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Saturday 26 October 2019

दिवाली (मुक्तक कविता) - विकास पाटिल

दिवाली
(मुक्तक कविता)

जब दिवाली आती है
प्रेम, आत्मीयता, सद्भावना
उमंग, चेतना का
उत्सव लाती है
रिश्तेदार, दोस्तों में
मिठाइयाँ बाटना एक बहाना था
द्वेष, मत्सर को भूलकर
अपनों में प्रेम बढ़ाना था
एक भूचक्र
आँगन-आँगन घूमता
सभी के दिलों में
आनंद भरता
एक फूलछड़ी
चार बच्चे मिलकर सुलगाते
यह खेल देखने
सारे परिवार इकठ्ठा होते
एक फटाखे की माला को खोलकर
सभी एक-एक करके जलाते
जैसे ही फटाके फूट जाते
चेहरे पर हस्सी के फव्वारे फुटते
हाँ, फटाकों की संख्या
बहुत कम थी
खुशियों की तादात
कभी कम न थी
आँगन के दीपों का प्रकाश
भले ही अंधेरा मिटा ना सके
पर एक-दूसरे के दिल
रोशन ही रोशन थे
आँगन का एक दीया
मन के दीप जलाता था
जाति-धर्म, पंथ और रिश्तों की
दुरियाँ मिटाता था
आज भी दिवाली है
चारों ओर रोशनाई है
पर प्रकाशित संसार में
मन के दीप बूझे हुए हैं
आज भी भूचक्र जलता है
पर एक ही आँगन में घूमता है
बाँध लिया है, उसने अपने आपको
घूमता रहा अपनी सीमा में
आज भी फूलछड़ी सुलगती है
उससे ज्यादा लोग जलते हैं
आज भी मीठाइयाँ बाँटी जाती हैं
प्रेम, आत्मीयता की जगह
द्वेष, मत्सर पिरोती है
चलो, इस साल दिवाली में
आत्मीयता, प्रेम, सद्भावना का
सभी मिलकर, एक-एक दीप जलायें
दिवाली आँगन के दीपों से नहीं
मन के दीपों को जलाकर मनायें
-०-
विकास पाटील
आर्टस एंड कॉमर्स कॉलेज, आष्टा सांगली (महाराष्ट्र), भारत
-०-



***
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