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Friday, 17 April 2020

परोपकार का भाव (ग़ज़ल) - सत्यम भारती

परोपकार का भाव
(गजल)
कितना स्वच्छ सुंदर अपना शहर रखता है,
परोपकार का भाव ठहरा शज़र रखता है ।

ग़म में बिखर कर भी हमेशा मुस्कुराता है ,
अपने साथ वह यादों का सफ़र रखता है ।

तरक्की के शिखर पर अब वही पहुंचता,
जो दिल इधर औ' दिमाग उधर रखता है ।

अब साजिशों से बच पाना है इधर मुश्किल ,
वो अपनों से बचने के लिए खंजर रखता है ।

शालीनता कहाँ शहरों की भूल-भुलैया में ,
वो तो घने साये में भी दोपहर रखता है ।

अपने किए की सजा सब यहीं भोग जाते ,
कोई तो है जो सब पर नज़र रखता है ।

वक्त के रण में हमेशा बनता वही सिकंदर ,
जो दोस्त संग दुश्मनों की भी ख़बर रखता है ।

अबकी हादसे में कम मिले अस्थि-पंजर ,
कौन है जो लाशों पर पत्थर रखता है ? -०-
पता-
सत्यम भारती
नई दिल्ली
-०-

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काँटों पे चलना (ग़ज़ल) - अलका मित्तल


काँटों पे चलना
(ग़ज़ल)
गर पाना है मंज़िल तो,काँटों पे चलना पड़ता है,
जग के उजियारे की ख़ातिर सूरज को तपना पड़ता है।

ग़म अंदर हों चाहे जितने,उनको सहना पड़ता है,
अपनो का दिल रखने को अश्क़ो को छुपाना पड़ता है।

सच के आगे बिका झूठ,दाम लगाना पड़ता है,
चलन है ये इस दुनिया का दस्तूर निभाना पड़ता है।

नहीं देर तक रहता साया,मिटना तो उसको पड़ता है,
खेल है ये बस धूप छाँव का मन को समझाना पड़ता है।

क़द कितना भी हो ऊँचा,झुकना फिर भी पड़ता है,
घर की साख बचाने को दिल पत्थर करना पड़ता है।-०-
पता:
अलका मित्तल
मीरत (उत्तरप्रदेश)

-०-

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सृजन महोत्सव के संपादक सम्मानित

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