'कितना समय गँवाते हैं!'
(कविता)
कितना समय गँवाते हैं,हम सजने और सँवरने में। पाने को झूठी प्रशंसा, फँसने को झूठे आकर्षण में।
यह सच है सजी हुई चीजें,सब को आकर्षित करती हैं।
पर गुणवत्ता के बिना किसी का,भला नहीं कर सकती हैं।
फिर भी इस आकर्षण की, हम अंधी दौड़ में घुसते हैं।
उच्च लक्ष्यों को तजकर के,बस रूप रंग को रचते हैं।
पर इन सब कृत्यों से केवल,हम समय दुरुपयोग करते हैं।
आइटम बन प्रसारित होते, सर्जक न कोई बनते हैं।
बस स्वयं सुन्दरता की ही बातें,मन में गढ़ते रहते हैं।
दूसरों को तुच्छ जताने की, गलतियाँ करते रहते हैं।
बार बार छबि निहारना दर्पण में,दर्प हमारा बढ़ाता है।
जरूरी चीजों से ध्यान भटकाकर,हमें नाकारा बनाता है।
यह बनना ठनना हमको,कुछ हद तक खुशियाँ देता है।
पर असली खुशियों के स्रोत के,सब द्वार बंद कर देता है।
इस तरह ही यदि महापुरुषों ने,अपना समय गँवाया होता।
तो वे कैसे दिलाते आजादी,
उन्होंने कैसे वायुयान बनाया होता।
हम कैसे पाते रात्रि में रोशनी,
हमने कैसे तकनीकी ज्ञान बढ़ाया होता।
कैसे होते मेजर आपरेशन,
कैसे ब्रह्मोस गया बनाया होता।
हम कैसे पढ़ते गीता रहस्य,कामायनी या गीतांजलि को।
रश्मि रथी जैसे खण्ड काव्यों,
और रहीम कबीर के दोहों को ।
पंचतंत्र की कहानियाँ,हम कैसे बच्चों को सुनाते।
खूब लड़ी मरदानी वाली,गाथायें कैसे गा पाते।
इन महापुरुषों ने किया था,हर पल का सदुपयोग यहाँ।
अमर हो गए वे धरा पर, उनका ॠणी हो गया जहाँ।
दीपक आरजू इतनी भर है,
कोई यह बेशकीमती समय न खोओ।
हर पल चिंतन करो सृजन का,दुःख में भरकर मत रोओ।
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पता
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