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Saturday, 26 October 2019

घरौंदा (लघुकथा) - प्रतिक प्रभाकर

घरौंदा
"अरे, दूर जाकर खेलो तुमसब कुच्छो दिखाई नहीं देता क्या?"
यह कहते हुए उसने दूर से दौड़ कर आते हुए लड़के को गुस्से से देखा। वो लड़के गिल्ली डंडा खेल रहे थे और गिल्ली आकार मिट्टी के ढेर में गिर गयी थी।

यह थी खुशबु जो मिट्टी का घरौंदा बनाने में व्यस्त थी।मिट्टी का घरौंदा जिसका छत कूट से बना था और ऊपर जाने के लिए सीढ़ी भी बनायीं गयी थी।

अरे रे रे ! धम्म।
पप्पू का टायर लगा आकर घरौंदे से और टूट गया घरौंदा।पप्पू दस साल का था पर टायर घुमाने के अलावा कोई खेल नहीं खेलता था। निरा शैतान लड़का था।

इधर खुशबू के आँखों से आँसूं छलक पड़े। एकाध घंटे मातम मनाने के बाद फिर घरौंदे का निर्माण शुरू हुआ। इस बार तैयार हो गया था और पिछली बार से मजबूत।

खुशबू के पिता रिक्शा चलाते थे और माँ पड़ोस के घरों में काम करती थी। फूस का घर था। जमीन पर सोते थे सभी। नियति उनकी मिट्टी -सी। मिट्टी पर जन्मे, मिट्टी पर रहे और आखिर में मिट्टी हो जाना है। कुछ दिनों बाद भूकंप आया। आसमान सुर्ख़ लाल, आँखों की पुतली लाल हो आता था सबका। फूस का घर गिर पड़ा। खुशुबू के माता पिता रो रहे थे ।सिर से साया उठ गया न । अब धूप की तपिश से, बरसात से, ठण्ड की मार से कौन बचाएगा।

पर खुशबू फिर भी खुश ,
 क्यों??
 उसका घरौंदा नहीं गिरा था न!घरौंदा अब भी टिका था। हाँ ,ये और बात है कि सीढ़ी में कुछ दरार आ गयी थी, जिसे मिट्टी के लेप से ठीक किया जा सकता था।

कुछ दिनों बाद ख़ुशबू के माता पिता को आपदा आवास योजना के तहत आवास मिल गया। इस बार फूस के घर की जगह सीमेंट का छत था। बस कुछ अधिकारियों को कुछ खिलाना- पिलाना पड़ा।

माँ के आँचल में लिपटी खुशबू ने पिता से घरौंदा न तोड़ने का आग्रह किया । पिता ने उसकी बात मान ली। खुशुबू का घरौंदा अब भी खड़ा था। नए सीमेंट के घर के दिवार से सटे, एक दम मजबूत।
-0-
प्रतीक प्रभाकर
न्यू बॉयज होस्टल 1, मगध मेडिकल कॉलेज,
गयाजी- 823001 (बिहार)


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1 comment:

  1. अलका सोनी जी की कविताएं अति सुन्दर और मनभावन है|

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