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Thursday, 3 December 2020

'कितना समय गँवाते हैं!' (कविता) - रजनीश मिश्र 'दीपक'

 
'कितना समय गँवाते हैं!'
(कविता)
कितना समय गँवाते हैं,हम सजने और सँवरने में।          
पाने को झूठी प्रशंसा, फँसने को झूठे आकर्षण में।        
यह सच है सजी हुई चीजें,सब को आकर्षित करती हैं।    
पर गुणवत्ता के बिना किसी का,भला नहीं कर सकती हैं।
फिर भी इस आकर्षण की, हम अंधी दौड़ में घुसते हैं।
उच्च लक्ष्यों को तजकर के,बस रूप रंग को रचते हैं।     
पर इन सब कृत्यों से केवल,हम समय दुरुपयोग करते हैं।
आइटम बन प्रसारित होते, सर्जक न कोई बनते हैं।         
बस स्वयं सुन्दरता की ही बातें,मन में गढ़ते रहते हैं।       
दूसरों को तुच्छ जताने की, गलतियाँ करते रहते हैं।         
बार बार छबि निहारना दर्पण में,दर्प हमारा बढ़ाता है।     
जरूरी चीजों से ध्यान भटकाकर,हमें नाकारा बनाता है।  
यह बनना ठनना हमको,कुछ हद तक खुशियाँ देता है।    
पर असली खुशियों के स्रोत के,सब द्वार बंद कर देता है।
इस तरह ही यदि महापुरुषों ने,अपना समय गँवाया होता।
तो वे कैसे दिलाते आजादी,                                 
उन्होंने कैसे वायुयान बनाया होता।                              
हम कैसे पाते रात्रि में रोशनी,                                
हमने कैसे तकनीकी ज्ञान बढ़ाया होता।                        
कैसे होते मेजर आपरेशन,                                   
कैसे ब्रह्मोस गया बनाया होता।                                   
हम कैसे पढ़ते गीता रहस्य,कामायनी या गीतांजलि को। 
रश्मि रथी जैसे खण्ड काव्यों,                                 
और रहीम कबीर के दोहों को ।                                    
पंचतंत्र की कहानियाँ,हम कैसे बच्चों को सुनाते।            
खूब लड़ी मरदानी वाली,गाथायें कैसे गा पाते।              
इन महापुरुषों ने किया था,हर पल का सदुपयोग यहाँ।    
अमर हो गए वे धरा पर, उनका ॠणी हो गया जहाँ।      
दीपक आरजू इतनी भर है,                                    
कोई यह बेशकीमती समय न खोओ।                          
हर पल चिंतन करो सृजन का,दुःख में भरकर मत रोओ।
-०-

पता 

रजनीश मिश्र 'दीपक'
शाहजहांपुर (उत्तरप्रदेश)

-०-



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मै भारत माँ का बेटा हूँ ! ((कविता) - रूपेश कुमार

 

मै भारत माँ का बेटा हूँ !
(कविता)
मै भारत माँ का बेटा हूँ ,
भारत माँ मेरी माता है ,
भारत माँ का लाल हूँ ,
भारत माँ का सोना हूँ ,

मै भारत माँ का बेटा हूँ ,
भारत माँ मेरी आँशु है ,
भारत माँ की छांव में ,
हर दिन सुकून पाता हूँ ,

मै माँ का बेटा हूँ ,
भारती की मै आशियाने मे ,
हर दिन-रात भटकता हूँ ,
भारत माँ आन-बान-शान है मेरी ,

मै भारत माँ का बेटा हूँ ,
भारत माँ को पुजता हु मै ,
भारत माँ की राह चलता हूँ मै ,
भारत माँ आरजू है मेरी ,

मै भारत माँ का बेटा हूँ ,
मेरी भारत माँ विश्व की सिरमौर है ,
जिसे सारी दुनिया मे पूजा जाता ,
जहाँ राम की पूजा होती ,
सभी अल्लाह को पुकारते है ,
गुरुनानक देव जन्म लिए ,

मै भारत माँ का बेटा हूँ ,
जहाँ जैन धर्म की उत्पति हुई ,
महावीर यहाँ पैदा हुये ,
बुद्ध ये जन्म भूमि हुई ,

मै भारत माँ का बेटा हूँ ,
जहाँ रफी साहब राम का गीत सुनाते ,
प्रेमचंद्र बच्चो को ईदगाह सुनाते ,
कितनी प्यारी हमारी भूमि ,

मै भारत माँ का बेटा हूँ ,
जहाँ ज्ञान का उदभव हुआ ,
विश्व मे शान्ति का पाठ पढाया ,
जहाँ आर्यभट्ट , भास्कर का जन्म हुआ ,
मै भारत माँ का बेटा हूँ !
-०-
पता:
रूपेश कुमार
चैनपुर,सीवान बिहार
-०-


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हल्दी घाटी-युध्द (कविता) - रामगोपाल राही

 

हल्दी घाटी-युध्द
(कविता)
बिगुल बजे रणभेरी संग में ,
राणा की ललकार उठी |
मुगल सेना  से -टकराने ,
राणा की तलवार उठी ||

रणवीरों  की आवाजों से ,
हल्दीघाटी गूंजी थी |
शाही सेना राणा आगे ,
लगती धूजी धूजी थी ||

एक तरफ महाराणा उनका ,
शौर्य तेज महान था |
सामने सम्राट ,अकबर का ,
गर्व बड़ा अभिमान था ||

युद्ध नगाड़े बजे निरंतर ,
शंख बजे रणभेरी थी |
बुलंन्द हौसले महाराणा के ,
हुई न थोड़ी देरी थी ||

भीषण युद्ध लड़ा था उनने ,
 मरे मुगल दल सेनानी |
छक्के छूटे मुगलों के थे ,
माँग सके ना वो पानी ||

महाराणा की सेना ने   सच ,
नाको चने चबाए थे |
आकुल व्याकुल मुगल सैन्य के ,
पल-पल होश उड़ाए थे ||

भिड़े रुण्ड से रूण्ड मुंड तो ,
कुचले अश्व की टापों से |
धूल धूसरित गगन दिशाएँ ,
धूल अश्व की टापों से ||

हल्दीघाटी युद्ध का समझो ,
खौफनाक वो मंजर था |
खून की नदियाँ बह निकली थी ,
बड़ा भयानक मंजर था ||

महाराणा का भाला भारी ,
उसके वार प्रहार से |
शत्रु मरे अनेकों उनकी 
दूधारी तलवार से ||

ठोकर खाते रुण्ड धड़ों पर , 
 घोड़े दौड़े जाते थे |
घोड़ों की टापू से बिखरे ,
शव छलनी हो जाते थे ||

 सैनिक कम थे पर राणा की ,
 क्षमता में थी कमी नहीं |
लड़ते ही वो  रहे निरंतर ,
गति लड़ने की थमी नहीं ||

हल्दीघाटी पट गयी थी ,
मुगल सैन्य दल लाशों  से |
दिवस  दिशा नभ धूमिल धूमिल ,
धूल अश्व की टापों से ||

मुगल सेना हौसला पस्त ,
पकड़ सकी  न राणा को |
युद्ध में भी छका छका वो ,
 जीत सकी ना राणा को ||

 धैर्य धीरता  और वीरता ,
महाराणा सी कहीं नहीं |
महाराणा के शौर्य तेज सी 
मिलती कोई नजीर नहीं ||

बलशाली महा योद्धा राणा ,
उनके जैसा और नहीं |
इतिहास में उनसे बढ़ के ,
कोई भी सिरमोर नहीं ||

स्वाभिमानी महाराणा की ,
गाथा गौरवशाली है |
शूर वीरता गरिमा उनकी ,
जग में महिमा शाली है ||
-०-
पता
रामगोपाल राही
बूंदी (राजस्थान)
-०-



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इंसानियत (लघु एकांकी) - डॉ.राजेश्वर बुंदेले 'प्रयास'

 

इंसानियत
(लघु एकांकी)
दामू: कहाँ जा रहे हो भाई ? 
शंकर : बाजार  जा रहा हूँ ।
दामू : अरे वाह !
क्या खरीदने  जा रहे हो भाई ?
शंकर :कुछ ज्यादा नहीं, 
बस थोड़ा ही ...
 दामू:  तुम  जिस दिशा की ओर चल पड़े हो,वहाँ तो आने जाने पर प्रतिबंध लगा दिया गया है ।
और ये क्या तुम्हारा  थैला तो पूरी तरह से भरा हुआ लग रहा है ।
शंकर: चलो  ठीक है, आता हूँ।मुझे विलंब हो रहा है ।
प्रतिबंधित क्षेत्र में खरीददारी और भरे हुए थैले के साथ ,
चलो चलकर देखते हैं ।
(दामू मन ही मन कहता है)
शंकर :साहब, 
मुझे देर तो नहीं हुई, 
क्षमा करना ।
आज नाश्ते में आलू पोहा बनाया है ना ।
आलू के उबलने में देरी हो गई ।
साहब : अरे भाई, 
आप रोज हम सुरक्षा कर्मीयों को मुफ्त में  चाय नाश्ता दे रहे हो, 
और उपर से क्षमा याचना कर रहे हो ।
शंकरा  :साहब ,
आप भी तो अपने परिवार से दूर हम लोगों की सुरक्षा हेतु दिन रात इस विराने से बाजार में ठहरे हो।
(शंकर और साहब के संभाषण के बीच दामू आ जाता है, तभी एक सुरक्षाकर्मी जोर से दामू को डंडा दे मारता है ।)
शंकर: (जोर से चिल्लाते हुए) साहब मैं इसे जानता हूँ, मत मारीए इसे ।
साहब: क्यों आए हो यहाँ ?
दामू:(अपनी टांगों को सहलाते हुए) साहब मैं ये देखने आया था कि शंकर इस विराने से  बाजार में क्या खरीदने आया था ।
साहब: देख लिया तुमनें, 
क्या खरीदने आया था ?
दामू: हाँ साहब  देख लिया कि
भरा हुआ थैला , बाजार में खाली कर ,
शंकर ने ऐसी अनमोल चीज खरीदी है जिसका कोई मूल्य नहीं हो सकता  ।
साहब: कौनसी चीज है वो।
दामू: साहब इंसानियत, इंसानियत है वह चीज ।
-०-
डॉ.राजेश्वर बुंदेले 'प्रयास'
अकोला (महाराष्ट्र)
-०-

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