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Wednesday 13 November 2019

बालदिवस की विशेष रचानाएँ

सृजन महोत्सव परिवार की ओर से 
आप सभी को 
'बालदिवस'
 की हार्दिक बधाइयाँ !!!
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संपादक 
राजकुमार जैन 'राजन '  (9828219919)
मच्छिंद्र भिसे (9730491952)
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बालदिवस  की विशेष रचानाएँ 
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साक्षत्कार: वरिष्ठ बालसाहित्यकार गोविंद शर्मा जी से राजकुमार जैन 'राजन' जी की बातचीत

बच्चों को सुयोग्य नागरिक बनाना है तो उनको उपयोगी बाल साहित्य दिया जाए:
गोविंद शर्मा 
बाल दिवस के अवसर पर विशेष साक्षात्कार
विशेष साक्षत्कार


☺ साक्षात्कार प्रदाता: गोविंद शर्मा (सुप्रसिद्ध वरिष्ठ बाल साहित्यकार)

➲ साक्षात्कार कर्ता: राजकुमार जैन राजन (सुपरिचित बाल साहित्यकार एवं संपादक 'सृजन महोत्सव)
(राजस्थान के संगरिया निवासी श्री गोविंद शर्मा 47 वर्ष से साहित्य के प्रति समर्पित है और उनकी लेखनी व्यंग्य, लघुकथा एवम बाल साहित्य विधाओं में अनवरत सृजनरत है। अब तक उनकी लगभग 50 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी है जिनमे से 35 पुस्तकें बाल साहित्य की विधा में प्रकाशित हो चुकी है । उत्कृष्ट बाल साहित्य सृजन के लिए भारत सरकार के प्रकाशन विभाग, राजस्थान साहित्य अकादमी सहित कई साहित्यिक संस्थाएं आपको समादृत कर चुकी है। श्री गोविंद शर्मा के बाल कथा संग्रह "काचू की टोपी" के लिए केंद्रीय साहित्य अकादमी ने इक्यावन हजार रुपये राशि के वर्ष 2019 के बाल साहित्य सम्मान से 14 नवम्बर को चेन्नई में आयोजित भव्य समारोह में सम्मानित किया जाएगा । राजस्थान के किसी बाल साहित्य रचनाकार को पहली बार यह सम्मान मिला है। सुप्रसिद्ध वरिष्ठ बाल साहित्यकार श्री गोविंद शर्मा से सुपरिचित बाल साहित्यकार राजकुमार जैन राजन ने बाल साहित्य लेखन, उपादेयता, दिशा और दशा आदि कई मुद्दों पर बातचीत की। प्रस्तुत है प्रमुख अंश-)

राजन - आपकी बाल साहित्य में पहली रचना कब व किस पत्रिका में प्रकाशित हुई?
➨ गोविंद शर्मा - घर पर बचपन से किताबें और पत्र-पत्रिकाओं को आते देखता था। उनको पढ़ने भी लगा। पत्रिकाओं में छपी कहानियों को पढकर लगता कि ऐसा तो मैं भी लिख सकता हूं। 25 वर्ष की आयु में एक दिन में ही दो बाल कथाएं और एक व्यंग्य लिखा और छपने भेज दिया। दोनों बाल कथाएं चंपक में छपी। उससे पहले व्यंग्य हिंदी शंकर्स वीकली में छपा। बस, उसी दिन भविष्य के बाल कथा लेखक और व्यंग्यकार का जन्म हो गया। फिर लघु कथाएं भी लिखने लगा। मेरी रचनाएं उस समय की महत्वपूर्ण पत्रिकाएं - धर्मयुग, सारिका, साप्ताहिक हिन्दुस्तान, पराग आदि में छपी।"

● राजन -. "बाल साहित्य को आप किस प्रकार परिभाषित करना चाहेंगे ?
➨ गोविंद शर्मा - बाल साहित्य भी साहित्य के ही समकक्ष है। बाल साहित्य में भी लगभग उन सब विधाओं में लिखा जाता है, जो साहित्य की विधाएं हैं। बाल साहित्य दूसरे साहित्य से विशिष्ट इसलिये भी है कि यह बाल पाठकों और बड़े पाठकों के लिये समान रूचिकर एवं उपयोगी है। जबकि केवल बड़ों के लिये लिखे जाने वाले साहित्य में कुछ ऐसी सामग्री भी होती है जो अल्पायु पाठकों के लिए घातक हो सकती है। अतः उपयोगी, जो वास्तव में सबके हित के लिये हो, वही तो बाल साहित्य है।

● राजन - " आप की पहचान व्यंग्यकार के रूप में है फिर बालसाहित्य की तरफ रुझान कैसे हुआ?
➨ गोविंद शर्मा -जैसा कि मैंने पहले बताया व्यंग्य लेखन और बाल कथा लेखन एक ही दिन शुरू हुआ। कभी व्यंग्य लेखन आगे निकलता रहा है तो कभी बाल साहित्य लेखन। पत्र-पत्रिकाओं की मांग के अनुसार व्यंग्य ज्यादा लिखे गये। एक पत्रिका ‘सरिता’ में एक व्यंग्य स्तंभ ‘शून्यकाल का शून्यालाप’ 1972 से 1992 तक निरंतर छपा है। बाल कथाएं भी इस अरसे में खूब लिखी । बाल साहित्य की पुस्तकें ज्यादा छपीं हैं। यूं लघु कथाएं भी पिछली सदी के सातवें दशक से लेकर अब तक निरंतर लिख रहा हूं।


● राजन - आपने खूब बाल साहित्य सृजन किया है, बालसाहित्य की दशा व दिशा के बारे में क्या कहेंगे?
➨ गोविंद शर्मा - राजन जी, बाल साहित्य खूब लिखा है। कथाओं के अलावा सामान्य ज्ञान पर आधारित बाल साहित्य भी लिखा है। मेरी कोशिश तो यही रही है कि बाल पाठकों को मौलिक, रोचक, उपयोगी और शिक्षाप्रद बाल साहित्य दूं। इस संबंध में कितना सफल हुआ हूं - यह तो पाठक ही बता सकते हैं।

● राजन - आपने अधिकांशतः बच्चों के लिए कहानी विधा में ही लिखा है, कहानी विधा को ही क्यों अधिक महत्व दिया?
➨ गोविंद शर्मा - जी हां, केवल बाल कहानी विधा में लिखा है। कई बार कविता लिखने की कोशिश की, पर पेन आगे चलने में अटकता रहा, जबकि कहानी लिखते समय मेरी कलम मुझसे भी आगे चलती गई। यह भी देखा है कि बच्चों में कविता की अपेक्षा कहानी ज्यादा पसंद की जाती है। वे कविता पढ तो लेते हैं, पर कुछ समय बाद उसे बिना पढे सुना नहीं सकते। जबकि पढी हुई कहानी को हूबहू न सही, अपनी भाषा के लहजे में सुना देते हैं। मुझे लगा कविता से पहले कहानी की उन्हें अधिक जरूरत है। वैसे भी बाल कविताएं लिखने वाले कवि बहुत हैं।

● राजन - यह देखने में आता है कि अच्छा बाल साहित्य बालकों तक नहीं पहुंच पाता इसके लिये दोषी कौन है? ..........कुछ बात बालसाहित्य की स्तरीयता पर...
➨ गोविंद शर्मा - आपका यह मानना सही है कि बाल साहित्य बाल पाठकों तक नहीं पहुंचता है। अच्छा या बिना अच्छा बाल साहित्य की क्या बात करें, किसी भी तरह का बाल साहित्य उन तक नहीं पहुंचता है। इसके लिये दोषी हैं केवल माता-पिता और अध्यापक। माता-पिता न तो उनके लिए बाल साहित्य की किताबें खरीद कर लाते हैं और न उन्हें पढने की प्रेरणा देते हैं। उनका जोर रहता है पाठ्यक्रम की पुस्तकें पढो और खूब सारे-ढेर सारे नंबर लेकर आओ। अध्यापक एक पढा लिखा प्राणी होता है। आजकल लगता है, यह वर्ग पढने से दूर भागने लगा है, किसी तरह घिसटते हुए सेलेबस पूरा करता है। अतिरिक्त पुस्तकें न स्वयं पढ़ते हैं, न पढने की बच्चों को प्रेरणा देते हैं। यह सभी के लिये नहीं कह रहा हूं, अधिकांश के लिये। यदि माता-पिता बाल साहित्य की पुस्तकें घर में लाएं, टी.वी. को बंद कर वे पुस्तकें पढ़े तो निश्चय ही बच्चे भी पढने की ओर उन्मुख होंगे। इसी तरह यदि अध्यापक भी बच्चों के साथ साहित्य पर वार्तालाप करें, विचार विमर्श करें तो बच्चे पढने की ओर आकर्षित होंगे ही।

● राजन - शर्मा जी, बाल साहित्य बच्चों तक पहुंचे इसके लिए क्या प्रयास होने चाहिए?
➨ गोविंद शर्मा - "हम भारतीयों के लिये कहा जाता है कि यदि मुफ्त में जहर मिले तो वो भी खाने को तैयार हो जायेंगे। यह अतिशयोक्ति भी हो सकती है। पर यह सत्य है, संपन्न से संपन्न भारतीय भी मुफ्त में किताब लेना चाहेगा। इसके लिये वह शर्म छोड़कर भिखारी भी बन जायेगा। किसी भी जगह, किसी से भी मुफ्त किताब मिल जाये तो वाह! वाह!
सबसे पहले तो हमें अपनी इस प्रवृत्ति पर अंकुश लगाना होगा। बच्चों को जन्मदिवस या अन्य किसी अवसर पर अनावश्यक और केवल सजावटी महंगे उपहार देने के स्थान पर उपयोगी बाल साहित्य दिया जाए। बाल साहित्य को पढने पर बच्चों को यह न कहा जाए कि वह वक्त खराब कर रहा है। बल्कि उत्साहित-प्रेरित किया जाए। स्कूलों को, घरों को बाल साहित्य से समृद्ध किया जाए। उनके परीक्षाफल में बाल साहित्य पढने के अंक भी जोड़े जाएं - जैसे प्रैक्टिकल, खेल आदि के अंक जोड़े जाते हैं।

● राजन - इधर आज का बालक सोशल मीडिया में उलझता जा रहा है इस बारे में आपका क्या कहना है?
➨ गोविंद शर्मा - सोशल मीडिया, मोबाइल फोन, केवल ऊंगलियों से खेला जाने वाला खेल दिन ब दिन बच्चों को अपने जाल में जकड़ रहे हैं। मोबाइल से दूर रहने की शिक्षा अभिभावक-अध्यापक देते हैं - पर उस वक्त उनके हाथ में भी मोबाइल होता है और आंखे मोबाइल की स्क्रीन पर। मोबाइल की दुनिया में उलझते जा रहे बच्चों को बचाने के लिए हमें पहले स्वयं इसका त्याग करना होगा। पर यह संभव दिखाई नहीं दे रहा। हां, रोचक बाल साहित्य की उपलब्धता और अध्यापक अभिभावक का स्वयं द्वारा किया गया त्याग इस दिशा में बच्चे को इस जाल से बचाने में सहायक हो सकता है।
● राजन - एक बालसाहित्य लेखक को किन बातों का ध्यान रखना चाहिए?
➨ गोविंद शर्मा - वैसे तो बाल साहित्यकार को साहित्यकार से अधिक सतर्क होकर लेखन करना चाहिए। क्येांकि बाल साहित्यकार की गलती का असर बाल मन को विकृत कर सकता है। बाल साहित्यकार को बाल साहित्य रचते समय हर तरह से अनुशासित होकर लिखना चाहिए।

● राजन - शर्मा जी,साहित्य की हमारे विकास में क्या भूमिका है? इसे समझाइये
➨ गोविंद शर्मा - पुस्तकों ने, साहित्य ने सदा से मानव मन को प्रभावित किया है। आज इसकी आवश्यकता सौ गुना बढ गई है। माता-पिता के पास समय नहीं होता है, बच्चों को कुछ सिखाने का। ऐसे में साहित्य ही है जो उनके जीवन निर्माण में सहायक सिद्ध हो सकता है। साहित्य उनके विकास को सही दिशा देकर अपनी भूमिका को सार्थकता प्रदान कर सकता है।

● राजन - आप अपने लेखन द्वारा समाज को क्या संदेश देना चाहते हैं?
➨ गोविंद शर्मा - जहां तक संदेश की बात है समाज के लिये अनेक संदेश हो सकते हैं। मेरी रचनाओं में रोचकता के आवरण में कोई न कोई सीख जरूर होती है। फिर भी यह कहूंगा कि बच्चों को संस्कारवान बनाना है तो उनके सामने स्वयं को संस्कारित रूप में पेश करें और उन्हें साहित्य से जोडे़ं।

● राजन - आज बाल साहित्य की जो पत्रिकाएँ प्रकाशित हो रही है, उनकी भाषा व स्तरीयता के बारे में कुछ कहना चाहेंगे?
➨ गोविंद शर्मा - देश में अनेक बाल साहित्य पत्रिकाएं प्रकाशित हो रही हैं। उनके विद्वान संपादक पत्रिका का स्तर बनाए रखने का पूरा प्रसास कर रहे हैं। 'नन्दन' का स्तर वर्षों से उच्च श्रेणी का बना हुआ है। राजस्थान में भीलवाड़ा से 'बाल वाटिका' डॉ. भैंरूलाल गर्ग के संपादन में, श्री संचय जैन के संपादन में ‘बच्चों का देश’ वर्षों से प्रकाशित हो रहे हैं। इन्होंने कभी भी अपने स्तर से समझौता नहीं किया। भाषा संबंधी कोई आपत्ति भी नहीं है। लखनऊ से 'बालवाणी', पटना से 'बाल किलकारी, आदि भी स्तरीय पत्रिकाएं हैं। कुछ बड़े अखबारी संस्थान भी बाल पत्रिकाएं प्रकाशित कर रहे हैं। कुछ ने तो बाल साहित्य का दर्जा देश-विदेश की लोक कथाओं और धार्मिक कथाओं को दे रखा है। निःसंदेह यह बाल साहित्य नहीं होता है।

● राजन -  आपको लगातार कई सम्मान मिले, इस वर्ष केन्द्रीय साहित्य अकादमी का सम्मान मिला, कैसा महसूस करते हैं?
➨ गोविंद शर्मा - सन् 1971 में पहली बार एक रचना के लिये दस रूपये का पारिश्रमिक मिला था। वह मिलते ही उस दिन की भूख, प्यास, नींद मारे खुशी के उड़ गई थी। अब तो कुछ रचनाओं के उससे सौ गुना पारिश्रमिक मिलने लगा है और उसे मानदेय नाम मिल गया है।
जहां तक सम्मान/पुरस्कारों की बात है सन् 1980-81 से मिलने शुरू हो गये थे। भारत सरकार के प्रकाशन विभाग से भारतेन्दु पुरस्कार, राजस्थान साहित्य अकादमी से बाल साहित्य का पुरस्कार तो मिला ही है। अनेक गैर सरकारी संगठनों से पुरस्कार/सम्मान मिल चुका है। अब केन्द्रीय साहित्य अकादमी से हिन्दी में बाल साहित्य के लिये पुरस्कार मिल रहा है। राजस्थान में किसी हिन्दी रचनाकार को यह पहली बार मिल रहा है। निःसंदेह खुशी तो होगी ही, और अधिक रचनाकर्म की प्रेरणा भी मिलेगी।

● राजन - राजस्थान सरकार ने राजस्थान में बाल साहित्य अकादमी की स्थापना का क्रांतिकारी निर्णय लिया है। इस बारे में आप क्या कहना चाहेंगे?
➨ गोविंद शर्मा - राजन जी, बाल साहित्य अकादमी की स्थापना की मांग राजस्थान में काफी पुरानी है। कई अन्य प्रदेशों में भी यह मांग होती रही है। पर बाजी रही राजस्थान के वर्तमान यशश्वी मुख्यमंत्री माननीय अशोक गहलोत के हाथ। उन्होंने बजट में घोषणा कर दी कि राजस्थान में जवाहर लाल नेहरू बाल साहित्य अकादमीकी स्थापना की जाएगी। निःसन्देह इससे बाल साहित्य उन्नयन की दिशा में भरपूर मदद मिलेगी। बाल साहित्य तो अपने आप के विशिष्ट होता है। बाल साहित्यकार भी उत्साहित होंगे और बालकों में बाल साहित्य के प्रति रुचि का विकास होगा।

● राजन - विद्यालयों में पठन- पाठन, पुस्तकालय संस्कृति लगभग समाप्त सी हो गई है, क्या इसको पुनर्जीवित किया जाना चाहिए?
➨ गोविंद शर्मा - मुझे तो अपना जमाना याद है। हमारे स्कूल में पुस्तकालय होता था। हम सब बच्चे रुचि से खूब पुस्तकें पढ़ते थे। अब हालात यह है कि अधिकांश स्कूलों में पुस्तकाध्यक्ष के पद ही नहीं है। जहां कुछ अध्यापकों के पाश यह जिम्मेदारी है वे बच्चों को पुस्तकें पढ़ने के लिए प्रोत्साहित करने के बजाय पुस्तकों की सुरक्षा पर ही विशेष ध्यान देते हैं।इसलिए पुस्तकें हमेशा अलमारियों में ही कैद रहती है।
सरकार को चाहिए कि हर स्कूल में पुस्तकालय संचालन की व्यवस्था अनिवार्य रूप से करवाये। संस्थाप्रधान व अध्यापक बच्चों में पढ़ने की रुचि पैदा करे, उन्हें पुस्तकें उपलब्ध करवाए। खेलों और सांस्कृतिक कार्यक्रमो की तरह ही पुस्तक प्रेम को महत्व दिया जाए और इसके लिए विशेष आयोजन किये जायें। विद्यालयों के साहित्य प्रेम का पाठ पढ़ने वस्ल बालक निःसन्देह बाद में सुनागरिक व देश हितैषी बनेगा।

● राजन - शर्माजी, अंत मे, आज के नये बालसाहित्यकारों के लिये कोई संदेश ?
➨ गोविंद शर्मा - वैसे तो सन्देश वगैरह देने से मैं बचता रहा हूं। फिर भी आपने पूछा है तो कहूंगा कि बाल साहित्य के उन्नयन, उसके विकास, उसकी उपयोगिता बनाए रखने का दायित्व नये/उभरते/नवोदित बाल साहित्यकारों का ही है। वे नये-नये विषयों पर कविताएं/कहानियां और अन्य विधाओं में रचनाएं लाएं। मक्खी, मच्छर, पतंग, चिड़िया पर बहुत कविताएं लिखी जा चुकी है। आज के बालक की रूचि को सुरूचि बना, उसकी आवश्यकतानुसार साहित्य रचिए। शुभकामनाएं।
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श्री गोविंद शर्मा कृत बाल साहित्य की महत्वपूर्ण पुस्तकें*
● दीपू और मोती ●ऐसे थे स्वामी केशवानन्द ● चालाक चूहे और मूर्ख बिल्लियां ● सबका देश एक है ●मुझे तारे चाहिए ● सवाल का बवाल ●कालू कौआ ● मुकदमा हवा पानी का ● समझदारी से दोस्ती ●हम बच्चों के प्यारे● कहानी केशवानन्द की ●अपने अभ्यारण्य ●चीची ने किया कमाल ●हमें हमारा घर दो ●मेहनत का मंत्र ●सबसे बड़ा तिरंगा● दोस्ती का रंग●नया बाल दिवस ● खेरू जीत गया ●लोमड़ी का तोहफा ●दोस्ती का दम ●दोबु और राजकुमार ●बबलू नाचा झूमकर ●मटकू बोलता है ●हीरा मिल गया ●गंगू की गर्मी ●बंदर की करतूत ●काचू की टोपी ● गोविंद शर्मा की चुनिंदा बाल कथाएं ●मुझे भी सीखना ●मेरी बाल कथाएं आदि
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सूचना: 
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साक्षात्कार: सुविख्यात बालसाहित्यकार प्रो.ओमप्रकाश क्षत्रिय 'प्रकाश' जी से प्रो.मच्छिंद्र भिसे जी की बातचीत

ऐसा बाल साहित्य चाहिए जो आनंद उत्साह का संचार कर सकें:
प्रो.ओमप्रकाश क्षत्रिय 'प्रकाश'
बाल दिवस के अवसर पर विशेष साक्षात्कार
सृजन महोत्सव के मेहमान : सुविख्यात बालसाहित्यकार 
प्रो. ओमप्रकाश क्षत्रिय 'प्रकाश' (नीमच-मध्यप्रदेश)

(परिचय: आदरणीय ओमप्रकाश क्षत्रिय 'प्रकाश', आपका जन्म 26 जनवरी 1965 में हुआ आपने पांच विषयों में एम. ए. किया है। साथ ही साथ पत्रकारिता की उपाधि प्राप्त की है। आप बाल कहानी, लघुकथा और कविता इन विधाओं में निरंतर लेखन करते आ रहे हैं। आपकी लेखक को उपयोगी सूत्र व १०० पत्र पत्रिकाएं कहानी लेखन प्रकाशित हो चुका है। कुए को बुखार, आसमानी आफत, कौन सा रंग अच्छा है?, कांव-कांव का भूत, रोचक विज्ञान बाल कहानियां, चाबी वाला भूत, आदि कृतियां प्रकाशित हो चुकी है। आपकी 111 कहानियों का 8 भाषाओं में अनुवाद भी हो चुका है। आपको इंद्रदेव सिंह इंद्र बाल साहित्य सम्मान, स्वतंत्रता सेनानी ओंकार लाल शास्त्री सम्मान, जय विजय सम्मान आदि दर्जनों पुरस्कारों के धनी आप है । संप्रति आप मध्य प्रदेश के शिक्षा विभाग के अध्यापक हैं और स्वतंत्र लेखन करते हैं।)
साक्षात्कार कर्ता : साहित्यकार प्रो.मच्छिंद्र भिसे
(परिचय: सृजन महोत्सव के संपादक, कवि प्रो.मच्छिंद्र भिसे जी का जन्म महाराष्ट्र के सातारा जिले में सन १९८५ में हुआ. आपने स्नातकोत्तर पदवी हिंदी विषय में हासिल की हैं. देश की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में नियमित रचानाएँ प्रकाशित हो रही हैं)

(बाल दिवस की पूर्व संध्या में सुप्रसिद्ध बालसाहित्यकार प्रो.ओमप्रकाश क्षत्रिय 'प्रकाश' जी का साहित्यकार संपादक प्रो.मच्छिंद्र भिसे जी द्वारा लिये साक्षात्कार के कुछ अंश)
मच्छिंद्र जी: आपकी बाल साहित्य की यात्रा कब से आरंभ हुई ?
ओमप्रकाश जी: बहुत पुरानी बात है । उस समय नईदुनिया, दैनिक भास्कर, चौथासंसार आदि के रविवारीय अंक बाल जगत के रूप में निकला करता था। उसमें छोटी-छोटी कविताएं, कहानियां आदि छपा करती थी । उन्हें छपा देखकर मेरी इच्छा भी वैसा ही लिखकर छपने की हुई ।
जब मैं नववीं में पढ़ता था तब से कविताएं लिखने लगा था। कविताएं तुकांत होती थी । उनमें मात्रा आदि का ध्यान मैं रख नहीं पाता था । वैसी ही चारचार पंक्तियों की शिशु कविताओं से मैंने शुरुआत की है। यह परिचयात्मक कविता है उस समय नईदुनिया, चौथासंसार, दैनिक भास्कर आदि में बहुत छपी। आप उसी वक्त से मेरी बाल साहित्य की यात्रा की शुरुआत मान सकते हैं।

मच्छिंद्र जी:  बाल साहित्य की मौलिकता एवं आवश्यकता की बारे में आप का अभिमत क्या है ?
ओमप्रकाश जी: बाल साहित्य की मौलिकता कि जहां तक बात करें, उसके पहले यह समझ लेना आवश्यक है कि बाल साहित्य में मौलिक और सूचनात्मक साहित्य में क्या अंतर है? आजकल बाल साहित्य में सूचनात्मक साहित्य सृजन बहुत हो रहा है। इसके द्वारा कविता कहानी आदि बहुत रचे जा रहे हैं । इनमें किसी चीज की सूचनात्मक जानकारी देना इस सहित्य का मूल उद्देश्य होता है।
मौलिक साहित्य एक अलग चीज है । इसे हम यूं समझ सकते हैं कि कुम्हार की तरह आप गीली मिट्टी से कोई चीज बनाते हैं तो नई और अनोखी चीज होना चाहिए । यह सृजन इसी मायने में आपका मौलिक सृजन होगा। किसी साहित्यकार की कोई रचना या कोई कविता आपको अच्छी लगी उस पर आपने कोई और चीज रच दी तो यह मौलिक साहित्य नहीं हो सकता है।
आज के बालक में और पुराने समय के बालक में बहुत अंतर आ गया है । आज का बालक तकनीकी संपन्न, भौतिकवादी, सुखसुविधा से लैस हैं । पहले की अपेक्षा अधिक बुद्धि संपन्न बालक है , इसलिए आप बाल साहित्य में पहले की तरह उपदेशात्मक रचनाएं नहीं दे सकते हैं। उसे मनोरंजक साहित्य भी नहीं चाहिए। उसे ऐसा बाल साहित्य चाहिए जो उसमें आनंद उत्साह का संचार कर सकें।
समय के साथ रचनाकार को बदलना होगा। बालकों की तरह उसे भी तकनीकी संपन्न बनना होगा। तभी वे समय के साथ कदम मिलाकर चल पाएंगे। अन्यथा वह बाल साहित्य की धारा से बाहर हो जाएंगे।

मच्छिंद्र जी: बाल साहित्य की किस विधा में आपकी रुचि है और क्यों?
ओमप्रकाश जी: बाल साहित्य की कहानी विधा में मेरी रुचि है। इसमें अपनी बात बहुत विस्तार के साथ कहीं जा सकती है । इसमें कहने और बताने के लिए बहुत कुछ होता है। आप कहानी विधा में जिज्ञासा, गति और आनंद की लय को बनाए रखकर बहुत कुछ कह सकते हैं । जबकि इतनी स्वतंत्रता अन्य किसी विधा में नहीं होती है, इसलिए मुझे कहानी विधा बहुत रुचिकर लगती है।

मच्छिंद्र जी: क्या बाल साहित्य बच्चों तक पहुंच रहा है ?
ओमप्रकाश जी: आजकल बाल सहित बच्चों तक नहीं पहुंच रहा है। इसे यूं कहे कि हमने बाल साहित्य को बच्चों की पहुंच से दूर कर दिया है तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी । मुझे एक घटना याद आती है। मैं एक पत्रपत्रिकाओं की दुकान पर गया था । वह दो बच्चे अपने माता-पिता के साथ आए हुए थे। उन्होंने कई पत्रिका उलट-पुलट कर देखी। उनमें से दो तीन पत्रिकाएं उन्होंने अपने लिए चयनित कर ली थी। जब माता-पिता से उन्हें लेने के लिए कहा तो वे नहीं माने। जब उन्होने ज्यादा जिद की तो माता-पिता ने उन्हें डांट दिया, "अरे! पत्रिकाएं कोई लेने की चीज है। इस से तो अच्छा है यह मशीन इलेक्ट्रॉनिक खिलौना और यह वाली महंगी चॉकलेट ले ले । यह तेरे लिए अच्छी है।" यह कहते हुए उन्होंने पत्रिकाएँ वही पटक दी । अब आप बताइए कि पत्रपत्रिकाएँ बच्चों तक पहुंच नहीं रही है या हम उन तक पहुंचने नहीं दे रहे हैं।

मच्छिंद्र जी: बाल साहित्य बच्चे तक पहुंचाने के लिए क्या-क्या काम होना चाहिए ?
ओमप्रकाश जी: बाल सहित बच्चों तक पहुंचाने के लिए हमें तीन स्तर पर काम करना होगा । पहला स्तर है, विद्यालय। बच्चों को विद्यालय में प्रत्येक शनिवार को बालसभा में कहानी - कविताएं बोलने के लिए प्रोत्साहित करना होगा। दूसरा स्तर हैं हमारा घर। माता- पिता को प्रेरित करना होगा कि बच्चों को संस्कारित करना हो तो पहले आप पत्र-पत्रिकाओं से नाता जोड़े ।खुद पढ़ें। बच्चों को पास बैठाए । उन्हें कहानी सुनाएं । बच्चों से कहानी सुनें। तीसरा स्तर है हम बालसाहित्यकार। हम सब का दायित्व है कि हम बलसहित्य के प्रचार-प्रसार और बच्चों को प्रोत्साहित करने के लिए आंदोलन व प्रतियोगिताएं आयोजित करें । इस स्तर पर आदरणीय विमला भंडारी जी और आदरणीय डॉ सूरजसिंह नेगी जी अच्छा प्रयास कर रहे हैं । वैसा प्रयास हमें भी करना चाहिए।

मच्छिंद्र जी: बाल साहित्य लेखन में सबसे बड़ी चुनौती कौन सी है ?
ओमप्रकाश जी: आजकल बाल साहित्य लेखन में सबसे बड़ी चुनौती लिखना और छपना है । क्योंकि बाल साहित्यकार के प्रति अन्य साहित्यकारों का नजरिया ठीक नहीं हैं । इस कारण बाल साहित्य में केवल बालसाहित्य लिखने वाले गिने-चुने साहित्यकार हैं। बाकी जो दूसरे साहित्यकार है वह अन्य विधा के साथ इस विधा में भी हाथ आजमा रहे हैं। जब उन्हें आवश्यकता महसूस होती है वे बालसाहित्य लिख लेते हैं। सबसे बड़ी चुनौती है बाल साहित्यकार के लिए सुगठित और व्यवस्थित संस्था की स्थापना करना हैं । जिससे सभी बच्चे और बालसाहित्यकार का जुड़ सकें । एनबीटी और सीबीटी जैसी संस्थाएं इसमें प्रयास कर रही है। मगर ऐसा प्रयास हर राज्य में होना चाहिए ।
मच्छिंद्र जी: आजकल बाल साहित्य विपुल मात्रा में प्रकाशित हो रहा है। उनका स्तर और सार्थकता पर आप कुछ कहिए।
ओमप्रकाश जी: आपकी यह बात बिल्कुल सच है कि आजकल विपुल मात्रा में पाई सहित प्रकाशित हो रहा है मगर वह बच्चों के हाथ में नहीं जा पा रहा है वह बाल साहित्य केवल पुरस्कार की दौड़ के लिए लिखा जा रहा है और छापा जा रहा है बच्चों तक नहीं पहुंचने से इस बाल साहित्य का लाभ बच्चों को नहीं मिल पा रहा है इसे आप यू समझ सकते हैं जो बच्चा 25 ₹30 की बाल पत्रिकाएं खरीद नहीं सकता वह बच्चों के लिए लिखे गए मांगे कहानी संग्रह कविता संग्रह की पुस्तकें कैसे खरीद पाएगा जो शायद बच्चों तक नहीं पहुंच पा रहा है उसके स्तर की बातें करना बेमानी होगा ।

मच्छिंद्र जी: आपको कई सम्मान मिले हैं । आप किस पुरस्कार को हमेशा याद रखते हैं । इसे कैसा महसूस करते हैं? इस बारे में बताइए।
ओमप्रकाश जी: आपकी बात सही है मुझे कई पुरस्कार और सम्मान मिल चुके हैं । मगर सबसे पहला सम्मान की घोषणा आदरणीय राजकुमार जैन राजन ने की थी। इसी के बाद मुझे मंच पर पहला सम्मान गहमर ग़ाज़ीपुर उप्र में बालसाहित्य के सर्वांगीण विकास के लिए मुझे प्राप्त हुआ था । दूसरा पुरस्कार आदरणीय राजकुमार जैन राजन जी ने राष्ट्रीय बालसाहित्यकार सम्मेलन चित्तौड़गढ़ राजस्थान में दिया था । तीसरा यादगार पुरस्कार आदरणीय डॉक्टर अखिलेश जी पालरिया जी द्वारा मेरी कहानी की पुस्तक 'विज्ञान रोचक बालकहानियां' पर मुझे तीसरा पुरस्कार मिला है । मगर मेरे लिए सदा यादगार वह सम्मान रहा है जब आदरणीय राजकुमार जैन राजन जी ने नाथद्वारा के मंच पर बुलाकर एक बालिका को माला पहनाकर सम्मानित करने का अवसर दिया था । वह बालिका बालसाहित्य के क्षेत्र में यादगार काम कर प्रथम स्थान लाई थी । बालसाहित्य के क्षेत्र में इस तरह का सम्मान मिलते रहना चाहिए । इस से साहित्यकार का उत्साहवर्धक होता है। इस से रचनाकार को प्रेरणा मिलती है।

मच्छिंद्र जी: बाल साहित्यकार को और बालकों को आप क्या संदेश देना चाहेंगे ।
ओमप्रकाश जी: बाल साहित्यकार को चाहिए कि पहले अपना लिखे बालसहित्य को बच्चों के बीच ले जाए । उनकी कसौटी पर कसे । तब उसे छपने के लिए भेजे। तभी वह बालसाहित्य सार्थक होगा। यही उनके लिए बढ़िया है। यही बालसाहित्यकारों के लिए एक मात्र संदेश है।
बच्चे हमारे मूल धरोहर हैं । यही कल के भावी नागरिक होते हैं। बच्चों को यह संदेश देना चाहता हूं कि अपना काम बेहतर ढंग से करना ही सबसे बड़ी पूजा है। कहा भी गया है कि कर्म ही पूजा है । यानी आपको जो कार्य दिया गया है उसे आप पूरी मेहनत, लगन, इमानदारी और उत्कृष्टता से आप करते हैं तो यह आपके लिए सबसे बड़ी पूजा है । जैसे किसान का काम बेहतर ढंग से खेती करना है। अगर वह खेती करके अपनी जीवन का बेहतर ढंग से चलाता है तो उसके लिए यह सबसे बड़ी देशभक्ति है। बच्चे यदि बच्चे बेहतर ढंग से लिखपढ़ कर बेहतर नागरिक बनते हैं तो यह सबसे बड़ी देश भक्ति और देश सेवा ही होगी । बस, उन के लिए यही संदेश है की अपना काम बेहतर और उत्कृष्ठ ढंग से करें।

मच्छिंद्र जी: आदरणीय ओमप्रकाश क्षत्रिय जी, आपके साथ वार्तालाप करके हम अभिभूत हैं। अपने बहुत ही बारीकी से बालसाहित्य पर अपनी बातें रखीं। हम सौभाग्यशाली है कि बाल दिवस के अवसर पर आपने बहुत ही रोचक एवं व्यक्तिगत जानकारी से अवगत कराया। हम सृजन महोत्सव परिवार की ओर से आपका हार्दिक आभार व्यक्त करते हैं और आपके भविष्य की मंगल कामना करते हुए आपसे विदा लेते हैं। हार्दिक धन्यवाद! आभार! 
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साक्षात्कार: बालसाहित्यकार और आकाशवाणी उद्घोषिका डॉ. मंजरी शुक्ला से प्रो.मच्छिंद्र भिसे जी की बातचीत

किताबें हमारी सबसे अच्छी मित्र होती है:
 डॉ. मंजरी शुक्ला
बाल दिवस के अवसर पर विशेष साक्षात्कार

सृजन महोत्सव के मेहमान : बालसाहित्यकार एवं आकाशवाणी की उद्घोषिका 
डॉ मंजरी शुक्ला (पानीपत-हरियाणा)

(परिचय: आदरणीय डॉ मंजरी शुक्ला जी जन्म 30 मार्च 1977 को हुआ। आपने बी.ए. एम.ए.अंग्रेजी में, साथ-साथ अंग्रेजी साहित्य में पीएचडी भी हासिल की है। आप मूल का बाल साहित्य लेखन में विशेष रूचि रखती है।कविता, साहित्य, कला व रंगमंच की समीक्षा, अनुवाद, आलेख, स्क्रिप्ट लेखन में भी रुचि रखते हुए निरंतर लेखन कार्य करती आ रही है। आपकी अभी तक जादुई गुब्बारे, फूलों के रंग, जादुई चश्मा सूरज की सर्दी, जुगलबंदी, मिठाई चोर और अन्य कहानियां, आदि हिंदी में कृतियाँ प्रकाशित हो चुकी हैं। आपकी स्वीटीज रेनी डे और रिमी एंड यम्मी फूड अंग्रेजी कृतियां प्रकाशित हो चुकी है। आपको वर्ष 2011 में राज्यपाल श्री माता प्रसाद से लेखन हेतु पुरस्कार प्राप्त हुआ है। साथ ही साथ प्रेमचंद साहित्य समारोह, सर्च फाउंडेशन, भारतीय साहित्य संगम, आदि द्वारा विशेष सम्मानित किया गया है। आप स्वतंत्रता सेनानी उनका लाल शास्त्री समिति पुरस्कार, राजीव गांधी एक्सीलेंस अवार्ड, पंडित हरिप्रसाद पाठक स्मृति बाल साहित्य पुरस्कार, आदि दर्जनों पुरस्कारों से सम्मानित है। संप्रति आप स्वतंत्र लेखन और आकाशवाणी उद्घोषिका के रूप में कार्यरत है।)
साक्षात्कार कर्ता : साहित्यकार प्रो.मच्छिंद्र भिसे
(परिचय: सृजन महोत्सव के संपादक, कवि प्रो.मच्छिंद्र भिसे जी का जन्म महाराष्ट्र के सातारा जिले में सन १९८५ में हुआ. आपने स्नातकोत्तर पदवी हिंदी विषय में हासिल की हैं. देश की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में नियमित रचानाएँ प्रकाशित हो रही हैं)

(बाल दिवस की पूर्व संध्या में सुप्रसिद्ध बालसाहित्यकार और आकाशवाणी उद्घोषिका डॉ. मंजरी शुक्ला जी का साहित्यकार संपादक प्रो.मच्छिंद्र भिसे जी द्वारा लिये साक्षात्कार के कुछ अंश)

मच्छिंद्र जी: अपने बाल साहित्य लिखना कब और कैसे आरंभ किया?
मंजरी जी: मैं ये मानती हूँ प्रत्येक व्यक्ति जन्म से ही लेखक होता है। हाँ, ये बात अलग है कि उनमें से कुछ लोग भावों को मन में ही लिखते हैं तो कुछ उन्हें लिखकर कागज़ में साकार रूप दे देते हैं । हमारे घर में लिखने- पढ़ने का माहौल हमेशा ही रहा । मुझे याद है कि जब में दसवीं कक्षा में थी तो होशंगाबाद में मैं कहीं जा रही थी तो रविवार का बाज़ार लगा हुआ था, जिसमें चिलचिलाती धूप में एक बूढ़ा आदमी पुराने कपड़े बेचने वाले के पास बैठा था और उससे एक कुर्ते के पैसे कम कराने के लिए मिन्नतें कर रहा था। उसके गिड़गिड़गिड़ाने को सुनकर पता नहीं क्यों मेरा मन बहुत द्रवित हो गया और मेरी आँखें भर आई। उसने एक जेब में हाथ डाला तो दूसरी ओर से उसका हाथ निकल गया । फ़िर उसने दूसरी जेब में हाथ डाला तो उसमें से कुछ चवन्नी के सिक्के निकले, जिन्हें उसने इतनी सावधानीपूर्वक हाथ में पकड़ा था मानों वे हीरे मोती जैसे बहुमूल्य रत्न हो। 
मेरे पास भी उस समय पैसे नहीं थे कि मैं उसकी कुछ मदद कर पाती इसलिए बेबस सी आगे बढ़ गई पर वो बूढ़े आदमी के फटे कुर्ते के छेद और हाथों में चवन्नी मैं कभी भूल नहीं सकी और फ़िर मैंने उस पर एक कविता लिखी कि "उसके हाथों की चवन्नियां उसके कुर्ते में आकर पैबंद की तरह लग गईं हैं...अब आगे तो मुझे याद नहीं है पर यह कविता नई- दुनिया में छपी थी और मुझे इस पर ईनाम भी मिला था। पर इसके बाद मैंने कई साल कुछ नहीं लिखा जबकि मन में आता था कि जैसे कोई अदृश्य शक्ति मुझे कह रही हो लिखने के लिए। फ़िर मैंने साईं बाबा से आशीर्वाद लेकर मैंने नंदन में एक कहानी प्रतियोगिता में एक कहानी भेजी और उसके बारे मैं ये सोचकर भूल गई कि कौन सा ईनाम मुझे ही मिलना है। जब महीने भर बाद अचानक नंदन का नया अंक पलट रही थी तो देखा कि उसमें मुझे पुरस्कार मिला था बस फ़िर क्या था, इस बात ने मुझे इतनी ख़ुशी दी कि मुझे लगा कि मैं भी लिख सकती हूँ और लोगो को पसंद आ सकता है। हाँ, वैसे ये बात सच है कि प्रेरणा तो ईश्वर ही देता हैं । जब तक मन से कोई विचार नहीं आये तो मुझे लगता हैं कि शायद ही कोई लिख पाता हो। पर मेरे लेखन में मेरी माँ के अलावा मेरे पति और मेरी बेटी का भी बहुत सहयोग रहा। उन दोनों ने हमेशा मुझे बेहतर लिखने के लिए प्रेरित किया जिससे मुझे लगा कि मैं इस कार्य में निरंतर प्रयासरत रहकर बेहतर साहित्य का सृजन कर सकूँ।

मच्छिंद्र जी: अपने बाल साहित्य विपुल मात्रा में लिखा है आप बाल साहित्य बच्चों तक पहुंचाने के लिए कौन से प्रयास करती हैं?
मंजरी जी: मेरे आस पास जो बच्चे है उन्हें मैं कहानियां सुनाती हूँ और जिन्हें वे बड़े चाव से सुनते भी है। अपनी कहानी सुनाने के बाद मैं उनसे कहानी कहने के लिए कहती हूँ और फ़िर वो अपने दोस्तों से लेकर अपने पेड़ और पौधे तक की कहानियाँ तुरंत मन से बना देते है। मुझे लगता है कि बच्चों में कल्पनाशीलता तो होती ही है पर हम उन्हें थोड़ा सा प्रोत्साहन देकर, थोड़ी सी सही दिशा देकर उनकी सोच को बहुत विकसित कर सकते है। बच्चों को भी उपहार में पुस्तकें देना भी मुझे बेहद पसंद है। मुझे लगता है कि जब तक हमें बच्चे के अंदर पढ़ने की उत्सुकता नहीं पैदा करेंगे तो वह किताबों की तरफ़ से उदासीन होता चला जाएगा और वीडियो गेम में अपना समय व्यतीत करेगा। इंटरनेट पर भी कई जगह मैं अपनी कहानियाँ लगाती रहती हूँ ताकि बच्चे उन्हें पढ़ सके। चाहे प्रिंट मीडिया हो या इलेक्ट्रॉनिक मीडिया, मेरी कोशिश रहती है कि बच्चा पढ़ने में रूचि ले।

मच्छिंद्र जी: नव बाल साहित्यकारों को बाल साहित्य लिखते समय उनका दृष्टिकोण अथवा सृजना की कौन सी दृष्टि होनी चाहिए?
मंजरी जी: मुझे लगता है जो भी बच्चों के लिए लिखे तो सबसे पहले वह खुद एक बच्चा बन जाए। अगर हम अपनी उम्र के हिसाब से सोचते हुए बच्चों के बारें में लिखेंगे तो शायद वह बाल मन को कभी नहीं छू पायेगा। कई लोग मुझसे मिलते है जो कहते है कि कहानियों में जानवर नहीं होना चाहिए, परियाँ नहीं होनी चाहिए, जादू नहीं होना चाहिए तो मुझे ये समझ में नहीं आता है कि तो फ़िर कहानी में बचा क्या। 
नैतिक शिक्षा की किताब तो विद्द्यालयों में भी चलती है। क्या सब लोग मिलकर बच्चों को हर जगह पढ़ाएँगे? बड़ों के साहित्य में तो ये बात समझ में आती है कि समाज में जो हो रहा है उस पर लिखा जाता है पर बच्चों को हर समय और हर वक़्त अगर ज्ञान दिया जाए तो वह पढ़ने की बात तो बहुत दूर की है सुनने से ही भाग खड़ा होगा। .

मच्छिंद्र जी: आकाशवाणी की उद्घोषक के रूप में कार्यरत है तो हम जानना चाहते हैं आकाशवाणी के माध्यम से आप कौन से उपक्रम बालक उम्र के लिए चलाती हैं?
मंजरी जी: आकाशवाणी में बच्चों के लिए उनकी उम्र के हिसाब से कार्यक्रमों का प्रसारण होता है। वर्तमान में मैं आकाशवाणी कुरुक्षेत्र में उद्घोषक के रूप में कार्यरत हूँ और हमारे केंद्र से हर रविवार सवेरे नौ बजकर तीस मिनट पर "बाल सभा" का प्रसारण होता है जिसमें नन्हें मुन्ने बच्चे ढेर सारी बातें करते हुए कविता, कहानी, पहेली या फ़िर चुटकुले, जो भी वे सुनाना चाहते है सुनाते है। 

मच्छिंद्र जी: आज के बालक किस प्रकार का साहित्य पढ़ने में रुचि रखते हैं?
मंजरी जी: आज के बच्चे इंटरनेट के कारण बेहद समझदार हो गए है। वे मनोरंजन के साथ साथ आसपास की होनेवाली घटनाओं को भी कहानियों के रूप में पढ़ना पसँद करते है। ये बच्चे जानते है कि अब चाँद सिर्फ़ चंदा मामा ही नहीं है बल्कि एक ग्रह है और लोग जहाँ पर जा रहे है। मंगल ग्रह जो केवल कहानियों और किस्सों में था अब तस्वीर के साथ दिखाई दे रहा है। इसलिए बाल साहित्‍य के लेखक को बाल-मनोविज्ञान की पूरी समझ एवं जानकारी होनी चाहिए तभी वह बच्चों के अनुरूप साहित्य सृजन कर सकता है। हम जानते है कि पहले घर में बच्चों को संस्कार देने में दादा, दादी,चाचा, चाची इन सभी रिश्तों की बेहद महत्वपूर्ण भूमिकाएं हुआ करती थी पर दुर्भाग्य से बाद के काल में परिवार परंपरा छिन्न भिन्न हुई और देखते ही देखते संयुक्त परिवार समाप्त हो गए है। इसलिए आज के बच्चे को यदि संस्कार देने के काम में बाल साहित्यकारों की भूमिका भी बहुत ज़रूरी है ताकि वे बच्चों के चरित्र निर्माण के साथ साथ उनका मनोरंजन भी कर सके।

मच्छिंद्र जी: आज बाल दिवस के अवसर पर आप बाल साहित्यकार होने के नाते अपने साथी बाल साहित्यकार एवं बाल साहित्य के पाठकों को क्या संदेश देना चाहती हैं?
मंजरी जी: बाल दिवस के अवसर पर एक बात तो मैं जरूर कहना चाहूंगी कि किताबें हमारी सबसे अच्छी मित्र होती है ये बात सिर्फ़ हमें शब्दों तक ही सीमित नहीं रखनी है बल्कि सभी बाल पाठकों तक पहुँचानी है। ये हमारी नैतिक जिम्मेदारी है कि हम बच्चों को जितनी हो सके उतनी अच्छी पुस्तकों के नाम बताकर उन्हें पढ़ने के लिए प्रेरित करे और अपने सामर्थ्य अनुसार बच्चों को पुस्तकें पढ़ने के लिए दे। हम उन्हें बताएं कि पुस्तकें सच्चे अर्थों में हमारी मित्र है। देश विदेश की जानकारियाँ, पर्व, लोक कथाएँ, कहानियाँ, कवितायें, लेख, संस्मरण और महापुरुषों की आत्म कथाएं पढ़ने के बाद जितनी सुखद अनुभूति होती है वो किसी वीडियो गेम पर घंटों अपना समय बर्बाद करके कभी नहीं हो सकती है। कई तरह की बीमारियाँ तो बच्चों को वीडियो गेम खेलने से ही हो रही है। इसलिए अपनी कल्पनाशीलता को जीवित रखने के लिए पुस्तकों से अच्छा मित्र कोई नहीं हो सकता है। 

मच्छिंद्र जी: आदरणीया डॉ. मंजरी शुक्ला जी, आज आप हमारे सृजन महोत्सव के मंच पर अपने विचारों को व्यक्त किया और हमारे लिए अपना अमूल्य समय प्रदान करके हमें उपकृत किया इसलिए मैं सृजन महोत्सव परिवार की ओर से आपका हार्दिक अभिनंदन करता हूँ और आपके प्रति कृतज्ञता व्यक्त करता हूँ। आपका हार्दिक आभार! धन्यवाद!!!
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यह साक्षात्कार मौलिक एवं अमूल्य निधि हैं. यह कॉपी राइट के अंतर्गत हैं. कृपया प्रकाशक, साक्षात्कार प्रदाता एवं साक्षात्कार कर्ता की अनुमति के बगैर किसी अन्य जगह प्रकाशित नहीं कर सकते.

साक्षात्कार: सुविख्यात बालसाहित्यकार पवन कुमार वर्मा जी से प्रो.मच्छिंद्र भिसे जी की बातचीत

रंग-बिरंगी बच्चों की किताबें उनकी टेबुल पर रख दी:
पवन कुमार वर्मा
बाल दिवस के अवसर पर विशेष साक्षात्कार

सृजन महोत्सव के मेहमान :
बालसाहित्यकार पवन कुमार वर्मा (वाराणसी - उत्तर प्रदेश)
(परिचय: आदरणीय पवन कुमार वर्मा जी का जन्म 1 जुलाई 1971 के दिन हुआ। आपने सिविल इंजीनियरिंग में स्नातक शिक्षा हासिल की है । विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में बालकथा, लघुकथा, कविता, कहानियों का निरंतर प्रकाशन होता आ रहा है, साथ ही आकाशवाणी से निरंतर बाल कथाओं का प्रसारण हो चुका है हो रहा है। आपको नागरी बाल साहित्य संस्थान बलिया द्वारा 'बाल साहित्य सम्मान', साहित्य एवं सांस्कृतिक मंच परियावा प्रतापगढ़ द्वारा 'साहित्य श्री उपाधि', भाऊराव देवरस सेवा न्यास, लखनऊ द्वारा 'युवा साहित्यकार सम्मान', अखिल भारतीय साहित्यकार अभिनंदन समिति द्वारा 'कविवर मैथिलीशरण गुप्त सम्मान'आदि कई सामानों से आप सम्मानित हो चुके हैं। आपकी जंगल की एकता (बालकथा संग्रह), अनोखी दोस्ती (बालकथा संग्रह), सपनों की दुनिया (बालकथा संग्रह) आदि कई साहित्यिक कृतियां प्रकाशित हो चुकी हैं।)
साक्षात्कार कर्ता : साहित्यकार प्रो.मच्छिंद्र भिसे
(परिचय: सृजन महोत्सव के संपादक, कवि प्रो.मच्छिंद्र भिसे जी का जन्म महाराष्ट्र के सातारा जिले में सन १९८५ में हुआ. आपने स्नातकोत्तर पदवी हिंदी विषय में हासिल की हैं. देश की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में नियमित रचानाएँ प्रकाशित हो रही हैं)

(बाल दिवस की पूर्व संध्या में सुप्रसिद्ध बालसाहित्यकार पवन कुमार वर्मा जी का साहित्यकार संपादक प्रो. मछिन्द्र भिसे जी द्वारा लिये साक्षात्कार के कुछ अंश)
मच्छिंद्र जी: आदरणीय पवन कुमार वर्मा जी, आपका सृजन महोत्सव मंच पर हार्दिक स्वागत! हम विस्मित हैं कि सिविल इंजीनियर में स्नातक करने के बाद भी बाल साहित्य लेखन में कैसे आए याने कि बाल साहित्य में आपकी रुचि कैसे हुई?
पवन जी: हार्दिक आपका एवं आदरणीय राजकुमार जैन 'राजन' जी का हार्दिक धन्यवाद! 
जब मैं नौवीं कक्षा में था, उस समय मेरा लिखा एक लेख स्थानीय समाचार-पत्र में प्रकाशित हुआ। वह पूरी तरह से सामाजिक समस्याओं पर आधारित था। सम्पादक महोदय को वह लेख बहुत पसन्द आया। अब नियमित लेख लिखने को कहने लगे। मैंने कुछ और लेख लिखे, वह भी वहाँ से प्रकाशित हुआ। पिताजी अब नाराज होने लगे। वे ऐसा महसूस कर रहे थे कि इससे मेरी शिक्षा-दीक्षा प्रभावित होगी। मैंने फिर भी लिखना नहीं छोड़ा। लेकिन अब रचनायें प्रकाशन के लिए नहीं, अपने लिए थी। डायरी में उन लेखों को कैद कर दिया। लेकिन कब तक? 
सिविल इन्जीनियरिंग की स्नातक डिग्री के लिए घर से दूर जाना पड़ा। हॉस्टल में रहना था। घर-परिवार से दूर। उस एकाकीपन को दूर करने के लिए पढाई के साथ-साथ फिर से लिखना प्रारंभ किया। लेकिन अब अपनी अभिव्यक्ति लेखों के बजाय कहानियों के माध्यम से करने लगा। मेरी कुछ कहानियाँ मुक्ता एवं गृहशोभा में प्रकाशित भी हुई। 
मेरी इंजीनियरिंग की पढाई कहीं से भी मेरी साहित्य सृजन को प्रभावित नहीं कर रही थी। बल्कि इस दौरान मैंने अनेक साहित्यिक रचनायें पढ़ीं, जिसने मेरे सोचने समझने के दायरे को बहुत बढ़ाया। कर्म से मैं भले ही इंजिनियर हो गया, लेकिन मन पूरी तरह साहित्य में ही रच बस गया। उस समय यह मेरे मन की अभिव्यक्ति का साधन था, जो अब साधना में परिवर्तित हो गया है।
बचपन में बहुत सी बातें हमारे लिए अनुत्तरित होती हैं। जो मन के किसी कोने में दबी रहती हैं। जब थोड़ी समझ आती है तब अपनी उन्हीं बातों का स्वत उत्तर मिल जाता है। मेरे साथ भी कुछ ऐसा ही था । लेखन अब मेरे रोम-रोम में बस चुका था। मैंने बचपन की अपनी उन्हीं सोच को बाल कहानियों के माध्यम से लिखने लगा। जिसे सबने सराहा। फिर तो मैं बाल साहित्य में ही रच-बस गया। वह भी कथा-साहित्य। मेरी अब तक पाँच बाल कथा संग्रह प्रकाशित हो चुकी हैं।

मच्छिंद्र जी: आप बाल साहित्य में किसे अपना आदर्श मानते हैं और क्यों?
पवन जी: मुझे लगता है जब हम किसी से प्रभावित होकर या किसी को आदर्श मान कर कोई सृजन करते हैं तो अपनी मौलिकता खो देते हैं । सबका अपना-अपना दायरा है, अपनी सोच है, अपने विषय हैं । हमें सबका सम्मान करना चाहिए । बस रचना का उद्देश्य समाज एवं देश-हित में होना चाहिए । 

मच्छिंद्र जी: आज बहुत से रचनाकार चाहे बाल साहित्य के हो चाहे अन्य मौलिक साहित्य हो साहित्य सृजन का उद्देश्य व्यावसायिकता बन गया है इस पर आपकी क्या सोच है? 
पवन जी: ऐसा बिलकुल भी नहीं है । बहुत से श्रेष्ट रचनायें प्रकाशन के अभाव में पड़ी रह जाती हैं । अब भी प्रकाशक बहुत आसानी से आपकी रचनाएं प्रकाशित नहीं करते । लेखकों को अपनी रचनाओं के प्रकाशन के लिए बहुत माथा-पच्ची करनी पड़ती है । लेकिन फिर भी मेरा ऐसा मानना है अच्छी रचनायें अपना मूल्यांकन स्वतः कर लेती हैं । 

मच्छिंद्र जी: बाल साहित्य बालकों तक पहुंचाने के लिए आज क्या कर सकते हैं?
पवन जी: आपका यह प्रश्न मेरे मन का है । बाल-साहित्य का प्रचार-प्रसार बढाने की जरूरत है । और हम यह काम केवल प्रकाशक के जिम्मे नहीं छोड़ सकते । हमें भी इस ओर ध्यान देना होगा । बच्चों की पुस्तकें जब तक बच्चों तक नहीं पहुंचेगी तो बाल-साहित्य का कोई औचित्य ही नहीं है । पुस्तकों के प्रचार-प्रसार पर भी ध्यान केन्द्रित करना होगा । मुझे लगता है स्कूल इसका अच्छा माध्यम बन सकता है । इस पर व्यापक चर्चा की आवश्यकता है ।

मच्छिंद्र जी: बाल साहित्य कैसा होना चाहिए या बाल साहित्य के मूल तत्व कौन से हैं?
पवन जी: वह बाल साहित्य जो बच्चों में नैतिकता, देशप्रेम, सामाजिक एवं पारिवारिक संस्कारों को बढ़ाते हों, वह निःसंदेह श्रेष्ठ है । 

मच्छिंद्र जी: आज बाल साहित्य के सामने कौन-कौन सी चुनौतियां है जिसे सभी बाल साहित्यकारों को गौर करना होगा?
पवन जी: जितनी मात्रा में रचनाएं लिखी जा रहीं हैं, क्या वह पूरी की पूरी बच्चों तक पहुँच पा रही हैं ? यह सबसे गंभीर चुनौती है । मैंने पहले ही कहा यह कार्य केवल प्रकाशक के जिम्मे नहीं छोड़ा जा सकता । 

मच्छिंद्र जी: बालकों में बाल साहित्य पठन में रुचि उत्पन्न हो इसलिए कौन से प्रयास करना आज आवश्यक है?
पवन जी: इस ओर छोटे-छोटे कदम उठाने होंगे । बच्चों को पहले यह पता तो चले कि उनके लिए क्या लिखा जा रहा है, कहाँ लिखा जा रहा है ? मेरे घर में भी यह समस्या थी । मैंने बिना कुछ कहे कुछ रंग-बिरंगी बच्चों की किताबें उनकी टेबुल पर रख दी । मुझे उनसे कुछ नहीं कहना पढ़ा । वे स्वत पढने लगे । क्या अभिभावक बच्चों की किताबें खरीद कर लाते हैं ? इसका प्रतिशत बहुत कम है । आप को अलग से कोई प्रयास नहीं करना है । केवल पुस्तकें उन तक पहुंचानी है । 

मच्छिंद्र जी: इस बाल दिवस के अवसर पर बाल साहित्यकार के रूप में जो बालक है उन्हें आप क्या सुझाव या संदेश देना चाहेंगे?
पवन जी: आज के बच्चे कल के राष्ट्र निर्माता हैं । इसी भावना से लिखें । बच्चों के लिए बच्चे की भाषा में लिखें । उपदेश देने से बचें । उपदेश आपकी लिखी कहानियों में निहित हों । 

मच्छिंद्र जी: आप बाल दिवस के अवसर पर छोटे बच्चों को क्या संदेश देना चाहेंगे?
पवन जी: मेरा एक वाक्य है – खूब पढ़ो और खूब बढ़ो ।

मच्छिंद्र जी: आदरणीय पवन जी आप हमारे साथ जुड़े; आपने बालदिवस के अवसर पर बालसाहित्य एवं उसकी सर्जना पर जो विचार हमारे सामने रखे सचमुच सोचनीय हैं। आपने हमारे निमंत्रण को स्वीकारकर हमारे लिए व्यस्त समय में भी अपना समय हमें प्रदान किया, इसलिए मैं आपका सृजन महोत्सव परिवार की ओर से हार्दिक अभिनंदन करता हूँ साथ ही आपके प्रति कृतज्ञता व्यक्त करता हूँ । बहुत-बहुत धन्यवाद !!
-०-
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यह साक्षात्कार मौलिक एवं अमूल्य निधि हैं. यह कॉपी राइट के अंतर्गत हैं. कृपया प्रकाशक, साक्षात्कार प्रदाता एवं साक्षात्कार कर्ता की अनुमति के बगैर किसी अन्य जगह प्रकाशित नहीं कर सकते.

चिड़िया रानी (बाल गीत) - डॉ. प्रमोद सोनवानी

चिड़िया रानी
(बाल गीत)
प्यारी-प्यारी चिड़िया रानी ,
चूँ-चूँ , चक-चक करती है ।
लगती है वह बड़ी सयानी ,
सबके मन को भाती है ।।1।।

मेरे घर के आँगन में ,
बड़े सवेरे आती है ।
दाना चुग-चुग बड़े मजे से ,
फुदक-फुदक कर गाती है ।।2।।

फिर हमें वह टा -टा कहकर ,
फुर्र से उड़ जाती है ।
नन्हीं सी है चिड़िया रानी ,
मन सबका हर जाती है ।।3।।
-०-
डॉ. प्रमोद सोनवानी
रायगढ़ (छ.ग.)


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इमरती बड़ी चुलबुली... (बाल-कविता ) - विश्वम्भर पाण्डेय 'व्यग्र'

इमरती बड़ी चुलबुली...
(बाल-कविता )

इमरती है बड़ी चुलबुली
सोनपपड़ी रही अकड़ी अकड़ी
कलाकंद दे रहा आनंद
बरफी बिफरे करे फंद
रसगुल्ला कर रहे हल्ला
लड्डू ने झाड़ा है पल्ला
मक्खनबड़ा रहते हैं मौन
खीरमोहन की चल रही पौन
जलेबी रस में डूबी पड़ी
रबड़ी बात करे तगड़ी
मोहनभोग लगे अच्छे
गूँजी दे रही है गच्चे
घर अंदर इनके हाँके हैं
घर बाहर फुलझड़ी पटाखे हैं
लक्ष्मी जी करेगी भली भली
हम मना रहे सब दीपावली
-०-
व्यग्र पाण्डे
गंगापुर सिटी (राज.)

-0-



-०-

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हमारे चाचा नेहरू (कविता) - सुरेश शर्मा

हमारे चाचा नेहरू
(कविता)

लाखो बच्चों की दिल की धड़कन ,
चीर परिचित थे चाचा नेहरू हमारे ।
टोपी उनके सर पे शोभता और ,
गुलाब उनके कोट पर चमकता ।
बहुत ही शौकीन थे हमारे चाचा नेहरू

भारत के चाचाजी सदा थे यही कहते,
बच्चों देश के जीवन हो आप ;
तिमिर को हरना काम है आपका ।
भविष्य उज्जवल बनाओ अपना ,
तो होगा ऊॅचा एकदिन नाम आपका।

लाल गुलाबी नीले पीले सभो फूलों मे ,
हृदय की तरह धे वो बसते ।
बगिया मे जब-जब थे फूल खिलते ,
लगता था तब-तब चाचाजी हंसते।

हंसते गाते सदा मुस्कुराते रहना ,
फूलों से मांगते थे वो जीवन वैसे।
हो हमारा वैसा हीं जीवन,
फूलों -सा सदा मुस्कुराहट बिखेरते ।

सुख -दःख दोनो मे एक हीं जैसे,
मन्द - मन्द मुस्कान मे खेलते ।
प्रकृति से हम मांगे वैसा ही जीवन,
जैसे फूल और कली हंसी बिखेरते ।
-०-
सुरेश शर्मा
द्वारा श्री गिरीश चन्द्र मेधि, शंकर नगर, पोस्ट एवं थाना नूनमाटी,
शहर गुवाहाटी,जिला कामरूप (आसाम)
-०-

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चंदा के झूले में (लोरी गीत) - डॉ. सुधा गुप्ता 'अमृता'


चंदा के झूले में
(लोरी गीत)

सनन सनन पवन चले , निंदिया रानी आ जा ।
चंदा के झूले में , गुड़िया को सुला जा ।

हवा के संग उड़ेगी , गगन की सैर करेगी ;
चाँद तारों की बातें , माँ संग बैठ करेगी ;
रोशन ये नाम करेगी , सबको बता जा ।
निंदिया रानी आ जा ।

गुनगुनाती आ जा , झुनझुना बजाती आ जा ;
गुड़िया की पायल छनके , धुन सुनके आ जा ;
रंग बिरंगे सपने , आँखों में सजा जा ।
निंदिया रानी आ जा ।

परियों की रानी जैसी , गुड़िया सजीली है ;
अलकें हैं काली काली , अँखियाँ कटीली हैं ;
लेऊँ बलइयां मैं , नजरा उतार जा ।
निंदिया रानी आ जा ।
-०-
डॉ. सुधा गुप्ता 'अमृता'
(राष्ट्रपति पुरस्कार से सम्मानित)
 कटनी  (म. प्र.)

-०-

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याद (कविता) - नरेन्द्र श्रीवास्तव

याद
(कविता)

मैं आया था
आपके पास
आपसे मिलने
आप पूजा कर रहे थे
मैं करने लगा था
आपका इंतज़ार
मेज पर रखा था अख़बार
पढ़ने लगा 
पढ़ा एक-एक पेज़
उस दिन जाना अख़बार को
खूब होती हैं ख़बरें
महानगर दिल्ली से लेकर
छोटे से गाँव की भी
छपती हैं खबरें
अपराधों से
दुर्घटनाओं से
अनियमितताओं से
भ्रष्टाचार से
तकरार से
भरा पड़ा था अख़बार
आँखों में भर आये थे आँसू
मैं भी करने लगा था याद
भगवान को
जब तक आप आये।
-०-
संपर्क 
नरेन्द्र श्रीवास्तव
नरसिंहपुर (मध्यप्रदेश)  
-०-

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मुक्ति (कहानी) - डॉ दलजीत कौर

मुक्ति
(कहानी) 
वह जब भी अपने बचपन के बारे में सोचता तो अस्वाद से भर जाता |आज भी उसे अपने बचपन की बहुत बातें याद है |शुरू से ही वह जहीन बालक था |आँख बंद कर बैठने पर चालीस वर्ष बाद भी हर घटना एक फिल्म की तरह उसकी आँखों में तैरने लगती |उसे वे सारे घर याद हैं और उस घर से जुडी सब घटनाएँ ,जहाँ -जहाँ वहबचपन में पिता की सरकारी नौकरी के कारण रहा |माँ- बाप के बारे में सोचने पर जो तस्वीर पहले उभरती वह थी माता-पिता की आपसी कलह |दोनों पढ़े -लिखे व सरकारी कर्मचारी थे परन्तु हर पल जानवरों की तरह लड़ते देखा था उन्हें | यह क्रम तब तक चलता रहा जब तक उनमें से एक की मौत नहीं हो गई | 

बचपन की महत्त्वपूर्ण घटना जो पूर्ण रूप से आज भी याद है ,वह थी दो रूपये के नोट का गुम हो जाना | पिता ने दो रूपये का नोट अपने मोटर साईकिल की चाबी के साथ खिड़की में रखा और रात को वह नोट वहां नहीं था |शक केवल और केवल उस मासूम पर किया गया |उस उम्र में वह चोरी का अर्थ भी नहीं जानता था |वह कहता रहा कि उसने पैसे नहीं लिए पर रात के ग्यारह बजे शराबी व गुस्सैल बाप ने उसे घर से बाहर निकाल दिया |वह दरवाज़ा पीटता रहा --'पापा ! मैंने पैसे नही लिए |नहीं लिए |पहले दो घंटे उसे बहुत डर लगा पर फिर उस रात उसने डर को जीत लिया |उसके मन से मौत का खौफ़ खत्म हो गया |साथ ही साथ पिता के मोह ,सम्मान ,विश्वास और प्यार का भी अंत हो गया |आज भी उसे वह जगह याद है जहाँ वह सारी रात छिप कर बैठा रहा |वह स्थान उसके लिए जीवन व सम्बन्धों से मोक्ष पाने जैसा था | 

पौ फटते ही माँ ढूढने आई और बाह पकड़ कर घर ले गई |माँ सरकारी क्लर्क थी |दफ्तर जाने से पहले उसे घर का सारा काम निपटाना होता था |पति से कलह के कारण जीवन से मोहभंग और बचपन से आलसी होने के कारण वह बेटे से घर की सफाई करवाती थी |बहला -फुसला कर सात बरस के बच्चे के हाथ में झाड़ू पकड़ा दी |झाड़ू लगाते हुए वही नोट पलंग के नीचे से निकला |पर गुस्सैल बाप मानने को तैयार ही नहीं हुआ कि नोट उड़ कर पलंग के नीचे गया होगा |उसका शक अभी भी बच्चे पर ही था कि उसने नोट छुपकर रखा था और अब निकालकर लाया है |बच्चे के रोने चिल्लाने पर पिता ने उसे उठाकर ऐसा पटका कि उसका माथा किसी चीज़ से टकरा कर फट गया |उसने माथे पर हाथ फेरा जहाँ आज भी निशान बाकी था |उसे याद आया कि कैसे छोटे -छोटे हाथों की अंजुली खून से भर गई थी और वह बेहोश हो गया था | 

बहुत कोशिश करने पर भी पिता का हैवानियत भरा चेहरा ही जहन में उभरता रहा |अपनी सोच का रुख बदलने के लिए वह माँ के बारे में सोचने लगा |उसे एक भी क्षण ऐसा याद नहीं आया जब माँ ने प्यार से सीने से लगाया हो |बीटा कह कर पुकारा हो |स्नेह से सिर पर हाथ फेरा हो |जीवन से असंतुष्ट माँ ने अपना क्रोध सदा उस पर ही निकला था |उसका मन ज़ोर -ज़ोर से चिल्लाने को हुआ |उसने अपने सिर को दोनों हाथों से पकड़ा और ज़ोर से दबाया|सब विचारों को झटक दिया | 

मुहं में से जब कोई दांत निकाल दिया जाता है तो जिह्वा उसी स्थान पर जा कर लगती है |उसी तरह जीवन के जिस पहलू में कमी हो ध्यान उसी ओर जाता है |उसे माँ की मृत्यु से पहले के दिन याद आए|जानलेवा बीमारी के दौरान माँ को न छोटे बेटे ने पूछा न पति ने परन्तु वह एक नेक आत्मा है जो दूसरों की मदद कर देता है फिर यह तो माँ थी |सब कुछ भुला कर उसने बीमार माँ की बहुत सेवा की |इतनी सेवा कि माँ आत्मग्लानि से भर उठी | 

एक दिन भावुकता के क्षण में माँ ने कहा --'मैंने कभी तेरा कुछ अच्छा नहीं किया फिर भी तू मेरी इतनी सेवा कर रहा है जिन पर मुझे विश्वास था उन्होंने इस हालत में मुझे छोड़ दिया '|माँ की आँखों में पश्चाताप के आंसुओ के साथ प्रश्नचिन्ह था | 

उसे याद है उसका चेहरा सपाट हो गया था और एक महात्मा की तरह उसने कहा था --'-माँ !तुमने मुझे जन्म दिया |यह संसार दिखाया |तुम्हारा यह क़र्ज़ मै इसी जन्म में उतार देना चाहता हूँ |मैं नही चाहता कि कुछ उधार रह जाए और मुझे दोबारा मनुष्य जन्म लेना पड़े |मुझे इसी जन्म में इस बंधन से मुक्त कर दो | मुझे मुक्ति दे दो |'
-०-
संपर्क 
डॉ दलजीत कौर
चंडीगढ़


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मानव हूँ (कविता) - मुकेश कुमार 'ऋषि वर्मा'


मानव हूँ
(कविता)

मानव हूँ मानवता की बात करुँगा,
एक बार नहीं मैं तो दिन-रात करुँगा |
बैर मेरा तम भरी काली रातों से -
मैं उज्ज्वल प्रकाश की बात करुँगा ||


भेदभाव, आडंबर का हो विनाश,
फैले जग में सत्य ज्ञान प्रकाश |
भारत बने हमारा विश्वगुरु -
अज्ञान-अंधेरे का हो सर्वनाश ||


ओउम ध्वजा फहराये घर-घर,
ज्ञान-यज्ञ, वेदकथा हो हर-घर |
ये जग ही स्वर्ग बन जायेगा -
मिट जायेगा हर आसुरी ड़र ||
-०-
मुकेश कुमार 'ऋषि वर्मा'
ग्राम रिहावली, डाक तारौली गुर्जर, फतेहाबाद, आगरा, उ. प्र. 
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अंकुर (कविता) - शुभा/रजनी शुक्ला


अंकुर
(कविता)
कही ना कही कभी ना कभी
ये अंकुर तो फूटेंगे
दबे हैं सालों से जो शोले
कभी तो आखिर फूटेंगे

निरधन सह के जिये ही जा रहा
देख अमीरो की अय्याशी
कभी तो होगा ,सोचता बैठा
मेरा भी इक बँगला शाही

जिन बच्चो का शोषण होता
घृणा का अंकुर पनप रहा होगा
हमारा भी इक दिन आयेगा
जब इन सबका सफाया होगा

रोती बिलखती मासुम बेटियाँ
किसके दम पर धीरज धारे
मजबूत हो रही एक एक मिलके
बदले का अंकुर एैसे फूटे

देश मे बदहाली अव्यवस्था
भ्रष्टाचार आतंक अपहरण
कभी तो इक पौधा पनपेगा
असर तो दिखायेगा अंकूरण
-०-
शुभा/रजनी शुक्ला
रायपुर (छत्तीसगढ)

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दिन बादल वाले (नवगीत) - अशोक 'आनन'


दिन बादल वाले
(नवगीत)
अशोक 'आनन' 
लौट चले -
दिन बादल वाले ।
मचा तबाही -
जाने आतुर
पावस का -
वे देकर नासूर ।
मोड़ चले मुहं -
बादल काले ।
खूब किया -
बूंदों ने तांडव ।
प्रीत के -
जिनमें डूबे मांडव ।
फोड़ चले सब -
बादल छाले ।
नदियां तक -
पानी में डूबी ।
धरती तक -
पानी से ऊबी ।
तोड़ चले मन -
बादल साले ।
बादल की -
अपनी शर्तै हैं ।
मन में -
पर्तें -दर -पर्तें हैं ।
खूब चलें अब -
बादल चालें ।
-०-
पता:
अशोक 'आनन'
शाजापुर (म.प्र.)

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