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Sunday, 24 November 2019

समाचार विशेष : ओमप्रकाश क्षत्रिय ' प्रकाश ' जी सम्मानित

समाचार विशेष
ओमप्रकाश क्षत्रिय ' प्रकाश ' जी 
■■क्रांतिधरा अंतरराष्ट्रीय साहित्य साधक सम्मान से सम्मानित■■
सुपरिचित बालसाहित्यकार ओमप्रकाश क्षत्रिय 'प्रकाश' को साहित्य सृजन, हिन्दी के प्रचार-प्रसार एवं बालसहित्य उन्नयन के क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान के लिए त्रिदिवसीय क्रान्तिधरा मेरठ साहित्यिक महाकुम्भ 2019 में आज दिनांक 20 नवम्बर 2019 को अंतरराष्ट्रीय हास्य कवि एवं शायर डॉ एजाज पॉपुलर मेरठी , श्री सरण घई ( कनाडा) , श्री कपिल कुमार (बेल्जियम ), श्री रामदेव धुरंधर ( मारीशस), श्रीमती जया वर्मा (ब्रिटेन), डॉ रमा शर्मा (जापान), डॉक्टर श्वेता दीप्ति नेपाल डॉ सच्चिदानंद मिश्र नेपाल आदि आदि देश-विदेश के मंचस्थ अतिथि साहित्यकारों के द्वारा #क्रांतिधरा_अंतरराष्ट्रीय_साहित्य_साधक_सम्मान प्रदान किया गया। इस अवसर पर देश विदेश से पधारे हुए 200 से अधिक शब्द शिल्पियों की उपस्थिति में यह सम्मान प्रदान किया गया।

उल्लेखनीय है कि आप की बालकहानियाँ देश की प्रसिद्ध बाल पत्रिकाओं जैसे- नंदन, चम्पक, देवपुत्र, बाल किलकारी, हँसती दुनिया सहित कई पत्रपत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहती हैं ।हाल ही में एक पुस्तक प्रकाशन की स्वीकृति प्रकाशन विभाग, भारत सरकार द्वारा प्रदान की गई है। आप को इस गौरवशाली सम्मान की प्राप्ति पर हार्दिक ईष्टमित्रों, पत्रकार बन्धु एवं साहित्यकार साथियों ने आप दोनों को हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं दी है।
-०-
सृजन महोत्सव परिवार की ओर से
हार्दिक बधाई !!!

तू गिरी के शिखरों पे (कविता) - डॉ आरती कुमारी

तू गिरी के शिखरों पे
(कविता)

दीपक बन ज्योति बन जग में उजास कर
तू गिरी के शिखरों पे सूर्य बन प्रकाश कर

गहन अंधकार हो, राह दुश्वार हो
पग पग हो अड़चनें, मंज़िल उस पार हो
साहस रख मन मे तू, मुश्किल स्वीकार कर
तू गिरी के शिखरों पे सूर्य बन प्रकाश कर


डर जिसे शूल का, फूल उसे कब मिला
अग्नि में तपकर ही , स्वर्ण से वो खिला
सत्यम शिव सुंदरम से खुद को संवार कर
तू गिरी के शिखरों पे सूर्य बन प्रकाश कर


छलका न व्यर्थ में तू, नयनों के मोती
मन से जीत होती है मन से हार होती
स्वागत कर हर क्षण का उस पे अधिकार कर
तू गिरी के शिखरों पे सूर्य बन प्रकाश कर
-०-
पता-
डॉ आरती कुमारी
मुज़फ़्फ़रपुर (बिहार)

-०-

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सामाजिक मानव (कविता) - कीर्ति


सामाजिक मानव 
(कविता)
मानव इक सामाजिक प्राणी।
रिश्तों की मध्यस्थ है वानी।

कभी फोन चिट्ठी से करता।
खट्टी - मीठी बात सुहानी।

कभी हंसी के फव्वारे तो।
कभी आंख में आता पानी।

कभी उलझनों की बातें हैं।
कभी बात से ही आसानी।

जब मरती है बात पेट में।
घर में होती खींचा तानी।

बातों से ही शब्द झूठ के।
खुलकर होते पानी-पानी।

जब जब स्वयं सिमटता मानव।
करता केवल अपनी हानी।

सम्बन्धों की अमर बेल पर।
बातों की न हो मनमानी।
-०-
पता:
कीर्ति
आगरा (उत्तर प्रदेश)
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हम भारत के पहरेदार (कविता) - पासी राकेश दुलारा

हम भारत के पहरेदार
(कविता)
नींद नहीं हमको आती है, हर पल रहते हैं तैयार
मातृभूमि है शान हमारी ,हम भारत के पहरेदार

गद्दारो से सावधान आतंकी हमसे डरते है
जो है गिरगिट बहुरूपिये,संहार हम उनका करते है
हलख से उनके प्राण निकालू पानी मागे सौ सौ बार
मातृभूमि है...

है उद्देश्य रक्षा करना ,हम कर्तव्य निभाते है
राजनीती का खेल है गन्दा,हमें नहीं ये भाते है
सबक सिखाते सीमा पर छोड़ घर और परिवार
मातृभूमि है...

हिन्दू मुस्लिम सिख ईसाई मिलकर सारे रहते हैं
बच्चे बच्चे का नारा , गर्व संविधान पे करते हैं
अमर हुए जो दे कुर्बानी, नमन उन्हें है बारम्बार
मातृभूमि है...

नींद नहीं हमको आती है, हर पल रहते हैं तैयार
मातृभूमि है शान हमारी ,हम भारत के पहरेदार
-०-
पता-
पासी राकेश दुलारा
मुज़फ्फरनगर (उत्तर प्रदेश)
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'कैकयी' एक आधुनिक सोच (लघुकथा) - अंजलि गोयल 'अंजू'


'कैकयी' एक आधुनिक सोच
(लघुकथा)
मंथरा बड़ी तेजी से कैकई महारानी के भवन की तरफ भगी जा रही थी। वहाँ जाकर जल्दी से राम के राजतिलक का समाचार रानी कैकई को सुनाया । समाचार सुनकर कैकई फूली ना समायी।  उसने मंथरा पर उपहारों की वर्षा कर दी और कहती जा रही थी, "आह! मेरे राम का राजतिलक ...मेरे प्राणों से प्यारे बेटे के सिर पर राजमुकुट...मैं राजमाता बन जाऊँगी ...राजमाता कैकई कहलाऊँगी।" महारानी खुशी में झूम झूम नाच रही थी तभी माँ शारदे ने उनके ह्रदय में प्रवेश किया और कैकयी को यह आभास हुआ जैसे माँ उससे पूँछ रही हों, "हे कैकय! बतलाओ तुम अपने प्यारे पुत्र राम के लिये कितना त्याग कर सकती हो?" कैकयी ने कहा, माँ उतना, जितना कोई नहीं ", "तो ठीक है.. तैयार हो जाओ.. त्याग करने के लिये ...अब वक्त आ गया है एक ऐसी रानी बनने का, एक ऐसी माँ बनने का जिससे दुनिया नफरत करेगी आने वाले युग उसपर थू थू करेगा और तुम्हारा खुद का बेटा भरत भी ।" कैकयी ने कहा, "माँ! अगर ऐसा करना मेरे राम के हित में है, राज्य और समाज के हित में है, तो •• ऐसा ही होगा।" माँ शारदे ने मन्थरा के मस्तिष्क में प्रवेश कर, मंथरा के उकसाने पर कैकयी को वो दो वर माँगने पर विवश कर दिया जिसमें एक में भरत को राजगद्दी और दूसरे में राम को चौदह वर्ष का वनवास और स्वयं के लिये कभी न मिटने वाला कलंक।
कैकयी ना माँगती वर तो वन में ,कैसे ,जाते राम
नही लिखी जाती रामायण ,ना हम जान पाते राम
खुद को बनाया पापिन और राम को भगवान
वो भी तो फूल माला के धागे सी है महान
-०-
अंजलि गोयल 'अंजू'
बिजनौर (उत्तरप्रदेश)

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थकित यात्री (कविता) - इन्द्रकुमार श्रेष्ठ (नेपाल)

थकित यात्री
(कविता)

हे महामहिम !
विश्वास और भरोसे पर आपके ही
अनुरोध और आदेश पर आपके ही
कभी हाथ पकडकर मैने ही चलना सिखाया
कभी तो कन्धे पर ही उठाकर अपने चलना रहा
पीपल के छांव तले चमुतरे पर लाकर सुलाया
उतारकर अंगोछा अपने कन्धे से
आपके पसीने पोंछे और
पीडा से आहत आपके शिर पर लपेटा
अपने पैरो के जूत्ते उतारकर आप की पहनाये
भूख में खाना खिलाया
प्यास में पानी पिलाया
जो भी किया
जितना भी किया
सिर्फ और सिर्फ आपके आराम के लिए
सिर्फ आपके सुस्वास्थ्य की कामना करते हुए
दुःखों और पीडाओं की सीढिंया चढना रहा
बढी कठिनाई से मै आगे बढता रहा ।
मैने
अपनी पीडा आपको कभी नहीं सुनायी
फफोलेयुक्त हथेलियां नहीं देखायीं
फटी हुई एडियां नहीं दिखायी
शरीर पर उपरते हुए खेदस्रोतों को भी
दिखाना नहीं चाहा ।
आपके समक्ष
अपनी पीडा जो
विकृत पीठ और
पीडायुक्त अपना माया नहीं सहलाया
भूख और प्यास की तो बात ही नहीं की
आशा को ही मृतसञ्जीवनी मानता रहा
क्योंकि आप ही ने तो कहा था
‘मैं तुझे नन्दनवन की सैर कराऊंगा !’
उसी भरोसे पर
निरन्तर ढोंता रहा मैं आपको ।
क्षितिज में दिखने वाले
‘हां’ और ’ना’के भ्रामक दृश्य पर
नजर टिकाता रहा
चढाइयों पर
पैर कांपते रहे
पर मैं सपनों के संसार में
अठखेलियां करता रहा
आखिर सयकडों बार थकहाखर भी
बडी कठिनाई से आप को
शिखर पर पहुंचा तो
अकस्मात् आप स्वस्थ और
हंसमुख दिखने लगे
और मुझे
निर्दयता और कृतघ्नतापूर्वक
अपने उन्ही निर्मम हाथों से
मुझे उसी गर्त मे धकेल दिया
जहां से उठाकर मैने
आपको दिखाया था
सफलता का वह शिखर
मुझे लुढकता हुआ देखकर
आप हस्ने लगे अट्टहास करते हुए
कि, ‘आज मेरी यात्रा सम्पन्न हुयी !’
किन्तु मैं
लुढकता लुढकता
अनेक लुकिली चट्टानों पर ठोकर खाता
नीचे, उस से भी नीचे
गर्त पर जा गिरा शिर के बल
अर्धमृत अवस्था मे
और–
बहुत समय बाद
आयी मेरी चेतना वापस
तब वाक्य फूटा मेरे होंठो से
‘गन्तव्य अभी
दूर, बहुत दूर हैं
उन उँचे पहाडों से भी दूर
और फिर नजाने किस किसको
कब तक और कहाँ तक
ढोना हुआ मुझको !
किन्तु महामहिम !
मैं अनुमान नही लगा पा रहा हूँ कि
ये मेरा शरीर
कितना भारी हो गया हैं !
-0-
पता:
इन्द्रकुमार श्रेष्ठ
ओखलढुंगा (नेपाल)

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