चाँद....
(विधा- कविता)
इस चाँद को जाने क्यूँ
मजहबों में बंधना नहीं आता?
हो उनकी ईद या
अपना करवाचौथ हो
मुस्कुराकर गगन पर छा जाता।
कभी प्रेयसी का मुख
झिलमिलाकर स्मरण कराता
तो कभी बिछड़े प्रिय की
मुस्कान की याद दिलाता।
ये चाँद हर आंगन से
क्यूँ एक सा है नज़र आता?
खोये हो जब हम किसी की
याद में तो बनकर नटखट
हमें देखकर है मुस्कुराता
ना जाने इस पगले चाँद को
क्यूँ सीमाओं में बंधना नही आता?
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अलका 'सोनी'
बर्नपुर (पश्चिम बंगाल)
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बहुत ही सुंदर कविता है ।
ReplyDeleteGreat
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