गजरे वाली रात
(विधा: लघुकथा)
कमबख्त , टिक-टिक करती घड़ी की सूईयों ने... कब, मुझे उनकी नजरों में चंद्रमुखी से ज्वालामुखी बना दिया, पता ही नहीं चला !खाना-पीना, उठाना-बैठना , हर जगह साथ जाना , एक-दूसरे पर मर-मिटना ...ये सबकुछ मुझे सपना-सा लगने लगा | अब, कुछ भी... पहले जैसा नहीं रहा ! बात-बात पर इनसे तकरार होना , जैसे हमारी नियति बन गई है |
उफ्फ्फ... वो शादी की रात...जैसे ही इनका स्पर्श हुआ , मेरा तन-मन पुलकित हो उठा | ऐसा लगा, मानो पूरी कायनात आंचल में सिमट आयी हो | और वाह ! उसी दिन से, मैं...खुद को दुनिया की सबसे भाग्यशाली पत्नी समझने लगी |
मुझे क्या पता...सास-ससुर , ननद, देवर और बच्चों की जिम्मेदारी निभाते-निभाते , हमारे सारे अरमान, गृहस्थी के चूल्हे में झुलस जायेंगे ! कोल्हू की बैल की तरह इस तरह पिसते गये कि, हमारा दाम्पत्य ही हमसे रूठ गया |
इन्हें याद है भी या नहीं ? आज, पैंतीसवीं एनिवर्सरी है...सुबह से शाम हो गयी , इन्होंने सीधी मुंह मुझसे बात भी नहीं किया है ! सामने पड़ते ही बहस शुरू हो जाती है... बात कुछ नहीं...बात बढ़ जाती !
आजकल के लोगों की तरह नहीं जो मन न मिला तो तुरंत डिवोर्स ! हमारे संस्कारों में इस तरह की घुट्टी पिलाई गयी है कि, जिसका हाथ पकड़ा.. जनम भर साथ निभाना है |
मैं.. पत्नी जो ठहरी ... उनसे बात किये बिना मुझे चैन कहाँ पड़ता ! कितनी भी कठोर बनना चाहती हूँ...उन्हें देखते ही पसीज जाती हूँ !क्यूँ... अब उन्हें मेरी बात नहीं सुहाती ? क्या कमी हो गई मुझमें ...यही न...पहले जैसी षोडशी नहीं रही ! देह-आकर्षण ही सबकुछ नहीं होता ! यही सोचकर मैं हमेशा परेशान ....
“रीना....ओ...रीना...” पति की आवाज से , मेरी तंद्रा भंग हुई | मैं, चारपाई से उठकर , जल्दी से उनके पास पहुँच गई | ”
“पार्क जा रहा हूँ...दरवाजा बंद कर लो |”
“मैं...चलूँ ..? अनायास दो शब्द , मेरे मुंह से फिसल गये |”
कुछ देर तक, इनकी खामोश नजरें मुझे घूरती रहीं ...और मैं, स्तब्ध, पैरों के नाखूनों से जमीन को खुरचती रही |
“चलो ...|” सुनते ही.. मेरे मन में मचा बवंडर थम- गया | इनके साथ मैं भी चल पड़ी |
सामने वही.. गजरे की पुरानी दूकान | वहीँ नजरें ठिठक गई और इनकी नजरें मुझ पर टिक गई | एक जमाना था, यहीं से एक गजरा .. नित्य, कचहरी से लौटते वक्त ये मेरे लिए लाया करते थे ...और हमारी हर रात, गजरे वाली रात होती थी |
अरे...ये..? कहाँ चले गये...? मैंने पलटकर देखा, धक्क से रह गई | उसी गजरे वाली दुकान के पास, हाथ बढाये खड़े थे | गजरे के पोलोथिन को पॉकेट में रखते ही इनकी चलने की दिशा बदल गई | मैं,झट इनके पास पहुंची, बिना हाँ..हूँ किये साथ में चलने लगी | दोनों वापस घर आ पहुँचे |
इन्होंने अंदर से दरवाजा बंद किया और नम आँखों से गजरा लिए मेरे सामने खड़े हो गये | जूड़े में गजरा लपेटते हुए...आहिस्ता से बोले , “ हैप्पी एनिवर्सरी , रीना.. .वक्त ने फिर से करवट ले ली है | ”
“ अप्रत्याशित, मधुर आवाज से मेरा दग्ध तन-मन पुलकित हो उठा | कुछ पल के लिए अपनी आँखों पर भरोसा ही नहीं हुआ ! सारे शिकवे-शिकायत...प्रेम के प्रचंड आवेग में बह गये... मैं इनसे लिपट गई |
इनके अधरों के स्पर्श से दिल में हलचल मच गई |
नों दिलों की धड़कनें अब एक स्वर से कहने लगे , “ देखो, हमारी दग्ध होती बगिया फिर से हरिया गई है | “
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