मन का वृंदावन
(कविता)भूल गई ग्राम्या गौरैया,
काँटों से हँसते बबूल पर,
नीड़ों की मड़ई का छाना |
जहाँ कभी गंगा के तट तक,
आ जाती थी पैदल वरुणा,
आँसू के सँग बतियाती थी,
साथ बैठकर नियमित करुणा,
नहीं कहीं भी नोंक-झोंक थी,
नहीं कहीं थे, चौकी-थाना |
नये समय के वर्तमान की,
बदल गई है हर परिपाटी,
सात्विकता के मठ में ठहरे,
भोगवाद के चेले-चाटी,
पंछी बंद पड़े पिंजरों में,
गाते चलचित्रों का गाना |
अधिकारों पर हक है हठ का,
रंगभेद की नई सदी है,
अस्त्र-शस्त्र की पहरेदारी,
युद्धपोत से लहर लदी है,
अब समाज के संघर्षों को,
संयम मार रही है ताना |
कहाँ पहुँच आए हैं अब हम,
जहाँ नैकटिक परंपरा है,
अवतारों की मृगतृष्णा में,
खड़ी भक्ति की स्वयंवरा है,
यहाँ पुष्टि होती जीवन की,
शहर बसा कितना अनजाना |
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पता:
शिवानन्द सिंह ‘सहयोगी’
मेरठ (उत्तरप्रदेश)
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