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Thursday, 24 September 2020

तीर्थयात्रा (लघुकथा) - रघुराजसिंह 'कर्मयोगी'

तीर्थयात्रा
(लघुकथा)
मां-बाप पहली बार तीर्थ यात्रा पर गए तो बहू बेटे ने उनका सामान उनके कमरे से हटाकर पीछे वाले कमरे में रख दिया। इसके बाद जब दूसरी बार यात्रा पर गए तो सामान वहां से उठाकर स्टोर रूम में रख दिया । माता-पिता जब लौटे तो उन्होंने देखा कि उसका सामान पीछे के कमरे में भी नहीं है तो उन्हें बड़ा दुख हुआ और पूछ लिया-
"बेटा, हमारा सामान कहां है"?
" पापा जी आपका सामान स्टोर रूम में रख दिया है।बच्चे बड़े हो रहे हैं।उनका कमरा उन्हें छोटा पड़ता है।इसलिए आपका सामान वहां से हटा दिया है । वैसे यह कमरा इतना बड़ा है कि आपको कोई परेशानी नहीं होगी-" बेटे ने कहा तो मां-बाप मन मसोस कर रह गए।
मां- बाप ने अपने बाल धूप में सफेद थोड़े ना किए थे। इसलिए बेटे को सबक सिखाने के लिए उन्होंने एक योजना बना डाली। दो-तीन महीने निकल जाने के बाद पिता ने पेंशन पर कर्जा ले लिया
"बेटा,हमें लगता है तुम कई वर्षों से कहीं घूमने नहीं गए हो।ये ₹50,000 ले जाओ और कहीं अच्छे से हिल स्टेशन पर परिवार के साथ मौज मस्ती कर आओ"।
बेटे ने हरे- हरे नोटों का बड़ा सा बंडल देखा तो वह फूला न समाया।परिवार के साथ खुशी-खुशी दार्जिलिंग चला गया। मगर 10 दिन बाद जब वह लौटा तो उसने पाया कि जिस घर में वह परिवार सहित रहता था। उसमें कोई दूसरा परिवार आ गया है। उनके तो हाथ पैर फूल गए।नए मकान मालिक से पूछा तो उन्होंने बताया-
" यह मकान हमने तुम्हारे पिता से खरीद किया है।वह मकान खाली करके दूसरे मोहल्ले में चले हैं।यह रहा उनका पता"।
पुत्र पता लेकर पिता को तलाशता हुआ उन के पास पहुंचा,जहां वह किराए के मकान में रह रहे थे। वहां उसने जोर-जोर से चिल्ला कर मोहल्ला इकट्ठा कर लिया।कहने लगा-
"आपका साहस कैसे हो गया जो आपने पुश्तैनी मकान बेच दिया।"
" ठीक वैसे ही जैसे तीर्थ यात्रा पर जाने के बाद तुम हमारा सामान हटा देते थे"-पिता ने कहा।बेटे को अब समझते देर न लगी कि जैसे को तैसा।
-०-
रघुराजसिंह 'कर्मयोगी'
कोटा (राजस्थान)

-०-

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