मार्ग में चलते हुए क्षण भर के लिए भी तू प्रमाद मत कर। ढाई हजार वर्ष पहले दी गई वह प्रेरणा कितनी महत्त्वपूर्ण है। प्रमाद अज्ञानता की ओर ले जाता है।ज्ञान जीवन में प्रकाश करने वाला होता है। शास्त्र में भी कहा गया- 'नाणं पयासयरं' अर्थात ज्ञान प्रकाशकर है। इसीलिए ज्ञान को प्रकाश और अज्ञान को अंधकार की उपमा दी जाती है । दीपक हमारे जीवन में प्रकाश के अलावा जीवन जीने की सीख भी देता है, दीपक हमारे जीवन की दिशा को उर्ध्वगामी करता है, संस्कारों की सीख देता है, संकल्प की प्रेरणा देता है और लक्ष्य तक पहुंचने का माध्यम बनता है।दीपावली मनाने की सार्थकता तभी है, जब भीतर का अंधकार दूर हो। अंधकार जीवन की समस्या है और प्रकाश उसका समाधान। जीवन जीने के लिए सहज प्रकाश चाहिए। प्रारंभ से ही मनुष्य की खोज प्रकाश को पाने की रही।

उपनिषदों में भी कहा गया है- ‘असतो मा सद्गमय।तमसो मा ज्योतिर्गमय।मृत्योर्मामृतं गमय॥‘अर्थात-मुझे असत्य से सत्य की ओर ले चलो।मुझे अन्धकार से प्रकाश की ओर ले चलो।मुझे मृत्यु से अमरता की ओर ले चलो॥ इस प्रकार हम प्रकाश के प्रति, सदाचार के प्रति, अमरत्व के प्रति अपनी निष्ठा व्यक्त करते हुए आदर्श जीवन जीने का संकल्प करते हैं।आज के समय में चारों ओर फैले अंधेरे ने मानव-मन को इतना कलुषित किया है कि वहां किसी दिव्यता, सुंदरता और सौम्यता के अस्तित्व की कोई गुंजाइश नहीं बचती। परंतु अंधकार को चीरकर स्वर्ण-आभा फैलाती प्रकाश की प्राणशक्ति और उजाले को फैलाते दीपक की जिजीविषाअद्‍भूत है।

दीपावली का संदेश जितना अध्यात्मिक है उतना ही भौतिक भी है। राम, महावीर, दयानंद सरस्वती, नानकदेव आदी कई महापुरुषों के जीवन की विशिष्ट घटनाएँ इस पर को अलौकिक बनाती है। और सभी के ज्ञान का सम्मान दीपक के रूप में किया जाना सभी के आदर्षों को स्वीकार कर जीवन को उत्साह पूर्वक जीना इस पर्व को भौतिक रूप से समृद्ध करता है।
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संदीप सृजन
संपादक-शाश्वत सृजन
ए-99 वी.डी. मार्केट, उज्जैन 456006

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न रहेगा बाँस न बजेगी.... (लघुकथा) - वाणी बरठाकुर 'विभा'

न रहेगा बाँस न बजेगी....
(लघुकथा) 
व्याकरण के अध्यापक पंडित उमा शर्मा जी जैसे ही कक्षा में प्रवेश किये, विद्यार्थीगण चुप हो गए और सभी खड़े होकर दोपहर का अभिवादन ज्ञापन किया । सबको पता है कि गुरुवर व्याकरण के मामले में बहुत सख्त हैं। वैसे तो बहुत दयालु भी हैं, लेकिन कभी-कभी किसी एक विषय पर सही रिजल्ट जब तक नहीं निकलता तब तक बच्चों को नहीं छोड़ते हैं । इसलिए बच्चे अक्सर डरते रहते हैंकि आज गुरुवर क्या पढ़ाएंगे !
अध्यापक कक्षा में प्रवेश करके बच्चों को अभिवादन करके बोलने लगे "क्या आप सभी जानते हैं कि हर मुहावरा अलग अलग भाव दर्शाता है? " सभी ने एक साथ जवाब दिया "हाँ, गुरु जी" । अध्यापक बोले, "जैसे -'मुंह के बल गिरना', 'दाल में कुछ काला है', 'नाच न जाने आँगन टेढ़ा', 'न रहेगा बाँस न बजेगी बाँसुरी'..........इत्यादि इत्यादि ।"
कुछ समय मौन रहकर अध्यापक जी फिर से बोलने लगे ," यहाँ जो मैंने बताया 'मुंह के बल गिरने' का मतलब है कि ठोकर खाकर औंधे मुँह गिरना। 'न रहेगा बाँस न बजेगी बाँसुरी' का अर्थ है मुसीबत को जड़ से खत्म करना । अब मैं आप सभी से पूछूँगा, एक एक वाक्य बताना । पहले अनीता तुम न रहेगा बाँस न बजेगी बाँसुरी का तात्पर्य बताओ ।" अनीता खड़ी होकर बोली , "न रहेगा बाँस अर्थात हमारे जीवन में आने वाली मुसीबतों को पहले ही दूर करें तो कभी भी मुसीबत नहीं आएगी, जैसे बाँसुरी नहीं बजेगी । इसलिए हमेशा हमें मुसीबत को जड़ से उखाड़ देना चाहिए ताकि हमारे जीवन में फिर न आने पाए ।" प्रतिम खड़े होकर बोलने लगा, "गुरुवर, कल भारतीय वायु सेना मिराज विमानों ने मुजफ्फरपुर, बालाकोट, चकोटी आदि के लाइफ ऑफ कंट्रोल में प्रवेश करके लगभग 350 आतंकवादी को मारकर हमारे मुसीबत को जड़ से उखाड़ दिया यानि न रहेगा बाँस न बजेगी बाँसुरी ।" अध्यापक हँस कर बोले, "वाह तुमने बहुत सुन्दर जवाब दिया है । दरअसल आतंकवाद मुंह के बल जरूर गिरा है, लेकिन जड़ से खत्म नहीं हुआ है । आतंकवाद असल में खत्म तभी होगा जब हर जनसाधारण उसके खिलाफ खड़ा होगा । आतंकवाद जैसे बाँस से तभी मृत्यु की धुन बजने वाली बाँसुरी नहीं बनेगी जब हम एक होकर उस बाँस को जड़ से उखाड़कर फेंकेंगे।" तभी दूसरी तरफ से कक्षा समाप्त होने की घंटी सुनाई दी । अध्यापक की बातें ध्यान देकर सुनने वाले बच्चों को जैसे किसी ने जगा दिया । अध्यापक ने कहा, "ठीक है बच्चों कल आप सभी 'न रहेगा बाँस न बजेगी बाँसुरी' मुहावरा को लेकर कुछ वाक्य लिखकर लाना ।" बच्चों ने हामी भरी और अध्यापक ने धन्यवाद कहकर कक्षा से प्रस्थान किया ।
-०-
वाणी बरठाकुर 'विभा' 
शोणितपुर (असम)


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विजया दशमी (मुक्तक कविता) - शुभा/रजनी शुक्ला

विजया दशमी 
(मुक्तक कविता)

राम जी 
पधारे अपनी
नगरीया सजी अयोध्या
लगे प्यारी
दुल्हनिया

रामजी
आए मारके
कुटिल दसानन रावण
सीता लौटीं
पी के
संग

सर्वत्र
फैली है
स्वर्ण दीप माला
नाचे प्रजा
प्रसन्नचित्त

असत्य
पे सत्य
की विजय का
हुआ सिंहनाद
आज

दशरथ
के पुत्र
कोशल्या के लाला
कैकेयी प्यारे
राम

चौदह
वर्ष बाद
वन से लौटे
लक्ष्मण और
सिया के
साथ

मात
कोसल्या
पग पखार रही
नैनन अश्रु
बहाय

पश्चाताप
मे जल
कर हो गयी
मात कैकेयी
राख

ढोल
मृदंग बाजे
खुशियाँ अपार साजे
राम सिया
मुस्काय.
-०-
शुभा/रजनी शुक्ला
कृष्ना पब्लिक स्कूल के पीछे 
म.नं. 291 / शरद शुक्ला 
कोपलवाणी छात्रावास के सामने 
आम बगीचा सुंदर नगर रायपुर (छत्तीसगढ)

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असलियत बता.. (कविता) - सुनिल बावणे 'निल'


असलियत बता..
(कविता)
खुद को जानने पहचानने
आईना देखता हूॅ रोज मै...
कोई खोट तो नहीं आयी नियत में
उपरी परत छोड, अंदर झॉककर देखता हूँ मैं ... ।

बोलता हूँ आईने को, चेहरा छोड
मेरे अंदर की खोट दिखा मुझे...
कमी दिखती है, मेरे अंदर इन्सानियत की,
तो, अपने सामने से भगा मुझे... ।

गली कुचें से गुजरता हूँ बदनाम,
संभलकर चलता हूँ राह पर...
असलियत बयां करता हूॅ मेरी सामने पे,
नही लगने दिया दाग दामन पर... ।

कोशिश में लगे रहते है, मैला करने की वो,
जो पाक दामन नही देख सकते...
बिकॉऊ नही होती है, हर चिज यहॉ,
हमें वो नही खरिद सकते... ।

गुजरते वक्त खुलते है दरवाजे उनके,
ईशारे बुलाते है मुझे...
पलभर मिलता हूॅ उनके खुशी के कारण,
बातें होती है ऑखों में ऑखें डालकर
तो हात जोडकर बिदा करते हैं मुझे... ।

घमंड नही भरोसा है अपने काबीलियत पर,
हालातों ने जीना सिखाया है मुझे...
बनावट शक्ल मत दिखा आईने तू,
हूँ जैसा वैसा ही बनकर रहना है मुझे... ।
-०-
सुनिल बावणे  'निल'
मु. पो. बल्लारपुर, ता. बल्लारपुर, जिल्हा :- चंद्रपुर ४४२९०१ (महाराष्ट्र)
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अंत में मैं आया! (आत्मकथा) - नागेश सू. शेवाळकर


अंत में मैं आया!
(आत्मकथा)
'हां! अंत में मैं आया। मै भारत पहुँच चुका हूँ! तीव्र विरोध, टीका होने के बावजूद, मैं आखिरकार सेवा करने के लिए पहुँचा हूँ। कितनी आलोचना, कितनी बदनामी, कितने आरोप हुए, मुझे भारत मे आने से रोकने के लिए भाषा का नीचला स्तर आजमाया गया। चर्चा, बहस, झगड़े हुए। सभागृह बंद कर दिए गए, सुप्रीम कोर्ट के दरवाजे खटखटाए गए। परदेश मे ... अपनेही देश मे मुझ पर झूठे आरोप लगाये गये, लेकिन मैं नही हारा, नही पिछे हटा, बल्कि बड़े आत्मविश्वास, साहस, फुर्ती से, हठपूर्वक, ईर्ष्या से आया हूँ। भारतीय नागरिकों कि रक्षा हेतु, भारत की सीमाओं को सुरक्षित करने के लिए, उन सीमाओं का विस्तार करने के लिए, सभी दुश्मनों को पस्त करने के लिए, भारत की ओर वक्र दृष्टी से देखने वालों की आँखे निकालने के लिए, भारत की ओर बम फेंकने वालों के हाथ उखाडने के लिए, दुश्मन के विमानों, हेलीकॉप्टरों को नष्ट करने और भारतीय सीमा में प्रवेश करने वाले दुश्मनों को नष्ट करने के लिए तो मेरा आगमन हुआ है। मैं यहाँ भारतीय दुश्मनों कों पानी पिलाने आया हूँ, जिससे देश में प्रवेश कर रहे आतंकवादी निर्दोष नागरिकों को पीड़ित ना करे, उन्हे कोई आतंकीत ना किए। ... हाँ! मैं राफेल हूँ, राफेल! मैं भारतीयों के गौरव को खतरे में डालनेवालोंकों नष्ट करने का प्रयास करूंगा, ताकि भारतीयों की शान, सन्मान को बढ़ावा मिले। भारतीयों, मैं हूं ना, किसी से भी डरो मत। अब घबराने का समय है, दुश्मनों का! हाँ! भारतमाता के देशी-विदेशी दुश्मनों को अब डर लगने लगेगा! मुझे पता है, मेरे आने की खबरसे, मेरी खरीद की सभी औपचारिकताएं पूरी कि जा रही थी, तब से भारत मे रहनेवाले मेरे विरोधियोंने सर पटकाना, चिल्लाना शुरु किया था। आरोप क्या थे, तो मेरी खरेदारी मे घोटाला हुआ है, भ्रष्टाचार हुआ है। अगर मेरे नाम पर किसी ने पैसा खाया है, तो सीधे सुप्रीम कोर्ट में सबूत क्यों नहीं दाखिल किए गए? वे कहते हैं, ' खुले आसमान मे तीर चलाना!' कुछ इस तरह का वातावरण विपक्ष में था। लेकिन अंत में, 'दूध का दूध, पानी का पानी हो ही गया!' मेरे प्रशंसकों ने जीत हासिल की। मैं अपने देश भारत में, एक सुजलाम सुफलाम देश में, एक ऐसा देश जो विविधता और एकता का प्रतीक है, एक संस्कृति प्रिय देश में पहुँचा हूँ। भारतीयों की संस्कृति उच्च गुणवत्ता की संस्कृति है, हजारों वर्षों की परंपरा है। भारतीय रक्षामंत्री खुद फ्रांस में आए। उन्होंने भारतीय पारंपरिक रूप से फ्रांस में मेरी पूजा कि। उस समय मेरी भावनाएं उमड पडी, मेरी आँखे भर आयी थी। कितना आनंदित हो गया था मै! हजारों सालों से, भारत में 'शस्त्रपूजा' करने की परंपरा है। विजयदशमी के दिन, प्रभु रामचंद्र, पांडव जैसे महान नेताओं द्वारा शस्त्रोंकी पूजा कि परंपरा शुरू कि थी। देश के संरक्षण मे बडी निर्णायक भूमिका निभानेवाले, देशवासियों की रक्षा करने वाले हथियारों की पूजा ... कितनी खुशी का अवसर, उन हथियारों के लिए गर्व का क्षण! हथियारों के बारे में भावनाओं को व्यक्त करने की एक अनोखी परंपरा है! मुझे बडी खुशी हुई। भारतीयों की रक्षा के लिए तैयार हूँ मैं। भारतीय रक्षा का एक प्रभावी हथियार हूं! भारत के संरक्षण खजाने में शीर्ष हथियारों में से मै हूँ एक! रक्षा मंत्री फ्रांस आए और मेरी पूजा की, और मुझे बडे सम्मान से भारत ले आए। भारतीयों, मुझे आपपर गर्व है। लेकिन मुझे यह समझ में नहीं आता है कि मेरे पारंपरिक प्रतिद्वंद्वी, मेरा विरोध करते करते भारत के प्रधानमंत्रीजी को भी भ्रष्टाचार में खिंच लाऐं। मैं नहीं आ सकू इसलिए सभी हथियार, शस्त्रों का उपयोग किया गया, विभिन्न स्थानों पर हार गए, यहां तक ​​कि चुनाव में मुझे एक मुद्दा बनाया गया। चुनावों मे कडी हार मिलने के बाद भी मेरे विरोधी जमीन पर नही आए। जगह -जगह उन्हें राफेलही दिख रहा है। परंपरागत रूप से, मेरी पूजा, मेरा स्वागत, मेरी प्रशंसा मेरे भारतीय विरोधियों की आँखों में समायी नही जा रही है। उनके शरीर का खून खौल रहा है। उनकी आँखे क्रोध से लाल हो रही है। रक्षा मंत्रीजी की आलोचना की जा रही है। मुझे एक बात समझ में नहीं आती कि रक्षा मंत्री और उनकी सरकार की आलोचना करने वाले हमेशा दोहरी भूमिका क्यों निभाते हैं? मुझे पता है, ये वही आलोचक है, जो चुनाव के समय देश के धर्मस्थल की सीढ़ियाँ चढ़ जाते हैं। माथा टेकते है, मन्नतें माँगते है। फिर भी उन्हें मेरी पूजा क्यों अच्छी नही लगी ? हर कोई अपने राजनीतिक जीवन मे किसी भी कार्य की शुरुआत दौरान पूजा, अभिषेक, यज्ञ क्यों करते हैं? हर किसी के घर के दरवाजे पर नींबू मिर्च क्यों लगवाते है? नये वाहनों की पूजा क्यों करते है? यह अगर एक रीती है तो मेरी पूजा भी एक परंपरा नही है तो फिर क्या है? अगर रक्षा मंत्री देश के लिए खरीदे गए वाहन की पूजा करते हैं, तो इन्हें मिर्च क्यों लगती है ? क्यों चिढ़ जाते हैं? मेरे प्रशंसकों की आलोचना करना शर्मनाक है। अगर रक्षामंत्रीजी भगवान, धर्म, परंपराओं, रीति-रिवाजों का पालन कर रहे हैं तो गलत क्या कर रहे हैं? जब मुझे भारत ला जा रहा था, तो रक्षामंत्री ने मेरे शरीरपर, भारतीय संस्कृति के प्रतीक 'ओम' का चिन्ह निकाला था, मानो उन्होंने मुझे अपने और करोडो देशवासियों के दिल के साथ जोड़ लिया है, ऐसीही मेरी भावना हुई थी। सच कहा जाए, तो मुझे उस पवित्र चिन्ह को अपने सीने पर पाकर बहुत खुशी हुई। मै खुशीसे गदगद हुआ। यह ऐसा क्षण था जैसे मुझे सर्वोच्च पुरस्कार से सम्मानित किया गया हो। भारतीय दुश्मनों को और अधिक तेजी से, अधिक मजबूती से निपटाने का वादा करते हुए, उच्चतम परंपरा, अनोखी संस्कृती के धरतीपर मैने पाँव रखा है। क्योंकि मुझे पवित्र ओम के साथ सम्मानित करने के बाद, भारत में जो चर्चाएँ हुई वे सारी व्यर्थ, निरर्थक, फिजुल है। लेकिन सच कहूँ तो मैं एक पल के लिए बहुत घबरा गया था। मैं बहुत बहादुर हूं, मजबूत हूं, लेकिन मैंने यह भी सोचा कि अगर यह आखिर क्या हो रहा है? फ्रांस से भारत यात्रा के दरम्यान, जब मैंने ओम शब्द की खोज की, तो मैंने पाया कि ओम शब्द बहुत ही प्रिय है, जो भारतीयों के दिल में स्थित है। ओम का अर्थ है क्षमता, ओम का अर्थ है बारीकी से काम करना, ओम हमेशा सक्रिय होता है, और ओम का अर्थ होता है भाग्यशाली! ओम का अर्थ है पवित्र! ओम का अर्थ है सकारात्मक भाव! ओम का अर्थ है कभी भी पिछे न हटनेवाला, सदा आगे बढनेवाला! प्रिय भारतीयों, मैं आपकी रक्षा करने में सक्षम हूं, मैं आपकी और देश की रक्षा करने के लिए दृढ़ हूं, मैं आपकी सेवा में हमेशा सक्रिय रहूंगा, मैं सकारात्मक भावना से काम करूंगा। मुझे आपकी सेवा करने का अवसर मिला है। ओम यह बहुत ही पवित्र शब्द है। रक्षामंत्रीजी ने मुझे 'ओम' यह अत्यंत पावन, पवित्र सम्मान, सर्वोच्च पुरस्कार बहाल किया है, ऐसा मेरा मानना है। ओम यह शब्द मै मेरे ह्रदय मे संभालके रखुंगा, जो हर परिस्थिती मे मुझे उच्चतम कार्य के लिए प्रेरित करेगा। ओम की उपस्थिति मेरे लिए प्रेरणादायक, ज्ञानवर्धक, प्रेरक होगी।
प्यारे भारतीयों, दशहरे के दिन मेरी पूजा करके आपने मेरा दिल जीत लिया है, लेकिन मुझे यह एहसास भी है कि मेरी जिम्मेदारी बढ़ गई है। मेरा कर्तव्य मुझे प्रेरित कर रहा है, असाधारण उपलब्धियों के लिए प्रेरित कर रहा है। मैं केवल और केवल भारतीयों की रक्षा करूंगा। अगर दुश्मन किसी भी तरह से भारत की ओर आ रहा है, तो मैं उसकी गर्दन निचोड़ने में सक्षम हूं। आपने, आपके प्रधान मंत्री और आपकी सरकार ने पिछले कुछ वर्षोंसे कडी से कडी आलोचना सहन करके मुझे भारत लाने का जो सफल प्रयास किया है, उस से मेरा आप सभी के प्रती आदर बढ गया है। मुझे भी एक प्रकार की ऊर्जा, उत्साह मिला है। मेरे आने के साथ देश और विदेश में भारतीय विरोधक होश में आ जायेंगे, उनके पैर जमीन पर आने की उम्मीद है। इसलिए डरो मत, भारतीयों, किसी भी धमकी से भयभीत न हों क्योंकि कोई भी आक्रमकता, धमकीसे डरना नहीं है, मैं हूं, मैं हूं! वास्तव में, भारत हथियारों के क्षेत्र मे, रक्षा के मामले में पहले से ही बहुत मजबूत, आत्मनिर्भर है। पिछले कई युद्धों में, भारतीयों ने दुनिया को अपनी बहादुरी दिखाई है। दुश्मन को परास्त किया है, पराजित किया है। मैं उन सभी हथियारों, मिसाइलों और अन्य सभी सुरक्षात्मक चीजों के साथ देश की रक्षा करना अपना भाग्य मानता हूं। बहादुर भारतीय सैनिक ... वाह! उनकी बहादुरी, साहस, हिंमत, देशभक्ति को सलाम! इन शूरवीरों को मेरी हार्दिक बधाई! मुझे इन सैनिकों के साथ काम करने, दुश्मन पर टूट पडने और उन्हें खत्म करने पर भी गर्व होगा। वह पल मेरे लिए गौरवशाली होगा।
एक बात मुझे पता है कि आपके विश्वास, आपके स्वागत ने मेरी जिम्मेदारी बढ़ा दी है, और मुझे जैसे हजारों हाथियों की ताकत मिली है। अब मैं पीछे नहीं हटूंगा, मेरी यात्रा शुरू हो गई है। मैं सामने से भारतमाता की ओर आने वाले हथियारों, बमगोले और मिसाइलों से नहीं डरूंगा, लेकिन जैसे ही वे भारत मां की ओर आना शुरु करेंगे या आने की तैयारी कर रहे होंगे, मैं उन सभी को मौके पर ही नष्ट कर सकता हूं। मेरी गति से आश्वस्त रहिए। प्रति घंटे दो हजार पांच सौ किलोमीटर की औसत गति से, और एक मिनट में, मैं साठ हजार फीट की ऊंचाई पर यात्रा कर सकता हूं। शायद आपके प्यार और विश्वास के कारण, यह गति भी बढ़ सकती है। मैं सैकड़ों किलोमीटर तक की मिसाइलें देख सकता हूं, और उन्हे नष्ट भी कर सकता हूँ। आज एशिया में केवल भारत के पास ऐसी क्षमता का होना मेरे लिए भी सौभाग्य की बात है।
देश के दुश्मनों
मुझे पहचानों
मैं आया.. मै आया।
मैं हूं ... राफेल! राफेल!! राफेल!!! '
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नागेश सू. शेवाळकर
११०, वर्धमान वाटिका फेज ०१, क्रांतिवीरनगर, लेन ०२,
होटल जय मल्हार के पास, थेरगांव, पुणे (महाराष्ट्र)
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दीप-वंदना (कविता) - प्रो.(डॉ.)शरद नारायण खरे


दीप-वंदना
(कविता)

लिये रोशनी नेह की,दीपक पहरेदार ।
उजियारे की वंदना,करने को तैयार ।।

कितनी उजली हो गई,आज अमा की रात ।
संस्कार के आंगना,नाच रही सौगात ।।

सबके दिल उजले हुये,दूर सकल अँधियार ।
अपनेपन से हो रहा,देखो सबको प्यार ।।

दीपों की तो श्रंखला,पहुंची हर घर-व्दार ।
नया-नया लगने लगा,अब सारा संसार ।।

आये सचमुच पल मधुर,पुलकित है हर एक ।
अंतरमन उल्लासमय,लिये इरादे नेक ।।

दिल करने को लग गये,आपस में संवाद ।
नगर-डगर खुशियाँ सजीं,गांव हुये आबाद ।।

हर मुखड़े पर तेज है,करनी में उत्साह ।
हर कोई अब लग रहा,जैसे कोई शाह ।।

करुणा,ममता पल रही,सबके उच्च विचार ।
सबका ही तो दिख रहा,मीठा-सा आचार ।।

बजे नगाड़े हर्ष के,देखो अब इस पर्व ।
कोय नहीं जो ना करे,इस मंगल पर गर्व ।।

अभिनंदन आलोक का,स्वागत बारंबार ।
दीपों की मलिकाओं की,गूंज रही जयकार ।।
-०-
प्रो.(डॉ.)शरद नारायण खरे
वर्तमान पता- आज़ाद वार्ड-चौक, मंडला(मप्र)-481661
स्थायी पता- ग्राम -प्राणपुर(चन्देरी),ज़िला-अशोकनगर, मप्र---473446

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