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Thursday 24 September 2020

डर लगता है (कविता) - आशीष तिवारी 'निर्मल'

डर लगता है
(कविता)
सहमा - सहमा सारा शहर लगता है
कोई गले से लगाए तो,डर लगता है।

आशीष लेने कोई नहीं झुकता यहाँ
स्वार्थ के चलते पैरों से,सर लगता है।

अपना कहकर धोखा देते लोग यहाँ
ऐसा अपनापन सदा,जहर लगता है।

इंसान-इंसान को निगल रहा है ऐसे
इंसान-इंसान नही,अजगर लगता है।

साजिश रच बैठे हैं सब मेरे खिलाफ
छपवाएंगे अखबार में,खबर लगता है।

साथ पलभर का देते नही लोग यहाँ
टांग खींचने हर कोई,तत्पर लगता है।
-०-
आशीष तिवारी 'निर्मल'
रीवा (मध्यप्रदेश)

-०-



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