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Wednesday 30 September 2020

है हिंदी मेरी भाषा (कविता) - अजय कुमार व्दिवेदी

है हिंदी मेरी भाषा
(कविता)
है हिन्दी मेरी भाषा। 
मेरा अंग्रेजी से बैर नहीं, है हिन्दी मेरी भाषा।
मात पिता भाई बहन, बन्धु सा अपना नाता।
हिन्दी है मेरे रग रग में, मैं हिन्दूस्तां का वाशी हूँ।
हूँ पढ़ता लिखता हिन्दी में, हिन्दी ही मन को भाता।

मेरा अंग्रेजी से बैर नहीं, है हिन्दी मेरी भाषा।
मात पिता भाई बहन, बन्धु सा अपना नाता।

माँ बाबूजी कहना और कहना दादी नानी। 
होते ही रात वो सुनना हिन्दी में कहानी।
दादी के गोद में सोना माँ के आँचल का बिछौना। 
सिखाता हमको अ अनार और ज्ञ से भईया ज्ञानी। 
रिश्तों के बंधन में बंधना हिन्दी से है आता। 

मात पिता भाई बहन, बन्धु सा अपना नाता।
मेरा अंग्रेजी से बैर नहीं, है हिन्दी मेरी भाषा।

आती है मुझको अंग्रेजी पर हिन्दी में बतियाता हूँ।
सुनकर अपनों के मुख से अंग्रेजी मैं डर जाता हूँ।
नहीं समझ में आता सब हिन्दी से कतराते क्यूँ?
देख के हिन्दी की हालत मैं अक्सर घबराता हूँ।
हिन्दी के बिना बच्चों में संस्कार कहा है आता।

मेरा अंग्रेजी से बैर नहीं, है हिन्दी मेरी भाषा।
मात पिता भाई बहन, बन्धु सा अपना नाता।

हर भाषा को पढ़ें लिखें पर हिन्दी में सब काम करें।
आओं हम सब मिलकर अपनी हिन्दी पर अभिमान करें।
बच्चों को अपने सिखलायें हिन्दी का मान बढ़ाये वो।
ऐसा इक दिन ले आयें सब हिन्दी का सम्मान करें।
हिन्दी से ही राग प्रेम कविताओं में भी आता।

मात पिता भाई बहन, बन्धु सा अपना नाता।
मेरा अंग्रेजी से बैर नहीं, है हिन्दी मेरी भाषा।
-०-
अजय कुमार व्दिवेदी
दिल्ली
-०-


***
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भूल कर.…. (गीत) - मईनुदीन कोहरी 'नाचीज'

 

भूल कर.….
(गीत)
भूल  कर भी सपनों में  आना न कभी  ।
प्यार के फरेब में बहलाना न कभी ...
बेवफा तेरी बेवफाई का वो मन्ज़र याद है
प्यार की जूठी कस्मे खुलाना न कभी ।।
भूल कर ...............................!

जिंदगी में फूलों सी महक रही है सदा ।
राह के काँटों से भी तोड़ा है ना दोस्ताना कभी ...
तमन्ना सदा रही है , खुशियों की सौगात दूँ
दिल में लगा के आग, नयनों से रिझाना ना कभी  ।।
भूल कर............................!

सब कुछ लूटा कर भी, कभी गमगीन ना हुआ ।
परछाई बन कर भी कभी , मेरे करीब आना ना कभी .......
मेरा गम तेरी ख़ुशी , ये तो कुदरत की बात है 
सजधज कर अब ना मुझे , पग्लाना ना कभी  ।।
भूल कर ........................!

तेरा तन - बदन मौजें ले रहा , यौवन में लड़खड़ाना ना कभी ।
दर्द दिया है जो तुमने , दवा बन मेरे करीब आना ना कभी .......
दर्द -ए- दिल का ईलाज, अब तो होना है ना मुमकिन  ।
-०-
मईनुदीन कोहरी 'नाचीज'
मोहल्ला कोहरियांन, बीकानेर

-०-

***
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अंतरंगता (नवगीत) - अशोक 'आनन'

अंतरंगता
(नवगीत)
माचिसों से
बारूदों की अंतरंगता -
ठीक नहीं लगती ।

          समंदर सद्भाव का
          अब लावे - सा -
          उबल रहा ।
          मौसम मुस्कानों का
          मशीनगनों को  -
          मचल रहा ।

शोलों से
हवाओं की अंतरंगता -
ठीक नहीं लगती ।

         सद्मावना के दीये भी
         बुझकर -
         उगलने लगे धुआं ।
         आदमी को
         ज़िंदगी लगने लगी -
         मौत का कुआं ।

आंखों से
तिनकों की अंतरंगता -
ठीक नहीं लगती ।

         सुबह से
         दिखते हैं रोज़  -
         वही घृणित चेहरे ।
         अफ़सोस ! जिन्हें
         कर सके न नमन -
         बहुतेरे ।

वसंत से
कौओं की अंतरंगता -
ठीक नहीं लगती ।
-०-
पता:
अशोक 'आनन'
शाजापुर (मध्यप्रदेश)




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लौटना (कविता) - सुशांत सुप्रिय

लौटना 
(कविता)
बरसों बाद लौटा हूँ
अपने बचपन के स्कूल में
जहाँ बरसों पुराने किसी क्लास-रूम में से
झाँक रहा है
स्कूल-बैग उठाए
एक जाना-पहचाना बच्चा

ब्लैक-बोर्ड पर लिखे धुँधले अक्षर
धीरे-धीरे स्पष्ट हो रहे हैं
मैदान में क्रिकेट खेलते
बच्चों के फ़्रीज़ हो चुके चेहरे
फिर से जीवंत होने लगे हैं
सुनहरे फ़्रेम वाले चश्मे के पीछे से
ताक रही हैं दो अनुभवी आँखें
हाथों में चॉक पकड़े

अपने ज़हन के जाले झाड़ कर
मैं उठ खड़ा होता हूँ

लॉन में वह शर्मीला पेड़
अब भी वहीं है
जिस की छाल पर
एक वासंती दिन
दो मासूमों ने कुरेद दिए थे
दिल की तस्वीर के इर्द-गिर्द
अपने-अपने उत्सुक नाम

समय की भिंची मुट्ठियाँ
धीरे-धीरे खुल रही हैं
स्मृतियों के आईने में एक बच्चा
अपना जीवन सँवार रहा है ...

इसी तरह कई जगहों पर
कई बार लौटते हैं हम
उस अंतिम लौटने से पहले
-०-
पता:
सुशांत सुप्रिय
ग़ाज़ियाबाद (उत्तरप्रदेश)

-०-



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Tuesday 29 September 2020

सावित्री (लघुकथा) - बजरंगी लाल यादव

 

सावित्री
(लघुकथा)
 " सावित्री ! आज मैंने एक सुन्दर- सा सपना देखा। सपने में मुझे महादेव ने साक्षात दर्शन दिये और एक वरदान मांँगने के लिए कहा तो; मैंने करबद्ध होकर कहा- हे भोलेनाथ ! मैं चाहता हूं कि भारत फिर से सोने की चिड़िया बन जाये।  तथास्तु....! कह कर महादेव अंतर्धान हो गये। फिर मुझे लक्ष्मी जी ने दर्शन दिये तो; उनसे मैंने निर्धनों के लिए समृद्धि मांँगी। तीसरी बार में सरस्वती जी का स्वरूप दिखा तो; उनसे मैंने साहित्य- कला के क्षेत्र से जुड़े सभी संघर्षरत लोगों के लिए सफलता की याचना की। और अंत में गायत्री माता से साक्षात्कार हुआ तो; मैंने साष्टांग  नमस्कार करते हुये; उनसे सद्बुद्धि मांँगी। ताकि पूरे विश्व में अमन- चैन कायम हो और आतंकियों के दिलों में मानवता के प्रति दया जागृत हो....! "
            तभी सावित्री ने झट से कहा- " बाप रे....! तुम मांँग रहे थे; या दूसरे को दे रहे थे। यह बताओं, अपने लिए कुछ मांँगा; या यूं ही स्वामी विवेकानंद की तरह  बुत बने रहे ? " सावित्री ने प्रश्नवाचक निगाहों से पति के चेहरे को देखकर बोली।
" मैंने, अपनी सावित्री के लिए एक छोटी- सी गायत्री मांँगी; जो हमारे घर- आँगन को खुशियों से गुलजार कर दे "  पति के इतना कहते ही निस्संतान सावित्री भावुक हो गई।
-०-
पता:
बजरंगी लाल यादव
बक्सर (बिहार)


-०-



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कान्हा मेरा (कविता) - लक्ष्मी बाकेलाल यादव


कान्हा मेरा
(कविता)
कान्हा मेरा बड़ा ही नटखट
रुप-रंगीला, छैल-छबिला
मोरपखा सिर ऊपर राखे
चोरी-छुपे वह माख़न चाखे
गोपियों संग मिल हमजोली
खेले वह आंख-मिचौली
बासुरी की धुन मनोहर
राधा का वह प्रिय मुरलीधर
श्यामरंग मेघ घटा सी सुंदर
चमक है बिजली से बढ़कर
चार भुजाएं अतिशोभित 
चक्र,पद्म,शंख,गदा से विभूषित
तरूण पिताम्बरधारी केशव
वनमालाएं उसपर भाएं
मथुरा का कहलाए पालनहारी
ऐसा है हमारा यह कृष्णबिहारी...
***
पता:
लक्ष्मी बाकेलाल यादव
सांगली (महाराष्ट्र)

-०-



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मेरा आईना (कविता) - श्रीमती रमा भाटी

 

मेरा आईना
(कविता)
पूछता है मेरा आईना
क्या यह तुम ही हो
पहचानने की कोशिश 
करता हूं तुम्हें,
बहुत अनजानी सी
लगती हो तुम।

रोज देखा करता हूं
लेकिन कुछ बदली बदली
सी लगती हो तुम,
ना मुझे देख अब 
संजती संवरती हो तुम।

क्या अब तुम्हारा
मन नहीं करता
अपने को मुझमें देखो तुम,
तुम्हें क्या पता मेरा
अनुभव क्या कहता है।

याद है आज भी वो दिन
जब बार-बार आकर तुम
निहारती थी मुझे देख,
लगाती थी बिंदी तो
कभी संवारती थी बाल
मुझे देख तुम।

ना चुराओ तुम नजरें मुझसे
सवारों अपनी लहराती लटों को
जिनमें हिना का रंग है,
लगाओ अपनी चोटी में
फूलों का गज़रा तुम।
अब तुम्हें क्या हो गया
-०-
पता:
श्रीमती रमा भाटी 
जयपुर (राजस्थान)

-०-


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शुद्धिकरण (लघुकथा) - रीना गोयल

शुद्धिकरण 
(लघुकथा)
            माया देवी एक धनाढ्य परिवार की  उच्च जाति की महिला थी ।पति की असमय मृत्यु के बाद उन्होने  ही अपने दोनों बेटों ,मनुज ओर अनुज को अकेले पाला था। किन्तु उच्च जति का गर्व उनकी हर बात में झलकता था... मनुज का विवाह अपनी जाति और बराबर के खानदान में करके फूली नही समायी थी  वे । लेकिन अनुज को  उसके साथ काम करने वाली दलित सुधा से प्रेम हो गया था । माँ के बहुत विरोध करने पर भी अनुज ने सुधा से विवाह कर अलग रहना शुरू कर दिया ।माया देवी ने स्वीकार जो नही किया सुधा को ...
            समय बीतता रहा ......
             दो वर्ष बाद जाने कैसे माया देवी के पूरे बदन में कोढ़ निकल आया कोई पास लगने को तैयार नही 
मनुज की पत्नी तो देखती भी नही थी । बहुत बुरी हालत हो चली थी माया देवी की लेकिन ऐसी स्थिति में सुधा ने दलित होते हुए भी माया देवी की जी जान से सेवा की  ओर रोग मुक्त करके ही  चैन लिया। सुधा के अथक प्रयास से वह बिल्कुल स्वस्थ हो गयी  अब माया देवी  सुधा से किये अपने  व्यवहार पर बहुत शर्मिंदा थी ।
"सोच रही थी शुद्धि कर्ण किसका हुआ था "
-०-
पता:
रीना गोयल
सरस्वती नगर (हरियाणा)




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Monday 28 September 2020

बादल (कविता) - मुकेश कुमार 'ऋषि वर्मा'

 

बादल
(कविता)
कभी जो थे मासूम से सूने-सूने बादल |
अब दिखा रहे तरह-तरह के रंग बादल ||

झमा-झम-झम झड़ी लगा रहे |
तड़ा-तड़-तड़ बिजली चमका रहे ||

कभी छोटीं तो कभी बड़ीं-बड़ीं बूंदें |
सुन गड़-गड़ की ध्वनि बच्चे आँखें मूंदें ||

जब जोर-शोर से बरसे पानी |
छतरी खोल बाहर निकले नानी ||

सर-सर-सररर हवा चले पुरवाई |
टीनू-मीनू ने कागज की नाव चलाई ||

बागों में नन्हीं-नन्हीं कलियां मुस्काई |
मेढ़क दादा ने टर्र-टर्र की टेर लगाई ||

कीट-पतंगों के जीवन में बहार आयी |
खेतों में चहुंदिशि हरियाली छायी ||

कीचड़ की लपटा-लपटी से बेहाल |
मामाजी की बदल गई है देखो चाल ||

वर्षा रानी आती हैं, थोड़ी-बहुत समस्या लाती हैं |
पर धरती के जीवन में नव प्राण भर जाती हैं ||
-०-
मुकेश कुमार 'ऋषि वर्मा'
फतेहाबाद-आगरा. 
-०-

***
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वर्षा गीत (कविता) - शाहाना परवीन

वर्षा गीत
(कविता)
घुमड़- घुमड़ कर बदरा आये,
मेरे घर- आँगन में छाए।
मेरी अंखियन तक- तक जाए।
तुम कब आओगे सजनवा?

अब तो आ जाओ सजना,
बागों में पड़ गए झूले।
अँबुआ की डाल पर कोयल,
मतवाली होकर बोले।

मेरी अंखियन तक- तक जाए।
तुम कब आओगे सजनवा?

सखियन से करूँ ना मै बात,
लागे ना मोरा जिया सजना आए याद।
बदरा भी अब तो घिर आए,
पवन मंद- मंद मुसकाएं।

मेरी अंखियन तक- तक जाए।
तुम कब आओगे सजनवा?
पता -
शाहाना परवीन
मुज़फ्फरनगर (उत्तर प्रदेश)
-०-


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चेहरे पर मुस्कान (लघुकथा) - आर्या झा

 


प्रियंवदा

(लघुकथा)
आज सुबह दरवाजा खोला तो बाहर गुलाबो खड़ी मिली। वह हमारे पड़ोस के घर में काम करती थी। हमेशा हँसते रहने वाली आज बड़ी घबराई दिखी। उसके मुँह से आवाज़ नहीं निकल रही थी। मेरा हाथ पकड़ कर लगभग खींचती हुई अपने साथ ले गई। सामने जो नजारा था वह दिल दहलाने वाला था।

आंटी जी सोफे पर अधलेटी थी। गर्दन एक ओर झुक आया था। उन्हें देखकर एकबारगी मेरा दिल भी काँप गया। डरते-डरते उनके नजदीक पहुँची तो महसूस किया कि शरीर तप रहा था। मैंने हिम्मत कर उन्हें झकझोरा। मुझे घर आई देख कर वह थोड़ी सचेत हुईं।

"अरे आंटी! आपको तेज बुखार है। निशा कहाँ है?" "आज कमल का जन्मदिन है ना! वह दोनों अनाथाश्रम गए हैं।" "ओह! आपको दवा देनी होगी। नाश्ता किया आपने?" " दीदी ब्रेड - बिस्किट रख गईं हैं पर माँ जी खा नहीं रहीं !"गुलाबो बोली। "अरे! ऐसे कैसे? दिन के बारह बज रहे हैं। तूने कुछ बनाया नहीं?" "आज सभी बाहर ही लंच करने वाले हैं। मुझे खिचड़ी बनाने के लिए कह गईं हैं। माँ जी ना तो ब्रेड खाने तैयार हैं और ना हीं खिचड़ी। दीदी का फोन नहीं लग रहा था इसलिए आपको बुला लाई।"

"अच्छा किया। चल मेरे साथ।" मैंने आलू परांठे,टमाटर की चटनी व चावल की खीर बनाई थी। आंटी ने खुश होकर खा लिया। एक पैरासिटामोल खिला कर उन्हें सुला दिया। थोड़ी देर बैठ कर उनका माथा सहलाती रही। जब तापमान गिरा तो वापस आ गई।  एक कनेक्शन सा महसूस हो रहा था। उनके बारे में सोचती हुई सोफे पर सो गई। अचानक नींद खुली तो देखा कि निशा का स्टेटस बदल गया था। शहर के सबसे बड़े होटल में खाते हुए दोनों लव -बर्डस लग रहे थे। घर वापस लौट कर मुझसे मिलने आई और आंटी का ख्याल रखने के लिए बहुत धन्यवाद दिया। आज की अपनी अनाथाश्रम से लेकर फाइव-स्टार होटल तक का सफ़र बताती हुई बेहद उत्साहित थी।  उसके जाने के बाद अकेली बोर होने लगी तो फेसबुक खोला। निशा ने निन्यानवे फोटोज अपलोड किये थे। एक- एक बच्चे के साथ तस्वीर डाली थी। हाथों में ब्रेड-बिस्किट केे साथ खिलखिलाते मासूम बच्चे बहुत प्यारे लग रहे थे पर उन सभी तस्वीरों पर भारी वह सौवीं तस्वीर थी जो मेेरी आँखों में कैद थी। उसकी तस्वीरों पर चंद घंटों में ही दो सौ लाइक और सौ कमेंट आ गए थे जो कि दंपत्ति की दरियादिली की तारीफों में थे, पर मेरे हृदय में बसी तस्वीर में जीवंतता थी। मेरा साथ पाकर खुश हो आई आंटी के चेहरे पर एक आत्मसंतुष्टि थी और एक विश्वास भी कि वह अकेली नहीं हैं। किसी बुजुर्ग के चेहरे पर मुस्कान लाकर मुझे भी अच्छा लगा था।
-०-
आर्या झा
हैदराबाद (तेलंगाना)

-०-

***
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Sunday 27 September 2020

अखबार (कविता) - प्रीति शर्मा 'असीम'

 

अखबार
(कविता)
बंद पड़ी  सोच को ,
जब हिलाना ही नहीं है | 
खबर पढ़कर भी जब ,
आवाज़  उठाना ही नहीं है| 
टुकड़ा यह कागज का रद्दी नहीं, 
तो ........और  क्या है़ं|
कब तक  ,खुद को 
दूसरे  की  आग  से  बचाओगे|
नफ़रतों की  चपेट में, 
तुम भी  तो  आओ गें |
यह  बोले गा.......! 
वो बोलो गा.......? 
गलत को गलत  ,
कहने को भी इतना क्यों सोचेगा |
तू क्यों........नही बोलेगा |
अच्छे  समाज को कौन बनायेंगा|
कलयुग है, भाई कलयुग है |
यह तो सब रोते है |
सतयुग  कोई  बाहर से  नहीं आयेगा|
-०-
पता:
प्रीति शर्मा 'असीम'
नालागढ़ (हिमाचल प्रदेश)

-०-


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सृजन (कविता) - सोनिया सैनी

सृजन
(कविता)
जब कवि करता है
सृजन
नव साहित्य का
जीवन के उदगीत का,
तो बिसार, स्वयं को
हो जाता है, तल्लीन
संसार को राह दिखाने को
नव पीढ़ी को, जीवन
मूल्य समझाने को,
लिप्त हो जाता है
पात्रो की संवेदना में
उस समय कवि, स्वयं
नहीं विद्यमान रहता
स्वयं में,
उसकी लेखनी
मां सरस्वती ,के संसर्ग से
रच डालती है,
नवाचार
गढ़ बैठती है
नव उत्थान, नव प्रभात।
-०-
पता:
सोनिया सैनी
जयपुर (राजस्थान)

-०-


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पितृ पक्ष (कविता) - प्रीति चौधरी 'मनोरमा'

 

पितृ पक्ष
(कविता) 
पितृ पक्ष में हम अपने पितरों का स्मरण करते हैं,
श्रद्धा पूर्वक अपने पूर्वजों का तर्पण करते हैं,
 पिंडदान की यह रीति है बहुत पुरातन,
 हृदय प्रसूनों का भावपूर्वक अर्पण करते हैं।

पूर्वज पूजा की यह प्रथा बहुत प्राचीन है,
 बिन पूर्वजों के हमारा जीवन प्राण- विहीन है,
 आभारी हैं हम अपने पितृ जनों के बहुत,
उनके स्नेहरूपी मेघों से आच्छादित हृदय जमीन है।


इसे अपर पक्ष नाम से भी जानते हैं हम,
पितरों को अपना सर्वस्व मानते हैं हम,
सोलह दिन की अवधि का होता है पितृ पक्ष,
पूर्वजों हेतु ब्रह्मभोज को मानते हैं हम।
-०-
पता
प्रीति चौधरी 'मनोरमा'
बुलन्दशहर (उत्तरप्रदेश)


-०-


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हिमशिखर तक (कविता) अ कीर्तिवर्धन

हिमशिखर तक
(कविता)
हिम शिखर तक देखिए, तिऱंगा फहरा रहा,
सैनिकों की शौर्य गाथा, है गगन तक गा रहा।
पाताल की गहराइयों से, अन्तरिक्ष के पटल,
भारतीय सेना का परचम, दुश्मन थरथरा रहा।
चीन हो या आतंकी पाक, सामने भारत खड़ा,
देखकर म़ंसूबे अपने, लाल आतंक घबरा रहा।
सत्ता के भूखे भेड़िए कुछ, गद्दारी मुल्क से करें,
राष्ट्रभक्त जागरूक अब, बस उन्हें समझा रहा।
-०-
पता: 
अ कीर्तिवर्धन


***
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Thursday 24 September 2020

तीर्थयात्रा (लघुकथा) - रघुराजसिंह 'कर्मयोगी'

तीर्थयात्रा
(लघुकथा)
मां-बाप पहली बार तीर्थ यात्रा पर गए तो बहू बेटे ने उनका सामान उनके कमरे से हटाकर पीछे वाले कमरे में रख दिया। इसके बाद जब दूसरी बार यात्रा पर गए तो सामान वहां से उठाकर स्टोर रूम में रख दिया । माता-पिता जब लौटे तो उन्होंने देखा कि उसका सामान पीछे के कमरे में भी नहीं है तो उन्हें बड़ा दुख हुआ और पूछ लिया-
"बेटा, हमारा सामान कहां है"?
" पापा जी आपका सामान स्टोर रूम में रख दिया है।बच्चे बड़े हो रहे हैं।उनका कमरा उन्हें छोटा पड़ता है।इसलिए आपका सामान वहां से हटा दिया है । वैसे यह कमरा इतना बड़ा है कि आपको कोई परेशानी नहीं होगी-" बेटे ने कहा तो मां-बाप मन मसोस कर रह गए।
मां- बाप ने अपने बाल धूप में सफेद थोड़े ना किए थे। इसलिए बेटे को सबक सिखाने के लिए उन्होंने एक योजना बना डाली। दो-तीन महीने निकल जाने के बाद पिता ने पेंशन पर कर्जा ले लिया
"बेटा,हमें लगता है तुम कई वर्षों से कहीं घूमने नहीं गए हो।ये ₹50,000 ले जाओ और कहीं अच्छे से हिल स्टेशन पर परिवार के साथ मौज मस्ती कर आओ"।
बेटे ने हरे- हरे नोटों का बड़ा सा बंडल देखा तो वह फूला न समाया।परिवार के साथ खुशी-खुशी दार्जिलिंग चला गया। मगर 10 दिन बाद जब वह लौटा तो उसने पाया कि जिस घर में वह परिवार सहित रहता था। उसमें कोई दूसरा परिवार आ गया है। उनके तो हाथ पैर फूल गए।नए मकान मालिक से पूछा तो उन्होंने बताया-
" यह मकान हमने तुम्हारे पिता से खरीद किया है।वह मकान खाली करके दूसरे मोहल्ले में चले हैं।यह रहा उनका पता"।
पुत्र पता लेकर पिता को तलाशता हुआ उन के पास पहुंचा,जहां वह किराए के मकान में रह रहे थे। वहां उसने जोर-जोर से चिल्ला कर मोहल्ला इकट्ठा कर लिया।कहने लगा-
"आपका साहस कैसे हो गया जो आपने पुश्तैनी मकान बेच दिया।"
" ठीक वैसे ही जैसे तीर्थ यात्रा पर जाने के बाद तुम हमारा सामान हटा देते थे"-पिता ने कहा।बेटे को अब समझते देर न लगी कि जैसे को तैसा।
-०-
रघुराजसिंह 'कर्मयोगी'
कोटा (राजस्थान)

-०-

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स्व-अनुशासन (कविता) - गोरक्ष जाधव


स्व-अनुशासन 
(कविता) 
हम स्व-अनुशासन भूल गए,
परिश्रम का इतिहास भूल गए,
जिए कैसे,कैसे रहे, यह,
कृति का विज्ञान भूल गए।
हम स्व-अनुशासन भूल गए।

हम छोड़कर स्वधर्म को,
कुकर्मों की सीमाओं में बंध गए,
आकाश का धर्म भूल गए,
मानवता का कर्म भूल गए।
हम स्व-अनुशासन भूल गए।

हमारी स्वार्थ की अनहोनी कुरीतियाँ,
भयावह है मानव की कृतियाँ,
आहार का आचार भूल गए,
प्रकृति का सन्मान भूल गए।
हम स्व-अनुशासन भूल गए।

संयम रखें और संकल्प करें,
नित्य नूतन स्वाध्याय से,
प्रेम-शांति के बुद्ध भूल गए,
सृष्टि का संतुलन भूल गए।
हम स्व-अनुशासन भूल गए।
कब बदलेंगी प्रकृति करवट,


उसकी है यह पहली आहट,
श्रेष्ठत्तम बनने की छोड़ दो चाहत,
हम कठपुतली है,यह सत्य भूल गए।
हम स्व-अनुशासन भूल गए।
-०-
गोरक्ष जाधव 
मंगळवेढा(महाराष्ट्र)

-०-




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सृजन रचानाएँ

गद्य सृजन शिल्पी - नवंबर २०२०

गद्य सृजन शिल्पी - नवंबर २०२०
हार्दिक बधाई !!!

पद्य सृजन शिल्पी - नवंबर २०२०

पद्य सृजन शिल्पी - नवंबर २०२०
हार्दिक बधाई !!!

सृजन महोत्सव के संपादक सम्मानित

सृजन महोत्सव के संपादक सम्मानित
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