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Sunday, 22 December 2019

आखिर कब तक (कविता) - शुभा/रजनी शुक्ला



आखिर कब तक
                   (कविता)
आखिर कब तक चलता रहेगा मौत का ये विभत्स सिलसिला
दामिनी गुड़िया आसिफा और अब ये प्रियंका का जला शव मिला

क्यों रूक नही पा रहीं दरिन्दगी की गंभीर दास्ताने
आखिर क्यों सुरक्षित नही युवतियाँ अपने ही देश मे राम जाने

कहाँ खो गया जमाना वो जब हम खुद को पूर्ण सुरक्षित समझती थीं
छु ना पायेगा सीता का दामन कोई ये विश्वास हमारी खुशकिस्मती होती थी

पर आज मेरे देश को ना जाने ये किसकी बुरी नजर लग गयी
जनता ,भ्रष्टाचार आतंक और बलात्कार की भेंट चढ गयी

क्या हार मान कर हम सब अपनी सारी उम्मींदे छोड़ दे
कोई भी कुछ कर ना सकेगा अपनी स्वार्थ सिद्धी को छोड़ के

धिक्कार है भारत माँ के एैसे कपूतो और गद्दारों पर
जो अपनी हवस को तृप्त करते मासूमो की चिताओं पर

इन जानवरो को जीवन जीने का कोई हक नही
इन जैसों के लिये तो फाँसी की सजा भी कम रही

दोस्तों आज वक्त हमे नींद से जागने कह रहा है
स्वतंत्रता संग्राम के क्राँतिकारियों के जैसे दिन रात सेवा मे लगने कह रहा है

एै युवा पीढी तुम पर ही अपनी अंतिम उम्मींद टिकी है
उठो जागो परिचय दो वीरता का हमारी निगाहें अब तुम पर ही रूकी है

स्वतंत्रता की लड़ाई मे युवाओ ने जैसे अति उत्साह दिखाया था
अपने देशभक्ति के अप्रतिम जोश से देश को आजाद कराया था

आज फिर जरूरत उसी जोश की हिम्मत और जज्बात की
कोई उम्मीद नही सरकार से आस बँधी है सिर्फ आपसे

जागो भारत जागो मृगतृष्ना भरी इस नींद से भावी भारत जागो
देश की जर्जर होती शासनव्यवस्था को सुचारू रूप से चलाने जागो

माँ बीबी बहन और बेटी तुम भी आज देश सेवा मे आ खड़ी
फक्र है तुम पर भी आज तुमसे भी देश की शान ही बढी

अाखिर कब तक मासूमो की याद मे हम मोमबत्तियाँ जलाते रहेंगे
नही !बस अब और नही अब तो न्याय का डंका बजवा के रहेंगे

भारत मे व्याप्त विक्षिप्तता को जड़ से हमे मिटाना ही होगा
एक दूजे का साथी बनकर हमे शासन से टकराना ही होगा

आराम भरी जिन्दगी त्याग कर मेरे भाईयों तुम्हे अपना फर्ज निभाना ही है
ओ देश के कर्णधारो तुम्हे अपनी माँ के दूध का कर्ज चुकाना ही है
-०-
शुभा/रजनी शुक्ला
रायपुर (छत्तीसगढ)

-०-

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नारी का उत्पीड़न देश प्रेम संग (कविता) - खेम सिंह चौहान 'स्वर्ण'

नारी का उत्पीड़न देश प्रेम संग
(कविता)
नारी का उत्पीड़न देश प्रेम संग
निज अबला कही जाती है वो
ऐसा कब तक आयेगा ये "है" शब्द
बदल कर रख देंगे इतिहास को हैं
कर जायेंगे कुछ ऐसा इस जहां में
निज अबला कही जाती "थी" हो जाएगा अब
रे नीच मनुज तू क्यों भूखा है वासना का
मिटाना ही है वासना का दुख तुझे
तो जा राष्ट्र से वासना की शपथ ले तू
मिटा दे तेरी प्यास हो जितनी
दिखा दे तेरी ताकत त्रास की
रह जाएंगे स्तब्ध सब राज ये
क्योंकि कहलाएंगे फिर विश्वगुरु हम
कुछ तो सोच इस अबला नारी का
रिश्ता पुराना है तेरी मां और बेटी का
नहीं जानता इस रिश्ते को तो
छोड़ चला जा इस जहां से अब तू
कुछ नहीं रखा इस काम वासना में
बदनाम होकर रह जाएगा तू
अगर दिखाएगा राष्ट्र प्रेम तू
नाम जग में कमाएगा फिर तू
इस शरीर का तो क्या है रे बंदे
मिलता एक दिन मिट्टी में ये
लिपटना है तो जा लिपट मिट्टी से
क्यों तड़पा रहा है इस जीवात्मा को तू
उठ जाग और देख उस सोने की चिड़िया को
जिसके लोग पूछे जाते थे अक्सर
नाम अमर कर गए वो जन
तू भी शक्ति दिखा दे अब गण
निज अबला कही जाती हूं मैं नर
इसको अब मिटा दे तू अब तर
बना दे "है" को "थी" मेरे लोक के वासी
भीख मांगती तुझसे ये इतिहास की अबला दासी
अभी तो तुझे प्यार से समझा रही हूं
कि तू है इस देश की मिट्टी का
सच बता रही हूं तुझे मैं बंदे
अगर नहीं होता इस मिट्टी से तेरा रिश्ता
जलाकर ख़ाक कर देती अस्तित्व तेरा
संभल जा प्यार से वक़्त है अभी भी
जब निकल गया मेरा लावा दिल से
नहीं बचेगा तू इस तिहुं लोक में
न बचेगी कोई तेरी माया
निज अबला कही जाती थी मैं
अब इतिहास की बात हो गई हैं ये
-०-
पता- 
खेम सिंह चौहान 'स्वर्ण'
जोधपुर (राजस्थान)
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मुहावरों की एक ग़ज़ल (ग़ज़ल) - डॉ० अशोक ‘गुलशन’


मुहावरों की एक ग़ज़ल
(ग़ज़ल)
मैं साँसों का पंक्षी ऐसा जिसमें है द्रुत गति का कोष,
इतना निर्बल पथिक नहीं जो नौ दिन चलूँ अढ़ाई कोस|

राई को पर्वत कर दूँ मैं तिल को ताड़ बना डालूँ,
पत्थर में भी जान डाल दूँ इतना है जीवन में जोश |
अन्धों में काना राजा हूँ एक पन्थ दो काज करूँ,
पाँचों उँगली घी में अपनी अस्तु सभी के मन में रोष|
योग-ह्रास की सीमाओं पर सदा खरा मैं उतरा हूँ,
चाहे जितना गणित लगा लो तनिक न पाओगे तुम दोष|

मुझको समझो मुहावरों में ऐसी एक पहेली हूँ,
विस्मित कर डालूँ में सबको और उड़ा दूँ सबके होश|
-०-
संपर्क 
डॉ० अशोक ‘गुलशन’
बहराइच (उत्तरप्रदेश)
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माँ (कविता) - डॉ . भावना नानजीभाई सावलिया


माँ
      (कविता)
माँ सृष्टि पर भगवान का सर्व श्रेष्ठ सर्जन है,
‘माँ‘ शब्द में  ही सारे ब्रह्माण्ड का दर्शन है।

ममत्व का महासागर और वात्सल्य का है वैभव।
हमें वे स्नेह सरिता में स्नान कराती है सदैव !!

माँसत्य, समर्पण, सहनशीलता की वनिता है,
त्यागी, तपस्विनी, तरुवर की शालिनता है!!

वे उर उर्वरता, ऊर्जा ऊर्जित, ऊर्मिला हैं,
कुसुम-सी हृदया, करुणा की सलिला है!!

घर के सदस्य माँ के हृदय वीणा के तार है!
सबके सुख– दुःख उनके सरगम के सुर है।।

माँ के जागने से सारा गृह सजीव– सा होता है,
उनके सोने से सब-कुछ निर्जीव–सा लगता है।।

ग़म को पी के खुशियों को बाँटना माँ का कर्म है,
सबको चाहना उनके जीवन मंत्र का धर्महै।।
निस्वार्थ नेह नैन में नित बरसाती है,
प्रेम पीयूष का पेय का यमकर वाती है।।

बन के स्वयं धागा सब पुष्पों को पिरोती है!
समभाव का थाल सबको परोसती है!!

दूसरों का दर्द उनकी आहें बनती है!
सारी रात ममत्व काम रहम लगाती है।।

माँ का तन-मन-धन सबको है अर्पण।
फिर भी नहीं किया जमा किसी का समर्पण।।

पूरे श्रद्धा भाव से एक बार झुककर देखो !
माँ के चरणों में ही है जन्नत का सुख परखो !!

माँ के आशीर्वाद से नसीब भी बदल जाते हैं।
माँ के प्रेम के आगे प्रभु भी झुक जाते हैं।।
-०-
पता:
डॉ . भावना नानजीभाई सावलिया
सौराष्ट्र (गुजरात)

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तुलसी विवाह (लघुकथा) - गोविंद भारद्वाज

तुलसी विवाह
(लघुकथा)
गायत्री ने अपने घर के आँगन में एक तुलसी जी का पौधा लगा रखा था।उस नन्ही सी तुलसी की पूजा और सेवा करते हुए वर्षों गुजर गये। एक बार कार्तिक माह में गायत्री ने पुण्य कमाने के लिए तुलसी जी का विवाह करने की योजना बनाई।एक दिन गायत्री जी ने अपने पति ब्रह्मदेव से तुलसी जी के विवाह की बात छेड़ी। ब्रह्मदेव ने पूछा,"तुलसी विवाह में लगभग कितना खर्च हो जाएगा?" "खाना- पीना, शालिग्राम की बारात का स्वागत, फेरे व विदाई में लगभग दो से तीन लाख रूपये तो लगता ही जाएंगे।" गायत्री ने अंदाज बताते हुए कहा। इस पर ब्रह्मदेव ने कहा,"इस काम में इतने ही और रूपये लगा दिए जाएं तो एक जीवित तुलसी का विवाह कर दें तो।" "क्या कहना चाह रहे हो....मेरी तो कुछ समझ में नहीं आ रहा।" गायत्री ने अनभिज्ञता जताते हुए पूछा। इस पर ब्रह्मदेव ने अपनी पत्नी गायत्री को समझाते हुए कहा,"देखो अपना ड्राइवर है ना...रघु।वह वर्षों पुराना मुलाजिम है हमारा। उसकी बीस साल की बेटी है। उसकी सगाई एक साल पहले हो चुकी है लेकिन रघु की आर्थिक स्थिति अच्छी न होने के कारण शादी की तिथि तय नहीं कर पा रहा है वो। क्यों न उसका विवाह अपने हाथों से करा दिया जाए।" "लेकिन मुझे तो तुलसी जी का विवाह करना है।" गायत्री बोली। इस पर ब्रह्मदेव ने मुस्कराते हुए कहा, "हाँ...हाँ भाग्यवान ..तुलसी का ही विवाह करेंगे।" "वो कैसे जी?" गायत्री ने आश्चर्य से पूछा ।
"वो ऐसे कि रघु की बेटी का नाम तुलसी ही है।" ब्रह्मदेव ने जवाब दिया। अपने पति के इस जवाब से गायत्री फूली नहीं समायी। वह तुलसी के विवाह की तैयारी में जुट गयी।
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पता:
गोविंद भारद्वाज
अजमेर राजस्थान


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चिकित्सा एक पवित्र व मानवीय कार्य (आलेख) - सुनील कुमार माथुर

चिकित्सा एक पवित्र व मानवीय कार्य
(आलेख)
देश भर में आज चिकित्सा की अनेक पैथियां है । हर पैथी की अपनी विशेषता है । वही हर चिकित्सा पद्धति में निरन्तर शोध हो रहे हैं ताकि बेहतर और स्वस्थ भारत का निर्माण हो सके । आज चिकित्सा की अनेक संस्थाओं से जुडे लोग भिन्न-भिन्न पैथी में ज्ञानार्जन कर उपाधियां हासिल कर रहे है उनको अपने व्यवहारिक जीवन मे समाज के हित में इनका उपयोग करना चाहिए । 
जीवन, वाणी एवं मे सदैव स्वंय को इस उपाधि के योग्य प्रमाणित करें । हर चिकित्सा पैथी का अपना महत्व है सभी पैथी है उसमें एक पैथी और है वह है एम पैथी अथति आत्मानुभूति । इस पैथी को रोगी के साथ जोडने की जरूरत है । कोई भी रोगी व तीमारदार जब हार जाता है तो वह चिकित्सक को भगवान मानता है । चिकित्सक एम पैथी आत्मानुभूति का समावेश कर रोगी को अच्छी राहत दे सकते हैं । चिकित्सा केवल पैसा कमाने का साधन नहीं है । यह एक पवित्र व मानवीय कार्य है । पीडित मानवता के आंसू पोछ दे न मालूम उनको कितना लाभ मिलेगा । हर पैथी में विशेषज्ञता हासिल करने वाले एम पैथी आत्मानुभूति की भावना को विकसित करें । यही मानवता का सबसे बडा धर्म है ।
-०-
सुनील कुमार माथुर ©®
जोधपुर (राजस्थान)

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