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Wednesday, 13 November 2019

मुक्ति (कहानी) - डॉ दलजीत कौर

मुक्ति
(कहानी) 
वह जब भी अपने बचपन के बारे में सोचता तो अस्वाद से भर जाता |आज भी उसे अपने बचपन की बहुत बातें याद है |शुरू से ही वह जहीन बालक था |आँख बंद कर बैठने पर चालीस वर्ष बाद भी हर घटना एक फिल्म की तरह उसकी आँखों में तैरने लगती |उसे वे सारे घर याद हैं और उस घर से जुडी सब घटनाएँ ,जहाँ -जहाँ वहबचपन में पिता की सरकारी नौकरी के कारण रहा |माँ- बाप के बारे में सोचने पर जो तस्वीर पहले उभरती वह थी माता-पिता की आपसी कलह |दोनों पढ़े -लिखे व सरकारी कर्मचारी थे परन्तु हर पल जानवरों की तरह लड़ते देखा था उन्हें | यह क्रम तब तक चलता रहा जब तक उनमें से एक की मौत नहीं हो गई | 

बचपन की महत्त्वपूर्ण घटना जो पूर्ण रूप से आज भी याद है ,वह थी दो रूपये के नोट का गुम हो जाना | पिता ने दो रूपये का नोट अपने मोटर साईकिल की चाबी के साथ खिड़की में रखा और रात को वह नोट वहां नहीं था |शक केवल और केवल उस मासूम पर किया गया |उस उम्र में वह चोरी का अर्थ भी नहीं जानता था |वह कहता रहा कि उसने पैसे नहीं लिए पर रात के ग्यारह बजे शराबी व गुस्सैल बाप ने उसे घर से बाहर निकाल दिया |वह दरवाज़ा पीटता रहा --'पापा ! मैंने पैसे नही लिए |नहीं लिए |पहले दो घंटे उसे बहुत डर लगा पर फिर उस रात उसने डर को जीत लिया |उसके मन से मौत का खौफ़ खत्म हो गया |साथ ही साथ पिता के मोह ,सम्मान ,विश्वास और प्यार का भी अंत हो गया |आज भी उसे वह जगह याद है जहाँ वह सारी रात छिप कर बैठा रहा |वह स्थान उसके लिए जीवन व सम्बन्धों से मोक्ष पाने जैसा था | 

पौ फटते ही माँ ढूढने आई और बाह पकड़ कर घर ले गई |माँ सरकारी क्लर्क थी |दफ्तर जाने से पहले उसे घर का सारा काम निपटाना होता था |पति से कलह के कारण जीवन से मोहभंग और बचपन से आलसी होने के कारण वह बेटे से घर की सफाई करवाती थी |बहला -फुसला कर सात बरस के बच्चे के हाथ में झाड़ू पकड़ा दी |झाड़ू लगाते हुए वही नोट पलंग के नीचे से निकला |पर गुस्सैल बाप मानने को तैयार ही नहीं हुआ कि नोट उड़ कर पलंग के नीचे गया होगा |उसका शक अभी भी बच्चे पर ही था कि उसने नोट छुपकर रखा था और अब निकालकर लाया है |बच्चे के रोने चिल्लाने पर पिता ने उसे उठाकर ऐसा पटका कि उसका माथा किसी चीज़ से टकरा कर फट गया |उसने माथे पर हाथ फेरा जहाँ आज भी निशान बाकी था |उसे याद आया कि कैसे छोटे -छोटे हाथों की अंजुली खून से भर गई थी और वह बेहोश हो गया था | 

बहुत कोशिश करने पर भी पिता का हैवानियत भरा चेहरा ही जहन में उभरता रहा |अपनी सोच का रुख बदलने के लिए वह माँ के बारे में सोचने लगा |उसे एक भी क्षण ऐसा याद नहीं आया जब माँ ने प्यार से सीने से लगाया हो |बीटा कह कर पुकारा हो |स्नेह से सिर पर हाथ फेरा हो |जीवन से असंतुष्ट माँ ने अपना क्रोध सदा उस पर ही निकला था |उसका मन ज़ोर -ज़ोर से चिल्लाने को हुआ |उसने अपने सिर को दोनों हाथों से पकड़ा और ज़ोर से दबाया|सब विचारों को झटक दिया | 

मुहं में से जब कोई दांत निकाल दिया जाता है तो जिह्वा उसी स्थान पर जा कर लगती है |उसी तरह जीवन के जिस पहलू में कमी हो ध्यान उसी ओर जाता है |उसे माँ की मृत्यु से पहले के दिन याद आए|जानलेवा बीमारी के दौरान माँ को न छोटे बेटे ने पूछा न पति ने परन्तु वह एक नेक आत्मा है जो दूसरों की मदद कर देता है फिर यह तो माँ थी |सब कुछ भुला कर उसने बीमार माँ की बहुत सेवा की |इतनी सेवा कि माँ आत्मग्लानि से भर उठी | 

एक दिन भावुकता के क्षण में माँ ने कहा --'मैंने कभी तेरा कुछ अच्छा नहीं किया फिर भी तू मेरी इतनी सेवा कर रहा है जिन पर मुझे विश्वास था उन्होंने इस हालत में मुझे छोड़ दिया '|माँ की आँखों में पश्चाताप के आंसुओ के साथ प्रश्नचिन्ह था | 

उसे याद है उसका चेहरा सपाट हो गया था और एक महात्मा की तरह उसने कहा था --'-माँ !तुमने मुझे जन्म दिया |यह संसार दिखाया |तुम्हारा यह क़र्ज़ मै इसी जन्म में उतार देना चाहता हूँ |मैं नही चाहता कि कुछ उधार रह जाए और मुझे दोबारा मनुष्य जन्म लेना पड़े |मुझे इसी जन्म में इस बंधन से मुक्त कर दो | मुझे मुक्ति दे दो |'
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संपर्क 
डॉ दलजीत कौर
चंडीगढ़


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