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Saturday, 26 October 2019

चित्रा जी की कहानी ‘भूख': एक अवलोकन (आलेख) - रेशमा त्रिपाठी

चित्रा जी की कहानी ‘भूख': एक अवलोकन
(विधा: आलेख)
“ चित्रा जी की कहानियाॅ॑ किसी राजनीतिक वाद /प्रतिवाद की प्रतिबद्धता में भले ही शोर नहीं करती किन्तु मानवीय दृष्टिकोण में उनकी कहानियाॅ॑ आन्तरिक संवेदना के शिखर को भी झकझोर देती हैं साथ ही कहानियों के पात्र की भावुकता उनकी समस्याओं का अतिक्रमण, निन्मवर्ग की दबी –पीसी आर्थिक तंगी, पात्रों के निजी जीवन के तनाव ,परिवार के संबंधों की कुशलता का कथात्मक सौंदर्य बांधते हुए, रचनात्मक दस्तावेजों को प्रस्तुत करते हुए ,कथ्य और शिल्प के साथ-साथ उनके भाषा स्तर में भी सजगता पूर्ण रूप से विद्यमान होती हैं जो कि बहुत ही कम कथाकारों में देखने को मिलती हैं इसी क्रम में चित्रा जी की ‘भूख' कहानी को पढ़कर ऐसा महसूस हुआ कि “जब नाभि के ऊपर का पेट भरा होता हैं तब व्यक्ति दूसरा बोलता हैं और नाभि के नीचे का पेट जब खाली होता हैं तब वही व्यक्ति दूसरा बोलने लगता हैं" इस पर तुलसीदास जी की एक पंक्ति दृष्टव्य हैं–
“मांगि कैं खैबों मसीत को सोइबों
लैबों को एक न दैबों को दोऊ"
इस पंक्ति में तुलसीदासजी ने माॅ॑गकर जीवन यापन करने की बात कहीं हैं।
चित्रा जी की ‘भूख' कहानी में ‘भूख' को ‘भूख' की तरह बिकता हुआ महसूस किया । जहाॅ॑ लेखिका कहती हैं कि–“ अब रोने से क्या ?भिखारी ने बच्चा पूजा के वास्ते नहीं लिया होता तो छिनाल बच्चे को पेट भरती तो बच्चा आराम से गोदी में सोता पिच्छू उसको भी कौन देता? अरें वो अपने बच्चे को फकत भुक्काच नई रक्खते, रोता नहीं तो चिकोटी काट– काट के लोगों का दिल पिघलना... आभागिन! काय कूं,दी तू उसको अपना छोटू रे? ढल रही लक्ष्मा को कुछ सुनाई नहीं दे रहा उसे सिर्फ दिखाई दे रहा हैं, दूध भरी बोतल, बिस्किट का डब्बा, चिपकी आॅ॑ते और एक बच्चे की लाश! "

चित्रा जी की यह कहानी माॅ॑ के दुख़,भूख से बिलखते बच्चें को भूख के लिए बेंच देना और भूख के कारण बच्चें का मर जाना भूख को विश्लेषित करती हैं यदि थोड़ा विचार करें तो ऐसा महसूस होता हैं कि भूख इंसान को इंसान से कभी भी जानवर बना सकती हैं यहाॅ॑ पर भूख का तात्पर्य पेट की भूख से हैं न कि धन संचय,काम वासना या मन के सौंदर्य कि कलात्मक रसानुभूति से । रोटी की भूख मनुष्य को अपने आदर्शों और सिद्धांतों, विचारों और नैतिक कर्तव्यों से गिरा कर अमानवीय व्यवहार करने को मजबूर कर देती हैं स्वयं का मानना हैं कि– ‘मानव जीवन में पेट भरना मृत्यु से बड़ी समस्या हैं' क्योंकि पेट की दशा ही यह तय करती हैं कि मनुष्य किस सभ्यता से किस असभ्यता की ओर ,और किस असभ्यता से सभ्यता की ओर प्रगति कर रहा हैं यही पर भवानी प्रसाद मिश्र जी की कविता गीत फरोश पढ़कर यह पता चलता हैं कि –‘साहित्यकार भी पेट की भूख के लिए अपनी कला बेचने को मजबूर हो जाता हैं' वही में मुंशी प्रेमचंद द्वारा रचित कहानी: कफन (१९३६)पढ़कर ऐसा लगता हैं मानों भूख ही दुनिया का अन्तिम यथार्थ हैं जहां पेट की क्षुधा को अंधकार बनाकर समाज में भूख के यथार्थ को प्रस्तुत किया गया और वह आज भी उतना ही प्रासंगिक हैं। यहीं भीष्म साहनी जी का मानना हैं कि –“गरीब की दुनिया में सब कुछ गौंड़ हैं प्रसूत में चिल्लाने वाली माॅ॑ और अन्त में दम तोड़ने वाली पत्नी भी गौंण हैं पिता /पुत्र और पति /पत्नी का रिश्ता भी गौण हैं भुने हुए दो आलू सबसे अधिक महत्व रखते हैं"। इन तथ्यों को पढ़कर स्वयं में विचार आया कि– “भूख स्वयं में अतार्किक सास्वत सरल हो सकती हैं किन्तु साधारण नहीं "क्योंकि यह व्यापक व्यक्तित्व के रूप में नित नए यातनाओं और व्यापक दस्तावेजों को प्रस्तुत करती हैं जो कि मानव संस्कृति के रूप में उभरकर हर व्यक्तित्व में विद्यमान होती हैं।भूख का आरंभ भूख से ही होता हैं और भूख ही व्यक्ति के विडंबनाओं को प्रस्तुत करती हैं जो व्यक्ति के मानवीय संवेदना को भी झकझोर देती हैं इसलिए भूख कभी आजाद नहीं होती और स्वयं भी व्यक्ति को अपने अधीन रखती हैं और स्वयं सार्थकता के साथ प्रासंगिकता में लिपटी हुई रहती हैं भूख कहानी चित्रा जी की एक यथार्थ कहानी हैं जो किसी भी व्यक्ति के जीवन में किसी भी रूप में अपने निजी व्यक्तित्व से बाहर लाकर प्रस्तुत कर सकती हैं । इसी संदर्भ में महात्मा गांधी जी का कथन आज भी उतना ही प्रासंगिक हैं जितना की आजादी से पहले था–“ दुनिया में ऐसे लोग हैं जो इतने भूखे हैं कि भगवान उन्हें किसी और रूप में नहीं लिख सकता शिवाय रोटी के रूप में।"अधिकांशतः पाया गया है कि एक माॅ॑ अपने बच्चे के भूख से विवश होकर अपना जिस्म तक बेचने को मजबूर हो जाती हैं हिन्दी साहित्य में इस विषय पर अनेक लेंख, कहानियाॅ॑, उपन्यास, कविताएं लिखी जा चुकी हैं इन्हीं में से एक कहानी ‘भूख’ चित्रा जी की भी हैं जिन्हें हिंदी साहित्य के लेखन कार्य में :साहित्य अकादमी, व्यास सम्मान जैसें साहित्य सम्मान से सम्मानित किया जा चुका हैं चित्रा जी समाज के हर पहलू पर अपने विचार प्रस्तुत कर चुकी हैं लगभग ।
धूमल जी ने भी अपनी पटकथा संसद से सड़क तक में ठीक ही लिखा–“ भूखे आदमी का सबसे बड़ा तर्क होता हैं रोटी" वहीं दिनकर जी भी अपनी कविता( विपथगा) में लिखते हैं–
“स्वानों को मिलता दूध वस्त्र ,भूखे बालक बुलाते हैं
माॅ॑ की हड्डी से चिपक, ठिठुर जाड़े की रात बिताते हैं ।"


वहीं रचना गौड़ जी भी लिखती हैं –
“भरा हो पेट तो संसार जगमगाता हैं
लगी हो भूख तो ईमान डगमगाता हैं।"

इन तथ्यों को पढ़कर ऐसा महसूस हुआ मानों भूख की चपेट में आधा हिंदुस्तान फुटपाथ पर सोता, रोता और संघर्ष कर रहा हैं शायद इसलिए कि भूख प्रतिदिन लगती हैं इसलिए वह मौत से भी बड़ी होती हैं क्योंकि शरीर रूपी इस चौखट पर वह प्रतिदिन कटोरा लिए खड़ी हैं जो कभी भी किसी को भी अपना शिकार/ शिकारी बना सकती हैं इसी संदर्भ में स्वयं के द्वारा भूख कहानी का मूल भाव प्रकट करते हुए दृष्टव्य है कि–
" भूख की भूख मिटाने में
आज इंसान सब भेड़िए हो गए
और अपने ही ईमान से इतने भागे
कि स्वयं भूखे शेर के शिकार हो गए
आहिस्ता आहिस्ता आहिस्ता .......।"
जो कि चित्रा जी की भूख कहानी का मूल उद्देश्य/भाव हैं।

संदर्भ ग्रंथ –
१.चित्रा जी की कहानी भूख
२.तुलसी दास जी की एक पंक्ति
३.मुंशी प्रेमचन्द जी की कहानी कफन
४.महात्मा गांधी जी का कथन
५. धूमिल जी की पटकथा सांसद से सड़क तक की एक पंक्ति
६.दिनकर जी कविता ( विपथगा) की पंक्ति
७. रचना गौड़ जी की पंक्ति
८.स्वयं के भाव, पंक्ति।
-०-
लेखिका रेशमा त्रिपाठी
प्रतापगढ़ उत्तर प्रदेश।


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