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Sunday 19 January 2020

फूल की भूल (आलेख) - डॉ अवधेश कुमार अवध

फूल की भूल
(आलेख)
असल जीवन की यह कहानी 6 दिसम्बर 1959 से सम्बद्ध है। सम्मान, अपमान और निष्कासन की एक ऐसी घटना घटी थी जिसने हर्ष - विषाद का समन्वित इतिहास रच दिया था लेकिन दुर्भाग्यवश इतिहास ने उस यथार्थ को अपने आँचल में कोई विशेष स्थान नहीं दिया। आइए चलते हैं झारखंड (तत्कालीन बिहार) के धनबाद में 62 - 63 साल पुराने अतीत में वक्त का पन्ना पलटने। 
भारत वर्ष में आजादी का बिगुल बज चुका था। देश आत्मनिर्भरता एवं स्वाभिमान से जीवन यापन के सपने साधिकार देखने लगा था। बिहार और पश्चिमी बंगाल का 15000 वर्ग किलोमीटर का परिक्षेत्र दामोदर नदी के भयावह बाढ़ से त्रस्त एवं सजल होकर भी समुचित सिंचाई से वंचित था। तत्कालीन प्रधानमन्त्री पं. जवाहर लाल नेहरू ने अभाव के बीच आधुनिक भारत की नींव रख दी थी। 1948 के अधिनियम 14 के तहत 7 जुलाई 1948 को एक विशेष संसदीय सभा द्वारा भारत के बहूद्देश्यीय नदी घाटी परियोजना के अन्तर्गत दामोदर घाटी परियोजना (दामोदर वैली कॉरपोरेशन) को पारित किया गया। दामोदर और उसकी दो सहायक नदियाँ बराकर और कूनार के तटीय विध्वंश को रोकने के लिए डी वी सी ने चार पनबिजली परियोजनाओं का नियोजन किया। इसमें से तीन मैथन, कोनार व तिलैया का निर्माण सरलता व सफलता पूर्वक सम्पन्न हो गया। अब बारी पंचेत की थी जो स्थानीय विरोध के चलते छठी में ओझाई ज्यों होकर लटक गयी थी। अब तक बाँध बनने के कारण लगभग साढ़े छ: लाख स्थानीय संथाली लोग इधर - उधर विस्थापित हो चुके थे।
धनबाद जिले के मानभूम इलाके के खोरबोना गाँव की तकरीबन 15 वर्षीया बुधनी मझिआइन की बेचैनी बढ़ती जा रही थी। पंचेत पनबिजली परियोजना के शुरु न होने का दंश उसकी नींद उड़ाने लगा था। उसका मन बार- बार एक ही सवाल करता कि नेहरू की दूरदर्शिता उसके ही इलाके में दम तोड़ रही है। कोई समझने को तैयार नहीं। इसके बनने से हजारों लोगों का पेट चलेगा। भूमि का कटाव रुकेगा। जन जीवन सुखमय होगा। बिजली से घर आँगन जगमगा जाएगा, लेकिन लोग हैं कि मानते नहीं........। अक्सर इसी उहापोह में न जाने कब आँख लग जाती और फिर वह यकायक हड़बड़ाकर उठ जाती।
एक दिन सूर्योदय के साथ बुधनी का निश्चय दृढ़ होता चला गया। एक हाथ में फावड़ा और दूजे में बाँस का बुना झउवा लेकर 'एकला चलो रे....' गुनगुनाते हुए वह पहुँच गई पंचेत। अदम्य साहस और असीमित उत्साह के साथ उसने पंचेत की छाती पर फावड़े का पुरजोर प्रहार किया। यह प्रहार वहाँ की जड़वत मानसिकता पर और पंचेत परियोजना पर छाए बादलों पर भी था। डीवीसी में खुशी की लहर का संचार हुआ और संथाली लोग एक एककर जुड़ने लगे। कार्य युद्ध स्तर पर होने लगा। लगभग ढाई वर्षों के अनवरत श्रम से बुधनी का सपना साकार हुआ और पंचेत पनबिजली परियोजना का निर्माण कार्य पूरा हुआ।
रविवार छ: दिसम्बर 1959 का यादगार दिन। 17 वर्षीया बुधनी जिसका मन पहले से ही पंचेत के श्रृंगार से सजा था, आज तन को भी सजा रही थी। क्यों न सजाये! पंचेत पनबिजली का उद्घाटन करने आज पं. नेहरू आने वाले थे और उनके स्वागत की जिम्मेदारी अफसरों ने बुधनी को ही तो दी थी। धूप में तपे साँवले जिस्म पर एक खूबसूरत साड़ी, प्रिंटेड ब्लाउज, कान में झुमके और पारम्परिक हार पहने वह पहुँची थी पंचेत। उसके चंचल और आत्मविश्वास से भरे दोनों नैन किसी को भी बरबस बाँध लेते। बुधनी दुनिया की पहली मजदूर थी जिसने प्रधानमन्त्री का न सिर्फ हार से स्वागत किया, न सिर्फ लोगों को सम्बोधित किया बल्कि उस मंच से बटन दबाकर पंचेत पनबिजली का लोकार्पण भी किया। उन दिनों प्रधानमन्त्री के साथ मजदूर का मंच साझा करना किसी सुखद अजूबे दिवा स्वप्न से कम नहीं था। बुधनी की कर्मठता का प्रतिफल यह सम्मान था जो जवानी की दहलीज पर उसके शारीरिक सौष्ठव को शालीन दर्प से देदीप्यमान कर रहा था।
रात में खुशी की अधिकता के कारण बुधनी की आँखों से नींद गायब थी। पंचेत बाँध के विकास की पल - पल की गवाह थी वह। उसकी झोपड़ी आज उसे स्वर्ग लग रही थी। उसके नन्हें से जीवन की उपलब्धि दूसरों के सौ वर्षों पर भारी थी। नेहरू के तीनों वादों को अनायास ही दुहरा लेती, "सबके पास नौकरी होगी, सबका अपना घर होगा और हर घर में बिजली होगी।" उसे क्या पता था कि पंचेत की बिजली उसके भाग्य पर भी बिजली बनकर टूटने वाली है। घर के बाहर बढ़ते कोलाहल को कान रोपकर उसने सुना तो कानों पर विश्वास ही नहीं हुआ, पर कब तक........। भीड़ उसकी झोपड़ी को जहाँ - तहाँ से तोड़ते- फोड़ते उसके सामने खड़ी थी। दोपहर को जो लोग तालियाँ बजाकर, नारे लगाकर खुद को बुधनी के पड़ोसी होने पर अहोभाग्य समझते रहे थे, रात को हाथ में डंडे लेकर गला फाड़ रहे थे। एक बुजुर्ग काका ने कबीले का फरमान सुनाया, "बुधनी! तूने एक पुरुष को.....अरे क्या नाम था उसका!.... नेहरू....हाँ हाँ .... नेहरू से हार पहनकर अपराध किया है। संथाली परम्परा के अनुसार तुम उसकी पत्नी हुई। लेकिन वह कबीले के बाहर का आदमी है इसलिए तुझे कबीले में रहने का कोई हक नहीं.....जा, अभी इस गाँव से बाहर निकल।" कुछ लोग गंदी- गंदी गालियों की उल्टियाँ भी कर रहे थे पर बुधनी को होश कहाँ था! रोते - रोते उसकी सफायी, "मैंने नेहरू को माला नहीं पहनाई थी और न उनके हाथों पहनी थी। मैंने तो सिर्फ उनके द्वारा दी ही माला हाथ में ले लिया था। बस इतनी सी ख़ता की इतनी बड़ी सजा......!" उसकी भर्रायी आवाज नक्कारखाने की तूती बनकर रह गई। वह तो खुशी के पहाड़ से गम के अन्तहीन समंदर में गिरती जा रही थी.....।
असहाय घरवालों को छोड़कर अनाथ बुधनी पंचेत आ गई। "नेहरू की संथाली पत्नी" और न जाने क्या - क्या संबोधनों के व्यंग्य बाण रोज ही उसे छलनी करते, इसके बावजूद भी वह डीवीसी के मजदूर का फर्ज जी जान से निभाती। सन् 1962 में कूटनीतिक षड्यन्त्र करके उसको नौकरी से निकाल दिया गया। जिस परियोजना की वह पहली निर्मात्री सदस्य थी, उससे ही उसे बेदखल कर दिया गया।
पंचेत में उसकी मुलाकात सुधीर दत्त से हुई। डूबते को तिनके का सहारा मिला और वह अपना दिल हार बैठी। साथ रहते हुए वह दो बेटे और एक बेटी की माँ बनी लेकिन संथाली परम्परा के प्रकोप ने उसे धर्मपत्नी न बनने दिया। वक्त को पछाड़ने वाली बुधनी को पीछे छोड़कर वक्त बहुत आगे निकल गया था।
नेहरू के नवासे राजीव गाँधी 1984 में प्रधानमन्त्री बने तो उसकी आँखों में आशा की एक ज्योति जगमगायी। हुआ यह कि नेहरू म्यूजियम का अवलोकन करते हुए राजीव की नजर नेहरू के साथ एक आदिवासी लड़की की तस्वीर पर पड़ी। पूछने पर उनको पंचेत बाँध के निर्माण में बुधनी की अहम भूमिका का पता चला। राजीव ने उससे मिलने की इच्छा जाहिर की.....। 1985 में भिलाई के एक कार्यक्रम के दौरान राजीव गाँधी से बुधनी की मुलाकात हो सकी। राजीव के आश्वासन और हस्तक्षेप से बुधनी को नौकरी पर फिर से डीवीसी ने रख लिया।
इक्कीसवीं सदी के प्रारम्भिक दो- तीन वर्षों में वह सेवानिवृत्त होकर गुमनाम हो गई। 2010 में एक पत्रिका ने तो उसे मृत भी घोषित कर दिया था। किन्तु संसार में आना और जाना ऊपर वाले के हाथ में है। कठपुतली सरिस मनुज की औकात ही क्या! मलायली लेखिका साराह जोसेफ उसके जीवन पर एक किताब लिखने के सिलसिले में लम्बी छानबीन के उपरान्त बुधनी से मिलीं। वह अपनी बेटी रत्ना और दामाद के साथ जीवन काट रही है। अंतिम इच्छा पूछने पर नेहरू के वादे को याद दिलाते हुए उसने बताया, "राहुल गाँधी से कहकर मेरे लिए घर बनवा दो। मेरी बेटी को नौकरी दिलवा दो ताकि हम बची जिंदगी आराम से काट सकें।" एक सवाल पर उसका जवाब था, "अपने अतीत के काले अध्याय को मैं याद करना नहीं चाहती।"
बद्दुवाओं का असर कहें या प्रकृति का फैसला कहें, बुधनी के निष्कासन के बाद उसका गाँव बाँध की भेट चढ़ गया। जैसे- तैसे लोग सालतोड़ में जाकर बसे। सालतोड़ में उसके कुछ घरवाले भी रहते हैं। एक बार वह हिम्मत करके उनसे मिलने भी गयी पर अपनी जिंदगी के साठ साल पंचेत और संथाली कुप्रथा पर कुर्बान करने के बाद भी रूढ़िवादी परम्पराओं का आघात कम नहीं हुआ। उसे उसके हिस्से का सम्मान नहीं मिला। डीवीसी के पंचेत के इतिहास में उसका नाम न सही पर बदनाम होकर भी वह पंचेत की बुनियाद से संथाली समुदाय को सदैव आइना दिखाती रहेगी।
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डॉ अवधेश कुमार अवध
गुवाहाटी(असम)
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◆ लाल गुलाब◆ (लघुकथा) - अलका 'सोनी'

◆ लाल गुलाब◆
(लघुकथा)
किरण गुस्से में लाल हुए जा रही थी। उसके गमले में खिले लाल गुलाब गायब थे, वो बड़बड़ाये जा रही थी कि बस एक बार पता चल जाये कि किसने तोड़ा है फिर उसे अच्छे से सबक सिखाएगी । सुबह ही उसने देखा था कि किराएदार का छोटा लड़का वहीं गमले के पास खेल रहा था, जरूर उसी ने तोड़ा होगा। दनदनाते हुए वो अपने किराएदार के पास पंहुच गयी और गुस्साते हुए खूब खरी-खोटी सुनाई। धमकी भी दे दी कि फिर ऐसी हरकत की तो घर छोड़कर जाना होगा। इतने कम किराये में दूसरा घर उन्हें कहीं नहीं मिलेगा। 
अब जाकर उसे थोड़ी शान्ति मिल रही थी। फिर उसे ध्यान आया कि संध्या-वंदन का समय हो गया है। घर जाकर आरती करनी चाहिए । तभी उसकी दादी ने बताया कि उन्होंने आज आरती कर ली है और आज खिले लाल गुलाब भी पूजा में चढ़ा दिया है। 
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अलका 'सोनी'
बर्नपुर- मधुपुर (झारखंड)

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लानत (कविता) - व्यग्र पाण्डे


लानत
(कविता)
घर बदले जाति-बिरादरी के कारण
सामान बदले वास्तु-दोष के कारण
लिवास बदले, मित्र भी खास बदले
बहुत कुछ बदला कारण-अकारण
सरकारें बदली दरकारें बदली तू ने
पर बहशीपन ना बदला अपना तूने
फर्क होता जानवर इंसान में कुछ तो
फिर क्यूँ नहीं, स्वयं को बदला तूने
युग बदले बहुत कुछ बदला फिर भी
पर दूषित केंचुली को ना बदला तूने
खुद बदल जाता धरा स्वर्ग बन जाती
अफ़सोस जिसको नर्क में बदला तूने
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व्यग्र पाण्डे
सिटी (राजस्थान)

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आत्महत्या (लघुकथा) - मुकेश कुमार 'ऋषि वर्मा'

आत्महत्या
(लघुकथा)
आधी रात बीत चुकी थी | गली के कुत्ते अपना-अपना राग अलाप रहे थे | अनाथालय में सन्नाटा पसरा था, कि तभी मुख्यद्वार की छोटी खिड़की खुली | खिड़की से अनाथालय की संचालिका, गार्ड और एक 15-16 वर्ष की लड़की सहित कुल तीन परछाईयाँ निकलकर एक चमचमाती कार में समा गईं | कार तेजी से अंधेरा चीरती हुई बाहर मुख्यमार्ग पर गुम हो गई... और फिर सीधे मंत्रीजी के विश्रामगृह के सामने ही प्रकट हुई |

विश्रामगृह से एक हृदय विदारक जोरदार चीख निकली और सारा शहर खामोश हो गया | रात बीत चुकी थी, सुबह होने को थी | मंदिरों में शंख फुकना शुरू हो चुके थे व मिस्जिदों के लाउंड़स्पीकर जोर-जोर से चिल्ला रहे थे | कुलमिलाकर चारों ओर धर्म का डंका बज रहा था | डंका बजना बंद हुआ तो सारा शहर काम पर निकल पड़ा |

अनाथालय के सामने साइरन बजाती तमाम गाडियां दस्तक दे चुकी थीं | पुलिसिया कार्यवाही शुरू हो चुकी थी, क्योंकि पुलिस को पास के ही एक नाले से अनाथालय की एक 15-16 साल की लड़की की लाश जो मिली थी |

मीडिया रिपोर्ट की मानें तो लड़की परीक्षा को लेकर डिप्रेशन में थी और इसी वजह से उसने आत्महत्या करली... मामूली - सी खानापूर्ती के बाद पुलिस ने भी केस की फाईल बंद कर दी !
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मुकेश कुमार 'ऋषि वर्मा'
फतेहाबाद-आगरा. 
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पहाड़ (लघुकथा) - छगनराज राव

पहाड़
(लघुकथा)
दुर्गाराम नाम का एक आदमी एक छोटे से गांव में अपने छोटे से परिवार के साथ एक घास फूस की बनी झौंपड़ी में जीवन यापन कर रहा था। समय बीतता गया, मेहनत मजदूरी करके नित रोटी पानी का जुगाड़ करके अपने बूढ़े माँ बाप की सेवा भी करता था। इस रोज की दिनचर्या में उसकी पत्नी टीपू पूरा साथ दे रही थी।
शादी के पांच वर्ष बाद विधाता ने टीपू की कोख में वंश का बीज डाल दिया। 
चार महीने का जब भ्रूण हुआ तब से वह आंगनवाड़ी केंद्र से अपना देखरेख करवाने लगी। बच्चे की आशा में घरवाले सभी खुश नजर आ रहे थे। सभी नये मेहमान के आगमन की प्रतीक्षा में लगे हुए थे।
आखिर समय आ ही गया, टीपू के नवम महिना लग गया था, सभी उसका ध्यान रखने लगे। बीस दिन बाद टीपू के दर्द उठना शुरू हुआ तो उसने अपने पति दुर्गाराम को बताया। दुर्गाराम उसको लेकर गांव के प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र पहुंचा। मगर स्थिति ये हो गई कि नर्स ने बताया कि अभी के अभी इसे शहर के बड़े अस्पताल में लेकर जाना पड़ेगा वरना जच्चा बच्चा सुरक्षित न रह पाएंगे। 
दुर्गाराम अब करे तो क्या करे, क्योंकि उस गांव से शहर जाने के लिए कोई सीधा मार्ग या रोड बना हुआ नहीं था, कारण की वह गांव पहाड़ की तलहटी में बसा हुआ था। पहाड़ को पार पैदल करने के बाद शहर की सड़क मिलती थी।
दुर्गाराम हिम्मत जुटाकर अपनी पत्नी को पीठ पीछे झोली बनाकर बैठाया और पहाड़ पर चलने लग गया, उस दौरान टीपू के दर्द बढ़ता गया पर क्या करे विधि के विधान को कोई बदल नहीं सकता। पथरीले संकड़े रस्ते से पहाड़ की चोटी तक पहुंच गया। अब नीचे उतरते वक्त उसका पैर फिसल गया।क्योंकि उसकी नजर उस सड़क को ढूंढ रही थी, कहते है "सावधानी हटी तो दुर्घटना घटी"। दोनों ही नीचे गिरकर लुढ़कते लुढ़कते नीचे आ पहुंचे। चोटिल तो होने ही थे। तुरन्त दुर्गाराम खड़ा होकर पत्नी के पास गया तो देखा कि पत्नी लहूलुहान अवस्था में बेहोश पड़ी हुई थी। आसपास के लोगो की मदद से अस्पताल ले जाते वक्त मार्ग में ही टीपू ने दम तोड़ दिया, इस संसार को अलविदा कर चली गई। थोड़े महीनों के बाद दुर्गाराम पत्नी वियोग में क्षीण होता गया और उसने भी अपने प्राण त्याग दे दिए। मगर जाते हुए उसने कहा - गांव में सड़क होती तो मेरी पत्नी मरती क्या?
ये पहाड़ नहीं होता तो पत्नी मर जाती क्या?
यदि इस पहाड़ को काटकर सरकार सड़क बनाती तो मेरी पत्नी मरती क्या?
आप सबसे निवेदन है कि गांव से शहर तक पहाड़ को काटकर सड़क जरूर बना देना, ताकि कोई भी मरे नही। तभी आत्मा को शांति मिलेगी।
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पता
छगनराज राव
जोधपुर (राजस्थान)
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